29 May, 2008

अपने लोग

कुछ लोग साथ चला करते थे
कुछ वक्त पहले

ऐसा नहीं होता था कि एक ही ओर जाना होता था
ऐसा भी नहीं कि कुछ काम होता था

ये भी नहीं कि चाय या सिगरेट कि तलब हो किसी को
ये भी नहीं कि एक ही ढाबे का खाना पसंद आता था

हम साथ चलते थे क्योंकि
हमें साथ चलना अच्छा लगता था

रास्ते तो तब भी अलग होते थे
रस्ते अब भी अलग ही हैं हमारे

ये अलग रास्तों पर चलने कि थकन
ये अपनी मंजिल पर जल्दी पहुँचने की होड़

ये नहीं हुआ करती थी उस समय
घंटों टहलना, ठहरना, बातें करना

कभी पार्थसारथी रॉक पर बैठना
सूर्यास्त और चंद्रोदय देखना

जाने कब ये वक्त बीच में आ गया
जाने कब हम अपने अपने रास्ते चलने लगे

और जाने कब...
कई मोड़ों पर मुड़ते मुड़ते
हम सब खो गए...

अपने रास्तों पर
अपनी जिंदगी में
अपनी नौकरी में
अपनी व्यस्तताओं में

सब अपना...
सिवाए...अपनों के.

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