29 May, 2008

missing my ipod



i miss you...subuk subuk :(

ऐसे ही

सुनो, मुझे एक रात ला दो ना...
हाँ चाँद भी ले आना चाहे जितना भी बड़ा मिले
कुछ तारे भी तोड़ देना अगर ज्यादा परेशानी ना हो

जनाब ने "जो हुकुम" कह के सर झुकाया
और दो मिनट में गेट से बाहर

और मैं अपने कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलने लगी

दिन तो फ़िर भी मिल जाता है
वो रातें नहीं मिलती
कोहरे वाली, कभी बारिशो में भीगी हुयी
कुछ गीतों की यादों में लिपटी हुयी

वो आस्मान के नीचे खुली खुली सी रातें
क्या सच में कभी ला पायेगा वो

मैं सोच रही थी...शाम ढल गई
रात हो रही थी

कॉल बेल बजी,
और जनाब ने मेरी आंखों पर पट्टी बान्ध दी

और पट्टी खुली तो देखा
घर के गेट पर chevrolet optra लगी हुयी थी

और जनाब का कहना था
ये लो...बैठ के आराम से रात देखो !!!!

अपने लोग

कुछ लोग साथ चला करते थे
कुछ वक्त पहले

ऐसा नहीं होता था कि एक ही ओर जाना होता था
ऐसा भी नहीं कि कुछ काम होता था

ये भी नहीं कि चाय या सिगरेट कि तलब हो किसी को
ये भी नहीं कि एक ही ढाबे का खाना पसंद आता था

हम साथ चलते थे क्योंकि
हमें साथ चलना अच्छा लगता था

रास्ते तो तब भी अलग होते थे
रस्ते अब भी अलग ही हैं हमारे

ये अलग रास्तों पर चलने कि थकन
ये अपनी मंजिल पर जल्दी पहुँचने की होड़

ये नहीं हुआ करती थी उस समय
घंटों टहलना, ठहरना, बातें करना

कभी पार्थसारथी रॉक पर बैठना
सूर्यास्त और चंद्रोदय देखना

जाने कब ये वक्त बीच में आ गया
जाने कब हम अपने अपने रास्ते चलने लगे

और जाने कब...
कई मोड़ों पर मुड़ते मुड़ते
हम सब खो गए...

अपने रास्तों पर
अपनी जिंदगी में
अपनी नौकरी में
अपनी व्यस्तताओं में

सब अपना...
सिवाए...अपनों के.

26 May, 2008

एक शाम

क्यों खास थी वो शाम?

तुम और मैं
एक पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रहे थे
काफ़ी देर तक

बस...
कुछ खास बातें भी तो नहीं की थीं
एक भुट्टा खाया था

नहीं...
मेरा भुट्टा था, और तुमने खाया था
मेरा जूठा पानी पिया

मौसम...
भीगा सा, चंचल सा था
बारिश हुयी थी सुबह

पैदल...
देख रहे थे कि कौन थकता है
और लौटना किसे है

हाथ भी तो नहीं पकड़ा था मेरा
मेरी तारीफ़ भी नहीं की
फ़िर?

पर उस शाम
कई दिनों बाद
जैसे हम मिले थे

सिर्फ़ हम...

मॉल की चमचमाहट में
बर्गर और कोक के साथ
शॅपर्स स्टॉप में भटकते हुए
बिग बाज़ार की छूट में

मैं और तुम ही रहते हैं
हम नहीं हो पाते

उस पुरानी सी शाम में
फ़िर से तुम और मैं
हम हो गए थे...

khurafaat

ohh...the joy of khurafaat

the keeda of shaitani

and to make everything ulta pulta

or to change just for the heck of it

i think its after long that i am experiencing this silly feeling thats somewhere near to euphoria, coz i tried something that is not at all in my domain, i changed the template of my other blog, and a little bit of tweaking with html.

software and these infinite lines of coding always seemed greek to me, nothing made any sense and i was really terrified...but today i overcame a great fear of mine

hurraaayyy!!!

13 May, 2008

reaction-perhaps

नदी कैसे बनती है
किसी एक जगह से निकल कर

जैसे गंगोत्री या यमुनोत्री
बढ़ती जाती है...
पर उसका रास्ता कैसे तय होता है
कैसे निश्चित होता है उसका सागर में मिलना

क्या कविता नदी की तरह होती है
कहीं से उठी और जिधर मन किया बहती चली गई

मुझे लगता है कवितायेँ दो तरह की होती हैं
एक तो वो जो नदी की तरह होती हैं

और एक कैनाल की तरह
जिसका रास्ता नक्शों पर पहले से निर्धारित होता है

बहाव दोनों में होता है
और पानी भी

बस दोनों की इच्छा में फर्क होता है
एक मनमौजी होती है...जन्म से
दूसरी किनारों में बंधी
रास्ते पर निर्भर

पर दोनों जीवन देती हैं
खेतों में फसलें उगाती हैं


बस एक को बारिश में किनारे तोड़ कर बहने की इजाजत होती है
दूसरे को नहीं

क्या नदी कविता की तरह होती है?

समसामयिकता

नीलकंठ बनना आसान नहीं होता
सारा हलाहल
कंठ में रोक लेना

द्वेष, दुःख, क्रोध, अपमान
और कभी कभी तटस्थता भी

आप सोचोगे तटस्थता कैसे
ये कौन सा विष है?

पर सोचो तो सबसे भयंकर
बस यही विष है

इसे कंठ में रोक लेने के लिए
शंकर जैसा तप का ओज चाहिए होगा

या कौन जाने इश्वर होने की आवश्यकता भी हो
विष पीना ही काफ़ी नहीं होता...
उसके बाद जीना भी अवश्यम्भावी होता है


मृत्यु समाधान नहीं है समस्या का
इसलिए भयानक विष पी कर भी जीवित रहने के संसाधनों की खोज जरूरी है


ये तटस्थता जब जयपुर में २० लोगो की मृत्यु का समाचार देख
लोग चैनल बदल के आईपीअल देखने लगते हैं

जब बर्मा के साईक्लोन के बारे में गूगल न्यूज़ पढ़कर
वीकएंड में रिलीज़ होने वाली फ़िल्म का रिव्यू पढ़ने लगते हैं

संवेदनशून्य भी कह सकते हैं
पर ये शब्द शायद ज्यादा इस्तेमाल हो चुका है

इसलिए तटस्थ कहूँगी
हलाहल को पी कर भी तटस्थ

शायद इतना मुश्किल भी नहीं होता
शंकर होना...

06 May, 2008

एक रोज मैंने सोचा

बहुत दिन हो गए
अपने आप से नहीं मिली हूँ
सोचती हूँ थोड़ा वक्त निकाल
मिल आऊं एक रोज़


जैसे उस नीली जींस के
पिछले पॉकेट में रखा हुआ है
मेरा पुराना वालेट
और थोडी रेजगारी
वैसे ही
कहीं भुलाई हुयी हूँ मैं


अब तक रखा
कॉलेज का आईडी कार्ड
जैसे अभी भी उसी पहचान
में पाना चाहती हूँ ख़ुद को
जिन आंखों में
सपनो पर बन्धन नहीं होते थे


कहीं किसी पहाड़ी की चोटी पर
दुपट्टे से खिलवाड़ करती हुयी
वहीं की हवा में
कहीं उड़ती हुयी हूँ मैं शायद


सोच रही हूँ
मिल आऊं
अपने आप से

इससे पहले कि
अपना पता ही भुला दूँ

01 May, 2008

एक रिश्ता ऐसा भी

याद है पहली मर्तबा जब छुपा के खाई थी

माँ से, अपने आँगन की धुली हुयी मिट्टी

और वो कबड्डी खेलते हुए बॉर्डर पहुँचने को

भरी थी मुट्ठी में मुह्ल्ले की गली की मिट्टी

पांचवी में भूगोल का एक चैप्टर था

क्यों लाल थी हमारे शहर की मिट्टी

खेल में जब कभी गिर जाते थे

घाव भर देती थी स्कूल की मिट्टी

उसके साथ भीगना पहली बारिश में

और पैरों के नीचे भीग रही मिट्टी

वो हर दिन उसी का इंतज़ार

जब कि बस दिन भर खोदती थी मिट्टी

जिंदगी भर निभाना मुश्किल हो गर

रिश्तों की जड़ सम्हालती नहीं मिट्टी

शहर की भाग दौड़ में भी है
हर एक के अन्दर अपने शहर की मिट्टी

जाने कितने शहर अब अपने है

मुझमें बसती है इन सबकी मिट्टी

मैं खफा हूँ

मैं खफा हूँ
हर चीज़ से
IPL से, उन लोगो से जो इसे देखते हैं
उन लोगो से जो बिजली की चोरी करते हैं
जिनके कारण मेरे घर में बिजली नहीं आती

मैं खफा हूँ
उन असामाजिक लोगो से
जिन्हें तमीज नहीं है
कि रात के बारह बजे
इस तरह loudspeaker नहीं चलाना चाहिए

मैं खफा हूँ इन मच्छरों से
जो मुझे चैन से एक पल बैठने नहीं देते
परेशान कर के रख दिया है

मैं खफा हूँ
उन सारे अमीर देशों से
जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं
इस गर्मी में ठंढक आती है
तो सिर्फ़ रिश्तों में


मैं खफा हूँ उन रिश्तों से
जिन तक जाने के पुल टूटे हुए हैं
और इस पार से मैं उन्हें बस देख सकती हूँ
धुन्ध्लाते हुए

मैं खफा हूँ अपनेआप से
किन चीजों में उलझ के रह गई हूँ
उफ्फ्फ़ !!!!!

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