31 March, 2009

किस्सा अमीबा का...

अमीबा से हमारा पहला पाला बायोलोजी की क्लास में पड़ा था, इस कमबख्त की अंग्रेजी स्पेलिन्ग amoeba होती है और बोलते अमीबा है...यानि ओ साईलेंट रहता है। क्लास के अधिकतर बच्चो ने ग़लत स्पेलिन्ग बता दी थी...हम उस वक्त शायद कक्षा पाँच में पढ़ते थे...तो बस सबको होमवर्क मिल गया ५०० बार लिख के लाने का...उसके बाद मजाल है हम कभी भूलें हों।

तो इस जीव से चिढ़ हमें पहली ही मुकालात में हो गई थी...फर्स्ट इम्प्रेशन इतना ख़राब बनाया था इसने, भई हमारी क्या गलती है। लेकिन एक ही दो साल में हमें यह अमीबा बेचारा बड़ा प्यारा प्राणी लगने लगा...आप भी सोचेंगे क्यों भला...तो ये दर्द वही जाने है जिसने कभी बायोलोजी प्रैक्टिकल में बाकी जानवरों के डायग्राम बनाये हैं। माहौल देखिये...रात के कोई दस ग्यारह बजे हैं...मुहल्ले के कुत्तों का कोरस चालू हो चुका है...बिजली कटी हुयी है और लैंप की रौशनी में कोई बेचारी लड़की किताब से देख कर डायग्राम बनने में जुटी हुयी है, चारो तरफ़ छिली हुयी पेंसिल, रबर, कटर, ब्लेड आदि चीज़ें फैली हुयी हैं। हवा के कारण लैंप की लौ डिस्को कर रही है...लाख चिमनी लगा लो...ये लौ आज की लड़कियों की तरह बाहर की थोड़ी हवा लगते ही थिरकने लगती है। इस थिरकन के कारण कागज पर अजीब आजीब आकृतियाँ बन बिगड़ रही हैं...और इन प्रेतनुमा आकृतियों से घिरे कागज पर उसे उस पेट चिरे हुए मेंढक का रेखाचित्र बनाना है।

उस बेचारे मरे हुए मेंढक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हुए कागज से घमासान जारी है...उस वक्त सोचिये कितना गुस्सा आता होगा...अरे इस नामुराद मेंढक की आंतें होती ही क्यों हैं, और ऐसी टांगें...और ये सड़ी हुयी शकल...गरियाने के क्रम में सब लपेट लिया जाता था, सरकार तक जो जिसके कारण बिजली नहीं है...छोटे भाई को, जो इमर्जेंसी को चार्ज में लगाना भूल गया था, मच्छरों को रात में नींद क्यों नहीं आती और यहाँ तक कि स्कूल पर भी कि गर्मियों में एक्साम होते ही क्यों हैं।

ऐसे माहौल में जब सब जानवरों कि शारीरिक स्थिति का सही सही विवरण देना पड़ता था...यही अमीबा हमें देवदूत लगता था...कुछ करना ही नहीं है, कैसी भी आकृति बना दो...बन गया अमीबा। हम इसके एक सेल और फ्लेक्सिबल आकार के कारण इसे सबसे ज्यादा पसंद करते थे। और जब भी अमीबा बनाना होता खुश हो जाते(आपके लिए भी फोटो दे रखी है, आए हाय देखिये तो कित्ता क्यूट लग रहा है)। पर हमारी बायोलोजी टीचर को जाने क्या खुन्नस थी...होमवर्क में सब कुछ बनवाती थी, अमीबा छोड़ कर। धरती पर वाकई अच्छे लोगो की बड़ी कमी है।

खैर...हमारी डॉक्टरी पढ़ाई का किस्सा तो आप जानते ही हैं, सो हमारा इस प्यारे जीव से नाता टूट गया था काफ़ी सालों से। अभी शनिवार को हम खुशी खुशी अपना ड्राइविंग लाइसेंस के लिए फोटो खिंचाने गए तो लगा कि इतनी बड़ी उपलब्धि पर बाहर खाना तो बनता है...सो हम बड़े आराम से दाल मखनी, तंदूरी रोटी और अचारी पनीर पर टूट पड़े। सोचा रामप्यारी का जवाब थोड़ा आराम से दे देंगे घूमने निकल लिए...रात को घर आते आते पेट में दर्द शुरू। मगर हम इत्ते से घबराने वालों में थोड़े ही हैं, पुदीन हरा पिया, अजवाईन खायी और आराम से कम्बल ओढ़ के सो गए...सुबह उठे तो बुखार। अब तो हमारे पसीने छूट गए...पहले तो सोचा कि रामप्यारी को ही बुलवा लें कैट्स्कैन के लिए, फ़िर डर लगा कि अभी तक उसके सवाल का जवाब नहीं दिया है, पहले जवाब पूछना शुरू कर देगी तो क्या करुँगी।

तो दूसरी डॉक्टर के पास गई...उसने बताया कि इन्फेक्शन है...अमीबा ने किया है. अरे ये वही अमीबा है, और हमारे पेट में घुस के बैठा है। तो हम दुखी हो गए...बरसो की दोस्ती का ये सिला...दवाईयों के साथ हमने अपने दुःख को भी गटका...और सोचा आपको भी किस्सा सुना दें।

एक अच्छा ब्लॉगर वही है जो छोटी से छोटी चीज़ से एक पोस्ट लायक माल निकाल सके। एक सेल के microscopic अमीबा पर लिखी इस पोस्ट के लिए हम अपनी पीठ ख़ुद ठोकते हैं :D

वो...


वो लिखना चाहती है बहुत सारा कुछ, क्यों या किसके लिए ये मालूम नहीं...शायद आने वाली पीढ़ियों के लिए, शायद सिर्फ़ तुम्हारे लिए...तुमसे उसकी जिंदगी शुरू होती है और तुम पर ही आकर ख़त्म हो जाती है।

वो एक अजीब सी लड़की है, जिसे कविता लिखना पसंद है, सूर्यास्त देखना अच्छा लगता है, और किसी ऊँची पहाडी पर खड़े होकर बादलों को देखना भी।

वो लिखना चाहती है उन सारे दिनों के बारे में जब शब्द ख़त्म हो जाते हैं उसके पास से, जब वह बड़ी मुश्किल से तुम्हारी आंखों में तलाशती है जाने किन किन बिम्बों को...और उसे पूरा जहाँ नज़र आता है क्यों आता है ये भी मालूम नहीं।

उसे लिखना ही क्यों चाहिए कौन है जो उसका लिखा पढ़ेगा, वक्त की बर्बादी क्यों करना चाहती है वो. पर फ़िर भी वो लिखती है, इतना लिखती है कि एक दिन उसके सारे कागज ख़तम हो जाते हैं, कलमें टूट जाती हैं, दवात में स्याही नहीं बचती। उसे फ़िर भी लिखना होता है...वह आकाश बिछा कर लिखती रहती है, वो कहानियाँ जो कोई भी नहीं सुनता।

वो लिखती रहती है उन खामोश रातों के बारे में जब उसे अपनी माँ की बहुत याद आती है और उसकी आत्मा चीख उठती है...पर कोई आवाज नहीं आती। वह अपनी माँ को पुकारती रहती है और ये पुकार खामोशी से उसके शरीर के हर पोर से टकरा कर वापस लौटती रहती है। इतने सारे शब्द उसे अन्दर से बिल्कुल खोखला कर देते हैं और इन दरारों में दर्द आके बस जाता है।

वो लिखती रहती है जिंदगी के उन पन्नो के बारे में जो अब धुल कर कोरे हो गए हैं, जिनमें अब कोई याद नहीं है। एक बचपन जो माँ के साथ ही गुजर गया...कुछ सड़कें जो दिल्ली में ही छूट गयीं...कुछ चेहरे जो अब तस्वीरों में भी नहीं मुस्कुराते हैं।

वो लिखती रहती है चिट्ठियां जो कभी किसी लाल बक्से में नहीं गिरेंगी, खरीदती रहती है तोहफे जो कभी भेज नहीं सकती...इंतज़ार करती है राखी पर उस भाई का जिसका एक्साम चल रहा है और आ नहीं सकता। शब्द कभी मरहम होते हैं, कभी जख्म...तो कभी श्रोता भी।

वो लिखना चाहती है नशे के बारे में...पर उसने कभी शराब नहीं पी, वो चाहती है उस हद तक बहके जब उसे मालूम न हो की वो कितना रो रही है...शायद लोग ध्यान न दें क्योंकि नशे में होने का बहाना हो उसके पास। पर उसे कभी ऐसा करने की हिम्मत नहीं होती। वो चाहती है की सिगरेट दर सिगरेट धुएं में गुम होती जाए पर नहीं कर पाती।

वो चाहती है कि उसे कोई ऐसी बीमारी हो जाए जिसका कोई इलाज न हो...वो जीना ऐसे चाहती है जैसे कि मालूम हो कि मौत कुछ ही कदम दूर खड़ी है...और उससे चोर सिपाही खेल रही हो।

वो एक लड़की है...सब उससे पूछते हैं कि उसे इतनी शिकायत क्यों है, किससे है। क्यों है? शायद इसलिए कि वो लड़की है...सिर्फ़ इसलिए। और सबसे है...उन सबसे जो कभी न कभी किसी न किसी रूप में उसकी जिंदगी का हिस्सा बने थे।

उसे शिकायत है उस इश्वर से...और वह रोज उनके खिलाफ फरमान निकलना चाहती है...क्योंकि वह अपना विश्वास ऐसे खो चुकी है कि डर में भी उसे इश्वर याद नहीं आता।

उसका लिखना किसी कारण से नहीं हो सकता...किसी बंधन में नहीं बंध सकता.

वो लिखती है क्योंकि जिन्दा है...और वो जिन्दा है क्योंकि तुम हो।
-----------०००००००-----------००००००००-----------
जिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं
मौत आई हमें पता भी ना चला...
-------००००००------०००००००००००--------
खून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...

28 March, 2009

यूँ ही


मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ बहुत सारा कुछ
इसलिए नहीं कि तुम्हें मालूम नहीं है
इसलिए भी नहीं कि
मुझे यकीन हो कि मेरे बताने से तुम भूलोगे नहीं

शायद सिर्फ़ इसलिए
कि किसी दिन झगड़ा करते हुए
तुम ये न कहो कि तुम्हें मैंने बताया नहीं था

झगड़े भी अजीब होते हैं यार
कभी एक किलो झगड़ा, कभी आधा क्विंटल

तुम जानते हो
कभी कभी मेरा मन करता है
कि मेरी आँखें नीली होती
या हरी, भूरी या किसी भी और रंग की होती
लेकिन तुम्हें काली आँखें पसंद है न?

कुछ उँगलियों पर गिनी फिल्में हैं
जो तुम्हारे साथ बैठ कर देख लेना चाहती हूँ
इसलिए नहीं कि मैंने देखी नहीं है
बस एक बार तुम्हारे साथ देखने भर के लिए

गॉन विथ थे विंड मैंने जब पहली बार देखी थी
मुझे पहले से मालूम था कि अंत क्या होने वाला है
मैं फ़िर भी बहुत देर तक रोती रही थी
वो अकेलापन जैसे मेरे अन्दर गहरे उतर गया था
शायद तुम्हारे साथ देखूं...तो वो जमा हुआ अकेलापन पिघल जाए

तुम्हें हमेशा rhett butler से compare जो करती हूँ
शायद मैं कोई आश्वाशन चाहती हूँ
कि तुम मुझे छोड़ कर नहीं जाओगे कभी...

डर सा लगता है
जब सूनी सड़कों पर गाड़ी उड़ाती चलती हूँ
या दसमहले से एकटक नीचे देखती रहती हूँ
या खामोश सी सब्जी काटती रहती हूँ
कभी कभी तो गैस जलाते हुए भी

मौत की वजहें कहाँ होती हैं
वो तो हम ढूंढते रहते हैं
ताकि अपनेआप को दोषी ठहरा सकें
कि हम रोक सकते थे कुछ...हमारी गलती थी

किसी से बहुत प्यार करो
तो खोने का डर अपनेआप आ जाता है

क्या जिंदगी के साथ भी ऐसा ही होता है?

25 March, 2009

बिखरे लफ्ज़

सफ्हों में सारी की सारी उड़ेल कर
चल दिए ऐ जिंदगी, हम फिर तेरी तलाश में
-------००००-----------००००-------
क्यों तुम्हें भी बाँध दू उम्र भर की मुहब्बत में
सफर के लिए इतना काफी है...तूने कभी मुझे चाहा
----------००००--------००००-------
तुझे तेरा दर मुबारक, मुझे ये सफ़र मुबारक
किसी मोड़ पर मिलें शायद...फिलहाल, अलविदा

20 March, 2009

संदूक


कागजों पर बिखरा दर्द
पुड़िया में बांधकर संदूक में रख देती थी
अब लगभग भर गया है वो पुराना संदूक

क्या करूँ इतने सारे अल्फाजों का
एक एक पुड़िया खोल कर
सारे शब्द हवा में उड़ा दूँ

हर लफ्ज़ कर जाए
आसमाँ की आँखें गीली
और शायद बरस जाए एक बादल

तुम भीगो तो याद आ जाएँ
वो आखिरी लम्हों के आंसू
जिस भी मोड़ पर तुम आज खड़े हो

या इन कागजों को जला कर
एक रात की सिहरन दूर कर दूँ
थोड़ी देर उजाले में तुम्हारी आँखें देख लूँ

या कि हर कागज को
कैनवस बना कर रंग दूँ
हंसती हुयी लड़की, भीगी आंखों वाली

इतना नहीं हो पाये शायद
सोचती हूँ...
एक नया संदूक ही खरीद लूँ.

18 March, 2009

भैंस पड़ी पगुराय


आज हम एक लुप्तप्राय प्रजाति की बात करेंगे...यह प्रजाति है दूधवाला और भैंस, भैंस लुप्त नहीं हो रही है वो तो लालू यादव जी की कृपा से दूधो नहाओ पूतो फलो की तरह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। मैं तो बस इनके आंखों से ओझल होने की बात कह रही हूँ। और ये ख्याल मुझे कल इंडियन क्रिकेट टीम को शेर बचाओ आन्दोलन देख कर आया...भाई क्या जमाना गया है, एक टाइम होता था लोग शेर को देख कर बचाओ बचाओ करते थे...और एक आज का दिन हैकी शेर के पंजों के निशान देख कर दिल बहलाना पड़ता है।

उफ़ ये बड़ी खराबी बनती जा रही है मेरी...आजकल दिन रात बसंती हवा की तरह मनमौजी हुयी जा रही हूँ, बात कर रही थी भैंस की और गई शेर तक...अब भला इन का आपस में क्या सम्बन्ध।

कहानी पर लौटते हैं...मैं पढ़ी लिखी(कितना और कैसे आप तो जानते ही हैं) और बड़ी हुयी बिहार और झारखण्ड में(यार ये नेता कुछ से कुछ खुराफात करते रहते हैं, सोचो तो हमें कितनी मुश्किल होती है बचपन की यादें भी दो राज्यों में बातिन हुयी...उफ़, पर इनकी कहानी फ़िर कभी)। हमारे यहाँ एक स्थायी चरित्र होता था दूधवाले का, जो यदा कदा अपनी भैंस(या गाय) के साथ पाया जाता था। इस दूधवाले के किस्से कितनी भी नीरस गप्पों को रंगीन बना देते थे।

मुझे मालूम नहीं बाकी देश का क्या हाल है, पर हमारे यहाँ इनसे हमेशा पाला पड़ता रहता था। दूधवाला मानव की एक ऐसी प्रजाति है जिसके सारे लक्षण पूरे राज्य में एक जैसे थे...जैसा कि मैंने पहले कहा है देश का मुझे मालूम नहीं। किस्स्गोई में तो ये प्रजाति प्रेमचंद को किसी भी दिन किसी शास्त्रार्थ में धूल चटा सकती थी...या ये कहना बेहतर होगा की छठी का दूध याद दिला सकती थी।

देवघर में मेरे यहाँ एक दूधवाला आता था...बुच्चन, बड़ी बड़ी मूंछें और रंग में तो अपनी भैंस के साथ खरा कोम्पीटिशन कर सकता था...काला भुच्च, दूध के बर्तन में दूध ढारता था तो गजब का कंट्रास्ट उत्पन्न होता था। बुच्चन कभी भी नागा कर जाता था, और हम दोनों भाई बहन खुश कि आज दूध पीने से बचे और बुच्चन के बहाने...भाई वाह। साइकिल पंचर होने से लेकर, बीवी के बाल्टी न धोने के कारण हमारा दूध नागा हो सकता था। फ़िर उसके गाँव में तीज त्यौहार होते थे जिसमें उसकी मेहरारू सब दूध बेच देती थी और फ़िर हम बच्चे खुश। बच्चन सिर्फ़ इतवार को नागा नहीं कर सकता था, जितने साल रामायण और फ़िर महाभारत चलती थी, बुच्चन भले टाइम से आधा घंटा पहले आ जाए पर एक मिनट भी देर से नहीं आ सकता था। और ऐसा कई बार हुआ है कि बुच्चन बिना दूध के आ गया हो और मम्मी उसकी कभी कुछ नहीं बोलती थी, कि टीवी देखने आया है bechara। सारे समय उसके हाथ जुड़े ही रहते थे।

माँ कभी कभी बाद में कहती थी, बुच्चन खाली भगवन के सामने हाथ जोड़ लेते हो और फ़िर दूध में वही पानी...बुच्चन दोनों कान पकड़ कर जीभ निकाल कर, आँखें बंद कर ऐसी मुद्रा बनता कि हम हँसते हँसते लोट पोट हो जाते...उसके बहने भी पेटेंट बहाने थे, मैंने फ़िर कभी कहीं भी नहीं सुने।

  1. दीदी आज भैन्स्वा पोखरवा में जा के बैठ गई थी...बहुत्ते देर बैठे रही, हमार बचवा अभी छोट है, ओकरा निकला नहीं वहां से, पानी में रही ना...इसीलिए दूध पतला होई गवा। माई के किरिया दीदी हम पानी नहीं मिलाए हैं. और मम्मी डांट देती उसे, झूठे का माई का किरिया मत खाओ.

  2. बरसा पानी में दूध दुहे न दीदी, इसी लिए दूध पतला होई गवा...हमरे तरफ बहुत्ते पानी पड़ रहा है। बच्चन का गाँव वैसे तो हमारे शहर से कोई दो तीन किलोमीटर दूर था, पर वहां का मौसम जो बुच्चन बताता था उसके हिसाब से चेरापूंजी से कुछ ही कम बारिश होती थी वहां)

  3. मेहरारू कुछ दर देले दीदी, हमरा नहीं मालूम कि दूध ऐसे पतला कैसे होई गवा। आज ओकर भाई सब आइल हैं, सब दूध उधरे दे देइल. हम का करीं दीदी ऊ बद्दी बदमास हैखन.
आप कहेंगे इस कहानी में भैंस कहाँ है....अरे आपने ऊपर पढ़ा नहीं, गई भैंस पानी में :)

हम पटना आए तो बहुत जोर का नकली दूध का हल्ला उठा हुआ था यूरिया का दूध मिल रहा है मार्केट में ऐसी खबरें रोज सुनते थे, कुछ दिन तक तो घर में दूध आना बंद रहा, पर बिना दूध के कब तक रहे. तो बड़ा खोजबीन के एक दूधवाला तय किया गया. वह रोज शाम को हमारे घर भैंस लेकर आता था और दूध देता था.
हमारे घर में फ्री का नल का पानी वह पूरी दिलदारी से भैंस पर उडेलता था...भैंस को भी हमारा घर सुलभ शौचालय की याद दिलाता था जाने क्या...रोज गोबर कर देती थी, उसपर रोज दूधवाला उसे नहलाता...बहुत जल्दी हमारे घर के आगे का खूबसूरत लॉन खटाल जैसा महकने लगा उसपर मच्छर भी देश कि जनसँख्या के सामान बिना रोक टोक के बढ़ने लगे।

फिर दूधवाले का टाइम बदल दिया गया और उसे सख्त हिदायत दी गयी कि भैंस को नहला के लाया करे, उसके बाद दूधवाला चाहे नहाये या नहीं, भैंस एकदम चकाचक रहती थी. मैंने अपनी जिंदगी में फिर उसकी भैंस से ज्यादा साफ़ सुथरी भैंस नहीं देखी.
लेकिन दूधवाले ने हमारे नल के पानी का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ा...ये और बात थी कि अब वो पानी भैंस के ऊपर न बहा के दूध की बाल्टी में डाल देता था। वह हमें दूध देने के पहले पानी न मिला दे, इसलिए हम बिल्डिंग के लोग पहरा देते थे...इसी बहाने हमें खेलने और गपियाने का एक आध घंटा और मिल जाता था.

जिसने इस महात्म्य को देखा है वही जानता है, भैंस और दूधवाले की महिमा अपरम्पार है :)

कहानियों का अम्बार है, भैंस का कालापन बरक़रार है...बस इतना इस बार है :)

बाकी फिर कभी.

17 March, 2009

अजन्मी कविता


कविता तो अजन्मी होती है
मर ही नहीं सकती...

जो लोग कह रहे हैं की कविता मर चुकी है
छलावे में रह रहे हैं

जब तक स्त्री के ह्रदय में स्पंदन है
जीवित है कई अजन्मी कवितायेँ
साँसों के राग में...दिन-रात, सोते जागते

अपने पति के माथे पर थपकियाँ देते
हाथों के ताल में उठते गिरते
होठों पर किसी पुराने गीत की तरह

कविता जी उठती है हर सुबह
अल्पना के घुमावदार रास्तों में
पैरों में रचाई महावर में

त्योहारों में अतिथियों के कलरव में
गोसाईंघर में आरती करती दादी के कंठ में
आँगन में छुआ छुई खेलती बेटी की किलकारी में

सांझ देते तुलसी चौरा के दिये की लौ में
गोधूली में घर लौटती गायों की घंटियों में
चूल्हे में ताव देती माँ की चूड़ियों की खनक में

कुएं से बाल्टी खींचती दीदी के हाथों की फुर्ती में
सिलबट्टे पर मसाला पीसती चाची के माथे पर झूलती लटों में
लिपे हुए आंगन के अर्धचन्द्राकार pattern में

मैं स्त्री हूँ
जो भी मैंने छुआ, देखा, जिया
कविता बन जाता है

कविता को शब्दों की बैसाखियों की जरूरत नहीं
हर स्त्री अपनेआप में होती है एक कविता
सिर्फ़ अपने होने से...
-----------------०००००००---------------------------------००००००००००००००--------------------


मेरी पिछली पोस्ट पर डॉक्टर अनुराग की टिप्पनी आई:
"कुश पहले की कहता है की हिंदी ब्लॉग अन्दर के कवि को धीरे धीरे मार देता है आपको ख़त्म किया देखिये पूजा की कविता को भी कर रहा है........क्या सचमुच ??????जवाब स्पीड पोस्ट से दीजियेगा ..."

डॉक्टर अनुराग...ये मेरा जवाब है :) उम्मीद है आपको पसंद आएगा.

16 March, 2009

नाम में बहुत कुछ रखा है भाई :)

मेरे साथ समस्या है कि एक चीज़ में ज्यादा दिन मन नहीं लगता...चाहे कितना भी पसंद क्यों हो कुछ दिन में मैं उब जाती हूँ और फ़िर कुछ नया करने को खुराफात की खुजली होने लगती है कहते हैं की ये gemini लोगो का मुख्य गुण है, इन्हें एक जगह टिक के बैठना नहीं आता

आप कहेंगे ये तो नेताओं का गुण भी है...पर थाली के बैगन और बेपेंदी के लोटे से इतर भी एक प्रजाति होती है...ये प्रजाति मुझ जैसे कुछ लोगो की होती है खैर छोड़िये एक छोटी कहानी सुनिए ...

एक
लड़के को एक बार एक पुराना चिराग मिल गया...उसने जैसे ही चिराग को घिसा उसमें से एक जिन्न निकला लड़का खुश...क्यों हो गरीब तो होगा ही, आज तक किसी दंतकथा में आपने किसी रईस को चिराग मिलते सुना है, नहीं ? अब जिन्न ने कहा हुक्म दो मालिक...लड़का खुश, फटाफट खाना मंगवाया, जिन्न के लिए ये कौन सा मुश्किल का काम था फ़ौरन ले आया...लड़के ने खाना खाया। जिन्न ने फ़िर पूछा हुक्म दो मालिक...लड़के ने एक महल की फरमाइश की, फटाफट जिन्न ने महल भी तैयार कर दिया महल में खूब सारे नौकर चाकर और अच्छे कपड़े खाना पीना सब था बस लड़के को और कुछ तो चाहिए नहीं था, उसने अपने घरवालों को महल में बुलवा लिया और पसंद की लड़की से शादी कर ली

पर मुसीबत जिन्न था...उसने कहा की अगर लड़के ने उसे काम नहीं दिया तो वह उसे खा जायेगा...अब लड़का बड़ी जोर से घबराया...उसे कोई हल ही नहीं सूझ रहा था जिन्न की समस्या से छुटकारा पाने का उसने सबसे पूछा पर वो कोई भी काम दे जिन्न तुंरत उसे पूरा कर देता था और फ़िर सर पे स्वर हो जाता था की काम दो मालिक आख़िर में उसकी बीवी अपने भतीजे को लेकर आई जो कुछेक साल का था...जिन्न ने फ़िर सवाल किया बच्चे ने कहा मुझे एक अंगूठी चाहिए...जिन्न ने तुंरत हाजिर कर दी, फ़िर बच्चा बोला मुझे एक हाथी चाहिए, वो भी जिन्न ने तुंरत हाजिर कर दिया...अब बच्चा बोला इस हाथी को अंगूठी में से घुसा के निकालो जिन्न बेचारा परेशां, कितना भी कुछ और देने का प्रलोभन दिया बच्चा माने ही , एकदम पीछे पड़ गया रो रो के जिन्न का दिमाग ख़राब कर दिया की हाथी को बोलो अंगूठी में से घुस कर निकले

जिन्न को कुछ नहीं सूझा तो लड़के के पास गया की मैं हार गया इस बच्चे का काम मैं पूरा नहीं कर सका, मैं क्या करूँ। लड़के ने कहा की तुम वापस चिराग में चले जाओ। इस तरह लड़के को जिन्न से छुटकारा मिल गया। :) कहानी ख़तम, ताली बजाओ।

तो मैं कविता लिख कर और गद्य लिख कर बोर हो गई थी, ब्रेक ले कर भी क्या करती...और बोर होती मैंने सोचा कुछ और काम करती हूँ...मुझे मेरे मित्र टेक्निकली चैलेन्ज्ड बोलते हैं जरा सा लैपटॉप पे कुछ इधर उधर हुआ की मेरी साँस अटक जाती है हालाँकि कभी कभार मैं अपने इस फोबिया से उभरने की कोशिश करती हूँकल पूरी दोपहर मैंने यही किया वैसे तो आप अक्लमंद लोग इसे मगजमारी कह सकते हैं पर हम इसे अपने लिए मैदान मारना और किला फतह करने से कम नहीं समझते हैं

मेरा ब्लॉग खोलने पर आप देखेंगे की ब्लॉग url के पहले P लिखा हुआ है, इसे favicon कहते हैं. जीमेल का लिफाफा, या गूगल का g और कई साइट्स पर अक्सर छोटी फोटो भी नज़र आती है. इसे personalisation या ब्रांडिंग का एक हिस्सा कह सकते हैं. चिट्ठाजगत का लोगो न सिर्फ ब्लॉग के नाम में बल्कि favicon में भी नज़र आता है.
वेबसाईट की पहचान me कई एलेमेंट्स का योगदान होता है, इसमें सबसे महत्वपूर्ण होता है उसका पता, यानि कि वेब एड्रेस. हम इसलिए ब्लॉग के कई अलग अलग से एड्रेस देखते हैं...ये एड्रेस या तो वेब पोर्टल की सामग्री से जुड़ा हुआ होता है जैसे की चिट्ठाजगत या फिर अगर कला से जुड़ा कोई ब्लॉग है तो कोई रोचक नाम होता है जो उसे अलग पहचान देता है. इसी अलग पहचान की कड़ी है favicon. यह एक ऐसा चित्र या अक्षर होता है जिसे लोग ब्लॉग से जोड़ कर देख सकें और याद रख सकें.
मैंने अपना favicon बनाने में हिंदी ब्लॉग टिप्स की मदद ली, आशीष खंडेलवाल जी ने एक बेहद आसान और पॉइंट by पॉइंट अंदाज में favicon बनाया क्या नामक पोस्ट में बताया है. इसके अलावा थोडा गूगल सर्च भी मारना पड़ा...दिन भर माथापच्ची की पर आखिरकार मैंने अपना favicon बना ही लिया.

मेरा आइकन P है...यह मेरे नाम का पहला लैटर भी है और इंग्लिश में कवितायेँ पोएम ही कहलाती हैं इसलिए भी. मुझे P इसलिए भी अच्छा लगता है की यह इसके हिंदी अक्षर प जैसा ही लगता है. shakespear ने गलत कहा था कि नाम में क्या रखा है...हमें तो बहुत कुछ रखा मिलता है भाई :)


एक बात और, किसी को चिढ़ाने वाला smiley ऐसा ही होता है न :P

14 March, 2009

मेरा पुराना बचपन :)


याद आते हैं वो फोकट में मुस्कुराने के दिन
दिन भर बाहर खेलने वाले बहाने के दिन

याद आती है वो राखी पर मिली टाफियां
और उसे सबको दिखा कर चिढ़ाने के दिन

वो तितिलियों से दोस्ती वो चिड़ियों सा गाना
पिल्लों और बिल्लियों से याराने के दिन

बारिशों में दिन भर सड़कों पे खेलना वो
वो शाम को मम्मी से डांट खाने के दिन

कित कित की गोटियाँ थी सबसे बड़ा खजाना
जमीं में गाड़ कर भाइयों से छुपाने के दिन

चिनियाबदाम में खुश हो जाने वाले लम्हे
कुल्फी के लिए रोज मचल जाने के दिन

तस्वीरों सा धुंधला है बचपन का वो मौसम
उफ़ वो बेफिकर उठने और सो जाने के दिन

नोट: फोटो में मैं अपने छोटे भाइयों के साथ हूँ। clockwise मैं चंदन, जिमी और कुंदन हैं। (कुणाल कहता है की मैं सबमें सबसे ज्यादा बदमाश लगती हूँ)

13 March, 2009

और भी गम हैं ज़माने में ब्लॉग्गिंग के सिवा...

पिछली पोस्ट में हम दुखी थे, फ़िर शिव कुमार जी ने समझाया की देश बेगाना नहीं है बहुत से लोग हमारी पोस्ट का समर्थन कर रहे हैं...और उन्होंने पुलिस को एक एक गिलास ठंढई भेजने की भी जरूरत बताई...अब उसके बाद अनूप जी आए, और उन्होंने कहा की शिवजी ठंढई भेज रहे हैं उसे पियो और पोस्ट लिखो...वैसे तो शिव जी पुलिस वालों के लिए ठंढई भेज रहे थे पर हम अनूप जी की बात कैसे टाल सकते हैं...तो हम आज पहली बार ठंढई पी कर पोस्ट लिख रहे हैं। तो आज पहले बता देते हैं की इस पोस्ट में लिखी चीज़ों के लिए हमें नहीं अनूप जी को दोषी ठहराया जाए। वैसे आप पूछ सकते हैं की आज पहली बार क्या हुआ है, पहली बार ठंढई पी है या पहली बार ठंढई पी कर पोस्ट लिख रहे हैं। तो ये बात हम साफ़ नहीं करेंगे....ये राज़ है :) (राज ठाकरे वाला नहीं)

मिजाज प्रसन्न है तो हमने सोचा क्यों न ये ही लिख दिया जाए की ब्लॉग पोस्ट लिखी कैसे जाती है...तो भैय्या मैं नोर्मल ब्लॉग पोस्ट की बात कर रही हूँ, मेरी इस वाली जैसे पोस्ट की नहीं की भांग चढ़े और कुर्सी टेबल सेट करके लैपटॉप पर सेट हो गए...कि जो लिखाये सो लिखाये डिस्क्लेमर तो पहले ही लगा दिए हैं। क्या चिंता क्या फिकर...

आजकल ब्लॉग पर भी बड़ा सोच समझ के लिखना पड़ता है...क्या पता पुलिस पकड़ के ले जाए, वैसे भी आजकल पुलिस को ऐसे निठल्ले कामों में ही मन लगता है...मैं तो सोच रही हूँ पुलिस वालो को ब्लॉग्गिंग का चस्का लगवा दिया जाए, एक ही बार में मुसीबत से छुटकारा मिल जायेगा। तो आजकल डर के मारे ब्लोग्स के ज्यादा आचार संहिता पढ़ती हूँ, सोचा तो था की लॉ कर लूँ पर शायद कोई फरमान आया है की २५ साल से कम वाले ही admission ले पायेंगे(इस ख़बर की मैंने पुष्टि नहीं की है) "शायद" लिखने से या फ़िर "मैं ऐसा सोचती हूँ" लिखने से आप कई मुसीबतों से बच जाते हैं इसलिए मैं इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हूँ। वैसे तो मेरी सारी मुसीबत इस मुए ब्लॉग की वजह से है और इस बीमारी का कोई इलाज मिल नहीं पाया है अब तक तो खुन्नस में सारी पोस्ट्स ब्लॉग पर ही लिखे जा रही हूँ।

अब इस सोच समझ के लिखने वाली पहली शर्त के कारण हम जैसे लोगों का जो हाल होता है वो क्या बताएं...कविता लिखने से बड़ी प्रॉब्लम कुछ है ही नहीं...अब मैं लिखूंगी कि आजकल धूप कम निकलती है मेरे आँगन में और सोलर पैनल वाले आ जाएँ झगड़ा करने कि मैडम आपलोगो को सोलर एनर्जी इस्तेमाल करने से रोक रही हो। अब लो, अर्थ का अनर्थ, बात का बतंगड़। या फ़िर मैं लिखूं कि आजकल रोज आसमान गहरा लाल हो जाता है और बीजेपी वाले चढ़ जाएँ त्रिशूल लेकर कि आप गहरा लाल कैसे लिख रही हैं आसमान तो केसरिया होता है, आप ऐसे कवितायेँ करके कम्युनिस्टोंको खुल्लेआम सपोर्ट नहीं कर सकती। कविता में से तो कुछ भी अर्थ निकले जा सकते हैं, अब आप चाहे कुछ भी समझाने कि कोशिश कर लो...मुसीबत आपके सर ही आएगी। और हम ठहरे छोटे से ब्लॉगर कम से कम जर्नलिस्ट भी होते तो कुछ तो धमकी दे सकते थे।

अब इतना सोच समझ के कविता किए तब तो हो गया लिखना...भाई कविता लिखने का तरीका है कि बस धुंआधार कीबोर्ड पर उँगलियाँ पटके जाओ, थोड़ी थोड़ी देर में इंटर मार दो...बस हो गई कविता। अब सोचे लगे तो थीसिस न कर लें जो कविता लिख के मगजमारी कर रहे हैं। हमारा तो कविता लिखने का स्टाइल चौकस है, हम तो बस चाँद, बादल, प्यार, बारिश या फ़िर दिल्ली पर लिखेंगे इससे ज्यादा हमसे मेहनत मत करवाओ जी...कभी कभी बड़े बुजुर्गों का आदेश हो तो कुछ और पर भी लिख लेते हैं, जैसे देखिये शिव जी के गुझिया सम्मलेन में हमने गुझिया पर कविता लिखी।

कवियों को कहीं भी ज्यादा भाव नहीं दिया जाता, उसपर कोई भी टांग खींच लेता है, लंगडी मार देता है...कवि का जीवन बड़ा दुखभरा होता है उसपर ऐसा कवि जो ब्लॉगर हो...उसे तो जीतेजी नरक झेलना पड़ता है जी, अपनी आपबीती है, कितना दुखड़ा रोयें, वैसे भी और भी गम है ज़माने में ब्लोग्गिन के सिवा।

समाज के बारे में पता नहीं लोग कैसे इतना लिख लेते हैं, हमारे तो कुछ खास पल्ले नहीं पड़ता...अब पिछली पोस्ट लिखी थी कि भैय्या हमें अपना देश बिराना लग रहा है...कोई योगेश गुलाटी जी आकर कह गए कि एक बार फ़िर विचार कीजिये, देश पराया हो गया है कि आपकी सोच विदेशी हो गई है? डायन, आधुनिक लड़कियां, छोटे कपड़े, जाने क्या क्या कह गए जिनका पोस्ट से कोई सम्बन्ध नहीं था...कहना ही था तो शिष्टाचार तो बरता ही जा सकता था चिल्लाने की क्या जरूरत थी...इन्टरनेट पर रोमन में कैपिटल लेटर्स में लिखना चिल्लाना माना जाता है. इतना लम्बा कमेन्ट वो भी मूल मुद्दे से इतर, भई इससे अच्छा आप पोस्ट ही लिख देते अपने ब्लॉग पर...मेरे कमेन्ट स्पेस को पब्लिक प्रोपर्टी समझ कर इस्तेमाल करने की क्या जरूरत थी. मेरे होली पर जो विचार थे मैंने लिखे आप असहमत थे आप लिखते, बाकी चीज़ें क्यों लपेट दी?

तो समाज के प्रति लिखने का ठेका कुछ लोगो ने ले रखा है, जिनका अपने ब्लॉग पर लिखने से मन नहीं भरता तो दूसरो के कमेन्ट स्पेस भरते चलते हैं...वैसे मेरा पाला इन लोगो से कम ही पड़ा है. कह तो देती की इनसे भगवान बचाए पर भगवान ने इनसे बचने का सॉफ्टवेर अभी तक इजाद नहीं किया है, शायद कुछ दिन बाद ऐसी अर्जियां वहां एक्सेप्ट होने लगें. तब तक इनको झेलना तो हमारी मजबूरी है.


हम वापस आ कर कविता पर ही टिक जाते हैं...इसपर हमें गरियाया जाए तो क्या कर सकते हैं.

ये वाली पोस्ट हमारी रिसर्च का hypothesis है आगे आगे देखें क्या नतीजा निकलता है।

12 March, 2009

रहना नहीं देश बिराना रे...

आज अखबार देख कर मन कसैला हो गया, मालपुओं की सारी मिठास ख़त्म हो गई। क्या हम एक ही भारत में रहते हैं? बंगलोर में भगवान महावीर कॉलेज के छात्रों की पुलिस ने डंडो से खूब पिटाई की और फ़िर थाने भी लेकर गए...उनका जुर्म(?), वो होली खेल रहे थे। वहीँ आरवी इंजीनियरिंग कॉलेज में वार्डेन ने होली खेलने वाले छात्रों को हॉस्टल से बाहर निकाल दिया और फ़िर कॉलेज के गेट भी बंद कर दिए गए।छात्रों का कहना है कि पुलिस उन्हें रंग खेलने से मना कर रही थी और उनके घर भेजना चाह रही थी, पुलिस ने उनके साथ बदतमीजी भी की...हालाँकि छात्रों को कुछ देर पुलिस थाने में रखने के बाद छोड़ दिया गया।

समझ नहीं आता कि ये पढ़ कर गुस्सा होऊं, दुखी होऊं या फ़िर मैं भी कुछ महसूस करना बंद कर दूँ...

एक वक्त होता था जब स्कूल में जम कर होली खेली जाती थी और होली के हुडदंग में ये बिल्कुल नहीं देखा जाता था कि जिसपर रंग डाल रहे हैं वो किस धर्म का है, या किस जगह का रहने वाला है। हमें याद है कि हम होली खेलते थे तो हमारा यही मानना होता था कि होली सबके लिए है। देवघर में पापा के दोस्त थे, मुकीम अंकल वो तो हर बार होली पर हमारे घर भी आते थे, और हम भी उनके घर जाते थे...उनके बच्चे मुहल्ले के बाकी बच्चों के साथ मिलकर लाल हरे पीले हुए रहते थे। मुझे याद है मुकीम अंकल कहते थे कि बच्चे जब पूछेंगे कि हम होली क्यों नहीं खेल सकते तो क्या जवाब देंगे? कि तुम अलग हो, कि तुम मुसलमान हो...ऐसा तो नहीं कर सकते न सर। हमारे टीचर्स साउथ इंडियन थे पर वो भी हमारे साथ होली खेलने में शरीक होते थे।

होली के दिन किसी को भी रंग लगाने की इजाजत होती थी, चाहे वो पड़ोसी हों, राह चलते लोग हों, दूधवाले भैय्या हो, या उनकी भैंस हो ;) हालाँकि भैंस कि काली कमरिया पर दूजा रंग नहीं चढ़ता था। होली के दिन रंग भरी बाल्टी और पिचकारी लेकर हम रोड पर खड़े रहते थे और हर आने जाने वाले को रंगते थे। दस बजते बजते मम्मी लोग का किचेन में खाना बनाना बंद और टोली निकल पड़ती थी, कितना हल्ला होता था। लोगो को जबरदस्ती घर से निकाल निकाल के रंगा जाता था।

एक वो दिन था और एक आज का दिन है...कल होली आई और चली गई, पता भी नहीं चला...कोई भी नहीं आया रंग खेलने, कई जगह तो ऑफिस में छुट्टी भी नहीं थी...और मुझे लगता था कि होली पूरे भारत में खेलने वाला पर्व है। पर क्या पूरा भारत जैसी कोई जगह है भी? क्या हम सब अपने अपने प्रान्त में नहीं सिमट गए हैं?

कभी मुंबई में हल्ला होता है कि बिहारी लोग छठ मनाते हैं, और आज बंगलोर में हल्ला हो रहा है होली मनाने पर। और हल्ला क्या बाकायदा पुलिस ने होली खेलने नहीं दिया...शक्ति का ग़लत प्रयोग इसी को कहते हैं। और किसी भी बड़े अखबार में इसकी ख़बर तक नहीं छपी है...हम किस मुंह से एकता और भाईचारे की बात करते हैं

असहिष्णुता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि हम अपने से अलग कुछ भी बर्दाश्त ही नहीं कर पाते...चाहे वो धर्म हो, मान्यताएं हो, त्यौहार हों, या फ़िर जीने का ढंग हो। ये क्यों भूल जाते हैं हम कि हम एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं और ये चुनने की आजादी हर एक का मौलिक अधिकार है।

होली तो सारे भेद भाव मिटाने का त्यौहार है, जिसमें सब रंग जाते हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं, कोई जात पांत नहीं...कम से कम इस त्यौहार को तो प्यार से खेलने दिया जाए। वैलेंटाइन डे अच्छे से मनाया जा सके इसलिए ये पुलिस तैनात रहती है ताकि कोई भी परेशान न करने पाए, और हमारा अपना त्यौहार होली जो प्यार और मेलजोल का प्रतीक है, उसी में रंग में भंग डालने पुलिस पहुँच जाती है...ये कौन सा भेद भाव है?

मुझे बंगलोर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता...अपने ही देश में पराये हो गए लगते हैं, कहाँ तो लोग विदेशों में रह कर होली मना लेते हैं...और कहाँ अपने ही देश में लोगो की पिटाई के बारे में अखबार में पढ़ रही हूँ...
रहना नहीं देश बिराना रे...

09 March, 2009

काश मेरे पास रिवोल्वर होता

मुझे एक छोटी सी रिवोल्वर खरीदने का मन था...और बाहर जाते वक्त अपने पैर में नीचे की तरफ़ उसे बाँध के रखने का, एक दिन मैंने मम्मी से कहा था कि मेरे पास बहुत पैसे हो जायेंगे न तो मैं एक छोटी सी रिवोल्वर खरीदूंगी जिसे मैं हमेशा अपने पास रखूंगी। मुझे याद है उस दिन मम्मी से बहुत डांट पड़ी थी ये सब उलूल जलूल ख्याल तुम्हारे दिमाग में कहाँ से आता है।

ये वो वक्त था जब मैंने कॉलेज जाना शुरू किया था, और हमारे कॉलेज में चूँकि ड्रेस कोड था तो सिर्फ़ सलवार कुरता पहन कर ही जा सकती थी...उस वक्त कई बार हुआ था कि किसी लड़के ने दूर तक पीछा किया हो, और डर ये लगता था कि अगर किसी ने देखा तो मुझे डांट पड़ेगी। दुपट्टे को बिल्कुल ठीक से लेती थी अपने आप को पूरी तरह ढक के चलती थी, और उस वक्त बिल्कुल सिंपल कपड़े पहनती थी वो भी हलके रंगों में...फ़िर भी ऐसा कई बार होता था। पटना में ऑटो रिजर्व करके नहीं चलते, एक ऑटो में तीन या चार लोग बैठते हैं। कई बार लगता था कि बगल में बैठा लड़का जान कर कुहनी मार रहा है, मगर सड़कें ख़राब होती थीं तो कुछ कह भी नहीं सकते थे।

घर से कॉलेज कोई तीन किलोमीटर था और लगभग १० मिनट लगता था जाने में, पर वो दस मिनट इतनी जुगुप्सा में बीतते थे...वाकई घिन आती थी और लगता था कि काश मैं स्टील के या ऐसे ही कुछ कपड़े पहनती या बीच में एक पार्टीशन रहता। ऑटो में हमेशा देख कर बैठते, ये हम सब लड़कियों को अपने अनुभव और seniors में मिले नसीहतों के कारण पता था कि अधेड़ उम्र के पुरुषों के साथ बिल्कुल नहीं जाना है ऑटो में। उनका लिजलिजा स्पर्श ऐसी वितृष्णा भर देता था कि पहले period ठीक से पढ़ाई नहीं हो पाती थी। मम्मी ने कहा था कि जब भी असहज हो उतर जाऊं...और मैं ऐसा ही करती थी। लेकिन कई बार होता था कि लगता था कि कहीं हमें ही शक तो नहीं हो रहा...या फ़िर लेट हो रहा रहता था...कोई भी लड़का ये सोच भी नहीं सकता है कि ऐसी स्थिति में लड़की की क्या हालत होती है, मेरी तो साँस रुकी रहती थी, जितना हो सके अपनेआप में सिमट के बैठती थी।

वापस घर लौटते वक्त वही बेधती निगाहें, चौराहे पर खड़े लफंगे जाने आपस में क्या कहते हुए, बस सर झुका कर नज़र नीचे रखते हुए जितने तेजी से हो सके गुजर जाती थी वहां से...फ़िर भी लगता था वो नजरें पीछा कर रही हैं। और ऐसा एक दो दिन नहीं पूरे तीन साल झेला मैंने...और मैंने ही नहीं हर लड़की ने झेला था...हम सब का गुस्सा एक था और इस गुस्से को बाहर करने कि कोई राह नहीं।
मैं एक बार ऐसे ही बोरिंग रोड के पास अपने प्रोजेक्ट के लिए कुछ सामान ले रही थी, एक दुकान से दूसरी जाते हुए एक आदमी साइकिल से मेरे पीछे से कुछ बोलते हुए गुजरा, मैंने नजरअंदाज कर दिया सामान लेकर वापस आई तो वही आदमी फ़िर कुछ बोलते हुए निकला...मैं आगे बढ़ी थी वो फ़िर आगे से आता दिखा...उस दिन शायद मेरा गुस्सा मेरे बस में नहीं रहा, मेरे हाथ में एक पोलीथिन बैग था जिसमे छाता और बहुत सा सामान था जो मैंने ख़रीदा था॥मैंने पोलीथिन से खीच कर मारा था उसे बहुत जोर से, सीधे मुंह पर...उसका साइकिल का करियर पकड़ लिया और जितनी गालियाँ आती थी बकनी शुरू कर दी, सोच लिया था की आज इसका मार मार के वो हाल करुँगी की किसी लड़की को छेड़ने में इसकी रूह कांपेगी...चाहे मुझे पुलिस के पास जाना पड़े, परवाह नहीं। मैंने उसे तीन चार बार मारा होगा उसी पोलीथिन से और जोरो से गुस्से में चिल्लाये जा रही थी पर आश्चर्य जनक रूप से कहीं से कोई भी कुछ कहने नहीं आया...वो आदमी आखिर साइकिल छुड़ा के भाग गया।

मैंने ऑटो लिया और सीधे घर आ गयी, घर पर किसी को कुछ नहीं बताया, अगले दिन कॉलेज में दोस्तों को बताया...बात पर सब खुश भी हुए और डरे भी...की मान लो वो आदमी फिर आ गया और खूब सारे लोगो के साथ आया तो तुम अकेली क्या कर लोगी। बात डरने की थी भी, पर खैर वो आदमी फिर नहीं दिखा मुझे, पर बोरिंग रोड मैं अगले कुछेक हफ्तों तक अकेले नहीं गयी.

ऐसी एक और घटना ऑटो में हुयी, एक लड़का बगल में बैठा था, कुछ १६-१७ साल का होगा...सारे रास्ते कुहनी मार रहा था और जब उसे डांटा की क्या कर रहे हो, तमीज से बैठो तो उसने ऑटो रुकवाया और कुछ तो कहा, बस मैं भी उतरी और उसका कॉलर पकड़ के एक झापड़ मारा, बस वो हड़बड़ाया और भागने के लिए हुआ, पर कॉलर तो मेरे हाथ में था और मैं छोड़ नहीं रही थी उसका कॉलर पूरी तरह फट गया और वो भाग गया.

ये दो दुस्साहस के काम मैंने किये थे...पर मुझे बहुत डर लगता था, डर उनसे नहीं अपनेआप और अपने इस न डरने से लगता था कि किसी दिन इसके कारण मुसीबत में न फंस जाऊं। पटना में उस वक़्त पुलिस और कानून नाम की कोई चीज़ नहीं थी, पूरा गुंडाराज चलता था...ऐसे में अगर कोई मुझे उठा के ले जाता तो कहीं से कोई चूँ नहीं करता.

आज जब लोगो को बोलते हुए सुनती हूँ कि लड़की ने छोटे या तंग कपड़े पहने थे इसलिए उसके साथ ऐसा हादसा हुआ तो मन करता है एक थप्पड उन्हें भी रसीद कर दूँ...क्योंकि मैंने बहुत साल फिकरे सुने हैं और ये वो साल थे जब मैं सबसे संस्कारी कपड़े पहनती थी जिनमें न तो कोई अश्लीलता थी और न मेरे घर से निकलने का वक़्त ऐसा होता था कि मेरे साथ ऐसा हो। जब भी ऐसी कोई बहस उठती है मेरे अन्दर का गुस्सा फिर उबलने लगता है और इन समाज के तथाकथित ठेकेदारों और झूठे संस्कारों कि दुहाई देने वालो को सच में गोली मार देने का मन करता है.

दिल्ली में बस पर चलती थी तो हमेशा हाथ में एक आलपिन रहता था कि अगर किसी ने कुहनी मारी तो चुभा दूंगी...नाखून हमेशा बड़े रखे इसलिए नहीं कि खूबसूरत लगते हैं, इसलिए कि अगर किसी ने मुझे कुछ करने की कोशिश की तो कमसे कम अँधा तो कर ही सकती हूँ...और यही नहीं कई दिन बालों में जूड़ा पिन लगाती थी सिर्फ इसलिए कि ये एक सशक्त हथियार बन सकता है.

कहने को हम आजाद हैं, लड़कियों और लड़कों को बराबरी का दर्जा मिला है...मगर क्या ऐसी किसी भी मानसिक प्रताड़ना किसी लड़के ने कभी भी झेली है जिंदगी में? क्या ये कभी भी समझेंगे कि एक लड़की को कैसा महसूस होता है...नहीं...क्योंकि ये नहीं समझेंगे कि ऐसा होने पर हमारा क्या करने का मन करता है...ये कहेंगे अवोइड करो, ध्यान मत दो...अगर एक बार भी किसी लड़के को ऐसा लगा न तो वो बर्दाश्त नहीं करेगा लड़ने पर उतर आएगा...क्यों? क्योंकि वो सशक्त है? eve teasing जैसा नाम दिया जाता है और इसकी शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं देता.

आज मैं उस वक़्त सी छोटी नहीं रही...लड़के मुझे अब भी घूरते हैं...बाईक चलाती हूँ तो पीछा करते हैं...मैं अनदेखा कर देती हूँ...मगर हर उस वक़्त मैं परेशान होती हूँ और हालांकि उन शुरूआती दिनों में जब मेरी सोच खुली नहीं थी और आज जब मैंने इतनी दुनिया देख रखी है...इतने अनुभवों से गुजर चुकी हूँ. आज भी सिर्फ इसलिए कि मैं लड़की हूँ मुझे इस मानसिक कष्ट को झेलना पड़ता है.

मेरा आज भी मन करता है कि मेरे पास एक रिवोल्वर होता...इन लड़कों को कम से कम एक झापड़ मारने में डर तो नहीं लगता.

06 March, 2009

ब्लॉगर कैसे बना?

आज मैं आपके साथ एक गूढ़ प्रश्न की खोज में चलती हूँ...ये वो प्रश्न है जो हम सबके मन में कभी न कभी कीड़ा करता रहता है...सवाल ये है कि "ब्लॉगर कैसे बना?"

बचपन में नानाजी खूब कहानी सुनाये थे हमको उसी में सुने थे कि ब्रह्मा जी कितना मेहनत से दुनिया बनाये, अकेले उनसे नहीं हो रहा था तो सरस्वाजी जी का हेल्प लेना पड़ा(और हम एक्साम या पोस्ट लिखें के लिए उनका हेल्प मांगते हैं तो क्या गलत करते हैं, हम ठहरे साधारण इंसान). ब्रह्मा जी ने जिस तरह से दुनिया बनाई उसमें बड़े लफड़े जान पड़े मुझे, हर बार कहानी सुनते थे तो एक version बदला हुआ हो जाता था, गोया विन्डोज़ का नया version रहा हो इसी तरह नानाजी भी बहुत सारी थ्योरी सुनाये थे हम लोग को.

स्कूल में आये तो पढ़ा कि प्रभु ने कहा "लेट देयर बी लाईट" और प्रकाश हो गया, इसी प्रकार विश्व की रचना हुयी, वो नाम लेते गए और चीज़ें पैदा होती गई...आज सोचती हूँ की प्रभु ने कहा "ब्लॉगर" और ब्लॉगर बन गया...ऐसा तो नहीं हुआ था?!...फिर लगा की ब्लॉगर जैसी महान और काम्प्लेक्स चीज़ इतनी आसानी से पैदा नहीं हो सकती...तो इसके लिए हमें रिसर्च करना पड़ा...वैसे तो माइथोलोजी में जाइए तो कोई मुश्किल ही नहीं है, क्योंकि वहां सबूत नहीं ढूंढें जाते, विश्वास से काम चल जाता है। तो मैं आराम से कह देती कि एक ब्लॉग्गिंग पुराण भी है जो लुप्त हो गया था...कुछ दिन पहले सुब्रमनियम जी ने एक खुदाई के बारे में बताया था, वहां के पाताल कुएं में गोता लगा कर मैंने ख़ुद से ये पुराण ढूंढ निकाला है(मानवमात्र की भलाई के लिए मैं क्या कुछ करने को तैयार नहीं हूँ). मगर मैं जानती हूँ आप लोग इस बात को ऐसे ही नहीं मांगेंगे...आपको सुबूत चाहिए।

ब्लॉगर के बनने की बात को समझने के लिए हमें इवोलूशन(evolution) की प्रक्रिया का गहन अध्ययन करना पड़ा...हमारी खोज से कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं. ब्लॉगर होना आपके डीएनए में छुपा होता है, इसके लिए जेनेटिक फैक्टर जिम्मेदार होते हैं, बहुत सारी कैटेगरी में से हम ये छाँट के लाये हैं इसको समझने के लिए थोडा मैथ समझाते हैं हम आपको...
  1. सारे कवि ब्लॉगर हो सकते हैं मगर सारे ब्लॉगर कवि नहीं होते(कुछ तो कवियों के घोर विरोधी भी होते हैं, उनके हिसाब से सारे कवियों को उठा कर हिंद महासागर में फेंक देना चाहिए)
  2. सारे इंसान ब्लॉगर हो सकते हैं मगर सारे ब्लॉगर इंसान नहीं होते(आप ताऊ की रामप्यारी को ले लीजिये या फिर सैम या बीनू फिरंगी)
  3. ऐसे ब्लॉगर जो इंसान होते हैं और कवि नहीं होते गधा लेखक होते हैं(रेफर करें समीरलाल जी की पोस्ट)
ऊपर की बातों में अगर घाल मेल लगे तो आप उसका सही equation और reaction ख़ुद निकालिए हमने काफ़ी पहले से कह रखा है की हम मैथ में कमजोर हैं...एक तो ब्लॉगजगत की भलाई के लिए इतना जोड़ घटाव करना पड़ रहा है।

खैर, मैथ से बायोलोजी पर आते हैं...चूँकि जीव विज्ञान में सब शामिल होते हैं इसलिए इसी सिर्फ़ इंसानों के लिए वाली पोस्ट नहीं मानी जाए...वैसे भी हमारे प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस ने बहुत पहले साबित कर दिया था की पेड़ पौधे संगीत के माहौल में तेजी से बढ़ते हैं, कल को कौन जाने ये साबित हो जाए कि पेड़ पौधे ब्लॉग्गिंग करने से जल्दी बढ़ते हैं तो कोई पेड़ भी अपना ब्लॉग बना लेगा। हम उस परिस्थिति से अभी से निपट लेते हैं...

ब्लॉग्गिंग का जीन जो होता है डीएनए में छुपा होता है...एक ख़ास तरह कि कोडिंग होती है इसकी, इसको अभी तक दुनिया का सबसे बड़ा supercomputer भी अनलाईज नहीं कर पाया है...इसलिए हमने चाचा चौधरी की मदद ली, आप तो जानते ही हैं कि चाचा चौधरी का दिमाग सुपर कंप्यूटर से भी तेज चलता है। हम दोनों ने काफ़ी दिनों तक एक एक करके डीएनए की कतरनें निकाली...एक बात बताना तो भूल ही गई कि हमारे पास इतने ब्लोग्गेर्स के डीएनए आए कहाँ से? तो ये बता दूँ कि जिस तरह आप ब्लॉग पर डाली पोस्ट चोरी होने से नहीं रोक सकते वैसे ही डीएनए चोरी होने से रोकना लगभग नामुमकिन है, और उसपर भी तब जब हमारे गठबंधन को दुनियाभर के मच्छरों का विश्वास मत मिल रखा हो...ये मच्छर दुनिया के कोने कोने से हमें खून के नमूने ला कर देते थे, वक्त के साथ इनमे ऐसे गुण डेवेलोप हो गए थे की सूंघ कर ही पता लगा लेते थे की सामने वाला ब्लॉगर है या नहीं...इन्हें फ़िर किसी नाम पते की जरूरत नहीं पड़ती थी।

ये ब्लोगजीन जो होता है...वक्त और मौके की तलाश में रहता है, आप इसे एक छुपे हुए संक्रमण की तरह समझ सकते हैं(इच्छा तो बहुत है की इसे इसके वास्तविक रूप में समझाउं पर आपको समझाते हुए कहीं मेरे फंडे न बिगड़ जाएँ इसका बहुत जोर से चांस है)। इसके पनपने और अपना लक्षण दिखाने में कुछ परिस्थितियों का अभूतपूर्व योगदान होता है जैसे की अकेलापन, मित्रों का कविता के प्रति उदासीन हो जाना, ऑफिस में स्थिरता का प्राप्त होना, पत्नी या प्रेमिका द्वारा प्रताड़ित होना, सफल कलाकार होना इत्यादि(आप इस लिस्ट में और भी बहुत कुछ जोड़ सकते हैं)। वैसे तो और भी बहुत सी परिस्थितियां होती हैं पर हम उनपर धीरे धीरे बात करेंगे(ताकि कोई सुन न ले)। ऐसी परिस्थितियां मिलते ही ये जीन जोर से अटैक करता है(आप इस जीन की अल्लादीन के जिन्न के साथ तुलना न करें ये आपके ही हित में होगा) और व्यक्ति में ब्लॉगर के लक्षण उभरने लगते हैं।

ये लक्षण हैं हमेशा कंप्यूटर पर बैठने की इच्छा होना, दूसरों के ब्लॉग पढ़ना, ब्लॉग्गिंग के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करना...ये लगभग २४ घंटे का फेज होता है, अगर इस समय व्यक्ति को ब्लॉग्गिंग के खतरों के बारे में चेता दिया जाए तो वह बच सकता है...वरना कोई उम्मीद नहीं...संक्रमण होने के २४ घंटे के अन्दर व्यक्ति अपना ब्लॉग बना लेता है...और पहली पोस्ट कर देता है।

इस तरह एक आम इंसान ब्लॉगर बन जाता है...इस समस्या से बचना नामुमकिन है, अभी तक इसकी न कोई दवाई है न वैक्सीन और कई लोग तो ये मानने से भी इनकार कर देते हैं कि उन के साथ कोई समस्या है। बाकी लोगो का फर्ज बनता है कि ब्लोग्गरों के प्रति संवेदनशील हों...पर अपनी संवेदनशीलता ह्रदय में ही रखें...यह एक संक्रामक बीमारी है और बहुत तेज़ी से फैलती है.

अगर जल्द ही इसे रोकने का उपाय न किया गया तो ये महामारी की शक्ल अख्तियार कर सकता है। डॉक्टर अनुराग आप कहाँ है?

05 March, 2009

राजदूत पर एक सफर...गाँव की ओर

होली आने ही वाली है, सब तरह माहौल होलिया रहा है...हँसी ठट्ठा हो रहा है, छेड़ छाड़ जारी है लोग नए नए रंगों की पोस्ट लिख रहे हैं तो कुछ पुराना माल भी ठेल रहे हैं...क्यों न हो होली ऐसे ही तो सदाबहार होती है।


हमारे यहाँ त्योहारों का बटवारा था, आधे ननिहाल में आधे ददिहाल में...शायद किसी समय शान्ति कायम करने के लिए ये अलिखित नियम बन गया होगा सो इसका आरम्भ हमें याद नहीं। हम हर साल होली मनाने अपने गाँव जाते थे...देवघर से। मेरा गाँव सुल्तानगंज के पास है, देवघर से गाँव की दूरी लगभग १०० किलोमीटर है। हमारे पास उस वक्त शान की सवारी राजदूत हुआ करता था जिसकी टंकी पर हम शान से विराजमान रहते थे और छोटा भाई माँ की गोद में ज्यादातर समय सोया ही रहता था।


देवघर से सुल्तानगंज का रास्ता मुझे अपनी जिंदगी के सारे रास्तों में सबसे खूबसूरत लगता है...इनारावरण से पलाश का जंगल शुरू होता था जो कई किलोमीटर तक साथ चलता था...सड़क के दोनों और दहकते हुए पलाश बहुत ही खूबसूरत लगते थे। पलाश से मेरा fascination उसी बचपन का है...रस्ते में एक सड़क जगह रुकते थे और सड़क किनारे बनी दुकानों में चाय वगैरह पीते थे मम्मी पापा, और मुझे मिलता था चिनियाबदम या मोटे मोटे बिस्कुट जो मुझे बहुत पसंद होते थे.

रास्ते में हनमना डैम आता था, और हम हमेशा वहां एक दो घंटे का आराम लेते थे, वहां एक बड़ा सा गेस्टहाउस होता था.
झींगुर और भौरों की आवाजें मुझे बड़ी अच्छी लगती थी...वहीँ पर पहली बार किसी घर में संगमरमर का फर्श और पिलर देखे थे...महलों के अलावा, इसलिए मुझे वो जगह बड़ी अद्भुत और रहस्यमयी लगती थी. वहां बहुत खूबसूरत गार्डन था, और वहां कैक्टस में भी फूल खिले होते थे.

रास्ते में जलेबिया मोड़ आता था, एक पहाड़ी जिसे सुईया पहाड़ कहते थे उसके बड़े घुमावदार रास्ते थे फिर कटोरिया आता था, उसके थोड़े देर बाद बेलहर जहाँ कमाल की रसमलाई मिलती थी पलाश के पत्तों के दोनों में. मुझे आज भी पलाश के पत्ते देख कर रसमलाई याद आती है.

हमारे तरफ होली के एक दिन पहले धुरखेल होता है, यानि धूल, मिटटी, गोबर, कीचड़ सब चलता है तो हम कोशिश करते थे की धुरखेल वाले दिन नहीं निकलें पर होली भी अक्सर दो दिन मनाई जाती है, तो अक्सर कहीं न कहीं धुरखेल में फंस ही जाते थे. बड़ी मुश्किल से पापा उन्हें मनाते थे की भाई जाने दो, बहुत दूर जाना है बच्चे हैं साथ में...तो ऐसे में बस रंग लगा कर छोड़ देते थे लोग.

मोटर साइकिल चलने का चस्का उसी उम्र से लगा, पापा के साथ हैंडिल पकड़े पकड़े कई बार लगता था की मैं ही चला रही हूँ, पापा तो बस ऐसे ही हाथ रखे हैं. फिर जब भाई थोडा बड़ा हो गया तो वो आगे बैठने लगा और मैं बीच में सैंडविच हो जाती थी, और रास्ता भी बस एक और का दिखता था. तब बार बार लगता था की बेकार बड़े हो गए...और फिर ये लगता था कि जल्दी से बहुत बड़े हो जायेंगे तो हम भी मोटर साइकिल चलाएंगे.


सबसे अच्छा लगता था कि गाँव पहुँचते ही शिवाले के पास दादी खड़ी होती थी इंतज़ार में...ये फ़ोन के बहुत पहले का जमाना था, बस दादी को पता होता था कि होली है तो हम लोग आयेंगे, वो एक हफ्ते से रोज शिवाले वाले रास्ते पर इंतज़ार करती थी. वहां से हम लोग पैदल ही दौड़ते हुए गाँव के बाकी बच्चो के साथ घर जाते थे. मेरा घर गाँव के आखिरी छोर पर है, घर पहुँचते पहुँचते सारे गाँव के बच्चे शामिल हो जाते थे और इतना हल्ला होता था कि सुनकर ही घर पर सबको पता चल जाता था कि हम लोग आ गए हैं.

फिर फटाफट निम्बू का शरबत मिलता था पीने को कुएं पर ले जा कर दीदी लोग हाथ पैर धुलवाती थी, थकान तो क्या दूर होनी थी उस उम्र में थकान भी कोई चीज़ होती है जानते ही नहीं थे, कुएं पर मज़ा बड़ा आता था. और फिर गरमा गरम दाल भात कोई सब्जी और चोखा मिलता था. आहा वो स्वाद!

इस तरह हम देवघर से गाँव पहुँच जाते थे...फिर गाँव में करते क्या थे ये किसी और दिन बताउंगी. :)

04 March, 2009

प्यार के रंग...

ये तसवीरें मुझे कुछ दिन पहले मेल में मिली थी...प्यार और जिंदगी को खूबसूरती से बयां करती इन तस्वीरों ने बरबस मन मोह लिया...आप भी एक नज़र डालिए।









03 March, 2009

भगवान...ब्लॉग्गिंग और डॉक्टरेट

कल ब्लॉग जगत के परम ज्ञानी और सत्य के ज्ञाता महानुभावों ने हमारी थीसिस पर हमें डॉक्टरेट की उपाधि दी॥कायदे से तो हमारा मन फूल के कुप्पा हो जाना चाहिए था और अपने इस महान उपलब्धि रुपी टिप्पणियों को प्रिंट करा के फ्रेम में मढ़ कर दीवाल पर टांगना चाहिए था...पर हमने ऐसा नहीं किया, इसलिए नहीं कि हम भी ज्ञानी हैं और जानते हैं कि ये सब क्षणभंगुर है...परन्तु इसमें एक गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है।

तो (दुर)घटना की शुरुआत १० जून को ही हो गई थी...यानि की जिस दिन हम धरती पर अवतरित हुए थे...अजी क्या बताएं भगवान ने बिल्कुल ही हमसे तबाह होकर हमें नीचे भेज दिया था, वहां हम उनका माथा खाते थे बहुत न इसलिए। बिहार की राजधानी पटना में हमने अपने कोलाहल की शुरुआत की, जैसे ही हम थोड़े बड़े हुए पटर पटर बोलना शुरू कर दिए...माँ की सिखाई सारी कवितायेँ तुंरत कंठस्थ कर लेते थे और टेबल पर खड़े होकर कविता पाठ शुरू करने में हमें कुछ भी शर्म नहीं आती थी...साधारण बच्चे थोड़ा बहुत नखरे दिखाते हैं, मगर मैं श्रोता को देख कर ऐसा अभिभूत हो जाती थी कि उसे पूरे सम्मान से जो भी आता था अर्पित करने में विश्वास रखती थी। आप लोग चूँकि इतने दिन से हमको झेल रहे हैं इसलिए इतने प्रकरण में ही समझ गए होंगे कि हममें बचपन से ही कवित्व के गुण विद्यमान थे। लेकिन हमारे मम्मी पापा को थोड़ा एक्सपेरिएंस कम था...आख़िर पहली संतान थे हम...तो उन्होंने इस सारे प्रकरण का एकदम उल्टा मतलब निकाल लिया...मतलब ये निकाला कि लड़की होशियार है, intelligent है, पढने में तेज है।

अब ऐसी लड़की का हमारे बिहार में उस वक्त एक ही भविष्य होता था...लड़की डॉक्टर बनेगी। बस बचपन से ही ये बात दिमाग में थी कि बड़े होकर डॉक्टर बनना है...क्लास में हमेशा अच्छे मार्क्स आते थे, और हमारे पढने का तरीका तो आप जानते ही हैं ऐसे में किसी को शक भी कैसे हो सकता था कि हम डॉक्टर नहीं बनेंगे...बचपन तक तो ये ठीक लगा, जब भी कोई अंकल या अंटी गाल पकड़ के पूछते थे बेटा बड़े होकर आप क्या बनोगे तो हम फटाक से जवाब देते थे कि डॉक्टर...ये बचपन के दिन भी कितने सुहाने होते हैं , सिर्फ़ बोलना पड़ता है...पर हम किस कठिन मार्ग पर जा रहे थे ये हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था।

हमारे ऊपर पहली बिजली गिरी ११वीं में, पापा के साथ किताबें खरीदने गए थे...कम से कम ५ किलो वजन और कुछ एक बित्ता चौड़ाई की वो किताब हाथ में उठाते ही हम जैसे धड़ाम से जमीन पर गिरे और ये पहली किताब थी बायोलोजी की, इसके बाद फिजिक्स और केमिस्ट्री भी थे...कायदे से तो इनका सम्मिलित वजन हमारे डॉक्टर बनने के सपनों को कुचलने को काफ़ी होता मगर बचपन से दिमाग में घूमती सफ़ेद कोट और गले में स्टेथोस्कोप की हमारी तस्वीरों ने हमें पीछे हटने से रोक दिया। फ़िर भी उम्मीद की एक लौ को हमने जिलाए रखा और एक्स्ट्रा पेपर में हिन्दी ली(जिसमें हमें ९५ आए, और बाकियों के मार्क्स मत पूछिए..पर वो किस्सा फ़िर कभी)

अभी तक जो मन किताबों के वजन से घबरा रहा था...किताबें खोल कर देखें तो आत्मा ऊपर इश्वर के पास प्रस्थान कर गई कि मेरे पिछले जनम के पापों का पहले हिसाब दो...आख़िर ऐसा क्या किया है मैंने जो इतना पढ़ना पड़ेगा मुझे, उसपर ये नई बात पता चली थी कि डॉक्टर बनने के लिए कम से कम पाँच साल पढ़ना पड़ता है। हमने चित्रगुप्त को धमकाया कि हमारा अकाउंट दिखाओ वरना अभी कोर्स में जो हिन्दी वाली कवितायेँ पढ़ रही हूँ एक लाइन से सब सुनाना शुरू कर दूँगी। चित्रगुप्त काफ़ी दिनों से बेचारा मेरा सताया हुआ था, उसने फटाफट अपना कम्प्यूटर खोला और देखा...बोला चिंता मत करो, बस एक दो साल की बात है किताबों को पढने का नायाब नुस्खा तो मैंने तुम्हें सिखा कर ही भेजा है...बस वैसे ही पढ़ते रहो। और हमारी डॉक्टर की डिग्री? हमें भी तो बचपन से सुन सुन कर नाम के आगे डॉक्टर लिखने का शौक चर्रा गया था...वो मेरा डिपार्टमेंट नहीं है...तुम ऊपर के बाकी भगवानो से संपर्क करो.

ये सुनना था कि हम परम सत्य कि खोज में निकल लिए...बहुत सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद जा कर भगवान् से अपौइन्टमेन्ट मिला...भगवान् हमको देखते ही टेंशन में आ गए, फ़ौरन चित्रगुप्त को बुलाया...ये क्या कर रहे हो तुम आजकल, एक कैलकुलेशन ठीक से नहीं कर सकते इस आफत को कितने साल इतने लिए नीचे भेजा था हमने? चित्रगुप्त इस अचानक से हमले इतने लिए तैयार नहीं था...हड़बड़ा गया गिनती भूल गया। इससे पहले कि एक राउंड डांट का चलता हम बीच में कूद पड़े, हम बस ये जानने आये थे कि हमको बिना पढ़े डॉक्टर की उपाधि कैसे मिल सकती है.


भगवान ने शायद शार्टकट की बात पहली बार सुनी थी, तो मंद मंद मुस्कुरा कर बोले...कलयुग में मनुष्य के पाप धोने का एक नया तरीका उत्पन्न होगा...ब्लॉग्गिंग। तुम उस नदी में अपने पाप रगड़ रगड़ कर धोना...शीघ्र ही मेरे दूत हिसाब लगायेंगे कि तुम्हारे डॉक्टर बनने के लायक पॉइंट जुड़े या नहीं...और जिस दिन तुम ब्लॉग विसिटर, कमेन्ट नंबर और चिट्ठाजगत के कम्बाइन्ड स्कोर से बेसिक requirement पूरा कर लोगी और अपना थीसिस पोस्ट कर दोगी...मेरी कृपा से ये दूत तुम्हें डॉक्टर की उपाधि दे देंगे.

वो दिन था और आज का दिन है...जय हो भगवान् के दूतों तुम्हारी मैथ मेरी तरह ख़राब नहीं थी...तुमने बाकी सर्च इंजन के बजाये चिट्ठाजगत पर भरोसा किया...और पेज रैंक के चक्कर में नहीं पड़े...मैं ये पोस्ट उन दूतों और भगवान् को धन्यवाद के लिए लिख रही हूँ।

जय हो!

02 March, 2009

गायक, कवि और जलन्तु ब्लॉगर

कुछ लोगो को जिंदगी भर खुराफात का कीड़ा काटे रहता है। हम अपनेआप को इसी श्रेणी का प्राणी मानते हैं जिन्हें कुछ पल चैन से बैठा नहीं जाता है...

आज हम अपने पसंदीदा रिसर्च को पब्लिक की भलाई के लिए पब्लिक कर रहे हैं...ये रिसर्च २५ सालों की मेहनत का परिणाम हैइसे पूरी तरह सीरियसली लेने का मन है तो ही पढ़ें, नहीं तो और भी ब्लॉग हैं ज़माने में हमारे सिवा :)

हमारे रिसर्च का विषय है आदमी का दिमाग...हम यहाँ फेमिनिस्ट नहीं हो रहे इसी श्रेणी में औरत का दिमाग भी आना चाहिए कायदे से, पर वो थोड़ा काम्प्लेक्स हो जाता इसिलए सिम्प्लीफाय करने के लिए हमने उन्हें रिसर्च से बाहर रखा है। आप दिमाग के झांसे में मत पड़िये, रिसर्च सुब्जेक्ट सुनने में जितना गंभीर लगता है वास्तव में है नहीं...हमने कोई बायोलोजिकल टेस्ट नहीं किए हैं, किसी का भेजा निकाल के उसका वजन नहीं लिया है सबसे बड़ी बात की इस रिसर्च में जानवरों पर कोई अत्याचार नहीं किया गया है...जो भी किया गया है सिर्फ़ आदमी पर किया गया है तो एनीमल लवर्स अपना सपोर्ट दें।

हमारी रिसर्च में आदमी का सोशल व्यवहार पता चला है...तो आइये हम आपको कुछ खास श्रेणी के इंसानों के मिलवाते हैं...हमारे रिसर्च का बेस यानि कि आधार है की दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं...और इस रिसर्च की प्रेरणा हमें हिन्दी फिल्में देख कर मिली...



  1. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं...(ये वाक्य पूरी रिसर्च में रहेगा अब से इंविसिबल रूप में दिखाई देगा...यानी कि दिखाई नहीं देगा आप समझ जाइए बस)... शुरुआत करते हैं संगीत से...इनमें से पहली कैटेगोरी होती है उन लोगो की जो आपको हर जगह मिल जायेंगे यानी कि मेजोरिटी में...जैसे कि गरीबी, भ्रस्टाचार, कामचोरी वगैरह, खैर टोपिक से न भटका जाए पहली कैटेगरी के लोग होते हैं अच्छे गायक...इनसे किसी भी फिल्म का गाना गवा लीजिये, हूबहू उतार देंगे, आलाप अलंकार दुगुन तिगुन सब बिना रोक टोक के कर लेंगे, गाना सुना और इनके दिमाग में रिकॉर्ड हो गया अब जब भी बजने को कहा जायेगा एकदम सुर ताल में बजेंगे. इनकी हर जगह हर महफ़िल में मांग रहती है...छोटे होते हैं तो माँ बाप इन्हें गवाते हैं हर अंटी अंकल के सामने और आजकल तो टीवी शो में भी दिखते हैं...बड़े होने पर ये गुण लड़कियों को इम्प्रेस करने के काम आता है. इन लोगो से आप कई बार और कई जगह मिल चुके होंगे.अब आते हैं हमारी दूसरी और ज्यादा महत्वपूर्ण कैटेगोरी की तरफ...इन्हें underdog कहा जाता है, या आज के परिपेक्ष में लीजिये तो स्लमडॉग कह लीजिये...ये वो लोग होते हैं जिन्हें माँ सरस्वती का वरदान प्राप्त होता है, इनमें गानों को लेकर गजब का talent होता है और ये पूरी तरह ओरिजिनालिटी में विश्वास करते हैं...नहीं समझे? ये वो लोग हैं जिन्हें हर गाना अपनी धुन में गाना पसंद होता है, गीत के शब्द भी ये आशुकवि की तरह उसी वक़्त बना लेते हैं...आप कभी इन्हें एक गीत एक ही अंदाज में दो बार गाते हुए नहीं सुनेंगे, मूर्ख लोग इन्हें बाथरूम सिंगर की उपाधि दे देते हैं...माँ बाप की इच्छा पूरी करने के लिए ऐसे कितने ही talented लोग बंगलोर में थोक के भाव में सॉफ्टवेर इंजिनियर बने बैठे हैं...अगर इन्हें मौका मिलता तो ये अपना संगीत बना सकते थे, गीतों में जान फूंक सकते थे, और अभी जो घर वालो का जीना मुहाल किये होते हैं गीत गा गा के, दोस्त इनका गाना सिर्फ चार पैग के बाद सुन सकते हैं...ऐसे लोग आज ऐ आर रहमान बन सकते थे, भारत के लिए ऑस्कर ला सकते थे...मगर अफ़सोस। ये वो हीरा है जिन्हें जौहरी नहीं मिला है...आप इन लोगो से बच के भागने की बजाये इन्हें प्रोत्साहित करें यही मेरा उद्देश्य है। उम्मीद है आप लोग मुझे नाउम्मीद नहीं करेंगे।

  2. ये एक बहुत ही खास श्रेणी है...इस श्रेणी को कहते हैं कवि...इनकी पहुँच बहुत ऊँचे तक होती है, बड़े लोग तो यहाँ तक कह गए हैं की जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. ये बड़े खतरनाक लोग होते हैं कुछ भी कर सकते हैं, आम जनता इनके डर से थर थर कांपती है. इनके बारे में श्री हुल्लड़ जी ने ऐसा कहा है "एक शायर चाय में ही बीस कविता सुना गया, फोकटी की रम मिले तो रात भर जम जायेगा", हुल्लड़ जी के बारे में फिर कभी, आप कवि की सुनाने की इच्छा देखिये...गजब की हिम्मत है, इन्हें किसी से डर नहीं लगता न बिना श्रोताओं वाले कवि सम्मलेन से, न अंडे टमाटर पड़ने से(वैसे भी महंगाई में कौन खरीद के मारे भला). और मैं एक राज़ की बात बता देती हूँ...ये तो चाँद पर चंद्रयान भेजा गया है सिर्फ इसलिए की आगे से कवियों को चाँद पर भेजा जा सके ताकि बाकी हिन्दुस्तान चैन की नींद सो सके। चाँद की खूबसूरती में दाग या गोबर ना आये इसलिए ताऊ ने भी अपनी चम्पाकली को चाँद से बुलवा लिया है...अब दूसरी कैटेगोरी के लोगों की बात करते हैं...जो कविता झेलते हैं, ऐसे लोग आपको मेजोरिटी में मिल जायेंगे. ये वो लोग हैं जिन्होंने पिछले जनम में घोर पाप किये हों...इन्हें अक्सर कवि मित्रों का साथ भाग्य में बदा होता है, इनके पडोसी कवि होते हैं, दूध मांगने के बहाने कविता सुना जाते हैं...अगर कहीं पाप धोने का कोई यत्न न किया हो कभी तो उसे कवि बॉस मिलता है। अगर आप कवि हैं और इनके घर पहुँच जाएँ तो आपको एक गिलास पानी भी पीने को नहीं मिलेगा, ये जिंदगी से थके हारे दुखी प्राणी होते हैं. इन्हें हर कोई सताता है, इन्हें न बीवी के ख़राब और जले हुए खाने पर बोलने का हक है न गाड़ी लेट आने पर ड्राईवर को लताड़ने का...ये सबसे निक्रिष्ट प्राणी होते हैं इनसे कोई दोस्ती नहीं करना चाहता की कहीं इनके कवि मित्र गले न पड़ जाएँ, इनके घर पार्टी में जाने में लोग डरते हैं. और यकीं मानिए ऐसे लोग अपना दुःख किसी से बता भी नहीं सकते. मुझे इनसे पूरी सहानुभूति है.

  3. अब मैं आपको बताती हूँ एक उभरती हुयी कैटेगरी के बारे में...इन्हें कहते हैं ब्लॉगर...जी हाँ इनका नाम सम्मान से लिया जाए ये आम इंसान नहीं हैं बल्कि एवोलुशन की कड़ी में एक कदम आगे बढ़े हुए ये परामानव हैं, मैंने रिसर्च करके पाया है कि सभी superheroes ब्लॉग्गिंग करते हैं छद्म नाम से...हमारे हिंदुस्तान में हीरो तो ब्लोगिंग करते ही हैं अमिताभ बच्चन से लेकर आमिर खान तक...सभी ब्लॉग लिखते हैं. इससे आप समझ सकते हैं कि ये कितना महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं. ये असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति होते हैं...या साधारण रूप से असाधारण व्यक्ति होते हैं. इनका लेखन क्षेत्र कुछ भी हो सकता है, कविता से लेकर शायरी तक और गीत से लेकर कव्वाली तक, मजाक से लेकर गाली गलोज तक ये किसी सीमा में नहीं बांधे जा सकते. स्वतंत्रता की अभूतपूर्व मिसाल हैं. शीघ्र ही संविधान में इनके लिए खास अध्याय लिखा जाने वाला है. वर्चुअल दुनिया में पाए जाने वाले ये शख्स मोह माया से ऊपर उठ चुके होते हैं, ब्लॉग्गिंग ही उनका जीवन उद्देश्य होता है और इसी के माध्यम से वो परम ज्ञान और परम सत्य को पा के आखिर अंतर्ध्यान हो जाते हैं. ब्लॉगर की महिमा अपरम्पार है.
    इसके ठीक उलट आते हैं वो इंसान जिन्हें टाइप करना नहीं आता...जी हाँ यही वह एक बंधन है जो किसी इंसान को एक ब्लॉगर से अलग करता है. जिसे भी लिखना आता है वो ब्लॉगर बन सकता है...यानि कंप्यूटर पर लिखना. ये आम इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीते हैं इनके मुंह में जबान नहीं होती, इनकी उँगलियों में समाज को बदलने की ताकत नहीं होती, ये चुप चाप गुमनामी में अपनी जिंदगी गुजार कर चले जाते हैं...किसी को इनके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता. कोई नहीं जानता कि इन्होने दुनिया के किस किस कोने में भ्रमण किया है, न कोई इनके पालतू कुत्ते बिल्लियों के बारे में जानता है और तो और कोई ये भी नहीं जान पाता कि इनकी कोई प्रेमिका रही थी जिसकी याद में हर अब तक कविता लिखते हैं...किस काम की ऐसी जिंदगी? ये न टिप्पणियों के इंतजार में विरह का आनंद ले पाते हैं न visitors कि गिनती में कुछ हासिल करने का भाव जान पाते हैं और तो और ये इतने साधारण होते हैं कि इन्हें फोलोवेर मिलते ही नहीं. ये underprivileged लोग होते हैं जिनका पूरा जीवन ब्लॉग्गिंग के अभूतपूर्व सुख के बगैर अधूरा सा व्यतीत होता है और मरने के बाद ये अपने अधूरी इच्छाओं के कारण नर्क से ब्लॉग्गिंग करते हैं.
    चूँकि ये खास कैटेगरी है इसलिए इसमें तीसरे प्रकार के इंसान भी होते हैं...इन्हें कहते हैं जलंतु...यानि जलने वाले. ये वो लोग होते हैं जो अपना ब्लॉग खोल कर एक दो पोस्ट लिख कर गायब हो जाते हैं...कभी साल छह महीने में एक पोस्ट ठेलते हैं...ये सबके ब्लॉग पर जाते हैं पर कहीं टिप्पनी नहीं करते बाकी ब्लोग्गेर्स की लोकप्रियता देखकर जलते हैं...बेनामी टिप्पनी लिखकर लोगो को दुःख पहुँचने का काम करते हैं और हर विवाद में घी झोंकते हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें ढूंढ़ना हम सबका कर्त्तव्य बनता है. ये भटके हुए लोग हैं, इन्हें ब्लोग्गिन का मुक्तिमार्ग दिखाना हमारा फर्ज बनता है. हमें इनका हौसला टिप्पनी दे दे कर बढ़ाना चाहिए...प्यार से निपटने पर ये सभी रास्ते पर आ जायेंगे. इसलिए आप सबसे अनुरोध है कि इनकी मदद करें आखिर इसलिए तो हम ब्लॉगर साधारण मनुष्य से ऊपर हैं.
आज के लिए इतना काफी है...हम अपनी रिसर्च के गिने चुने मोती लाते रहेंगे और आपको समाज को बेहतर समझने में मदद करते रहेंगे.

चेतावनी: उपरोक्त लिखी सारी बातें एक ऐसे व्यक्ति ने लिखी है जो split personality disorder(SPD) से ग्रस्त है इसलिए इस लिखे की जिम्मेदारी किसी की नहीं है...SPD के बारे में ज्यादा जानने के लिए हिंदी फिल्में देखें.

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...