24 August, 2010

मेहंदी का रंग

सावन में सैयां के लिए और भादों में भैय्या के लिए मेहंदी लगानी चाहिए...इससे प्यार बढ़ता है. 

ऑफिस और घर की कवायद के बीच एक बहन कहाँ तक बची रह पाती है मालूम नहीं...वो भी तब जब तबीयत ऐसी ख़राब हो कि गाड़ी चलाना मुमकिन ना हो...किसी महानगर में जहाँ कुछ भी पैदल जाने की दूरी पर ना मिले...वो भी ऐसी जगह जहाँ पर राखी दुकानों में हफ्ते भर पहले ही आ पाती है.

पूरा बाज़ार घूमना, छोटे भाई का हाथ पकडे हुए...एक राखी ढूँढने के लिए...जो सबसे अलग हो, सबसे सुन्दर हो और जो भाई की कलाई पर अच्छी लगे...घर पर रेशम के धागों और फेविकोल का ढेर जमा करना साल भर...कि राखी पर अपने हाथ से बना कर राखी पहनाउन्गी..ऐसी राखी तो किसी के कलाई पर नहीं मिलेगी ना.

मेहंदी को बारीक़ कपडे से दो बार छानना...फिर पानी में भिगो कर दो तीन घंटे रखना...साड़ी फाल की पन्नी से कुप्प्पी बनाना...रात को पहले मम्मी को को मेहंदी लगाना...मेहंदी पर नीबू चीनी का घोल लगाना और पूरे बेड पर अखबार डाल के सोना...अगली सुबह देखना कि मेहंदी का रंग कितना गहरा आया है...जितना गहरा मेहंदी का रंग, उतना गहरा भाई का प्यार...सुबह उठ के नहा के तैयार हो जाना..राखी में हर बार नए कपडे मिलते थे...राखी बाँध कर झगडा करना, पूरे घर में छोटे भाई को पैसे लेने के लिए दौड़ाना...

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वो आसमान की तरफ देख रही है...भीगी आँखें, सोच रही है, पूछ रही है अगर कहीं कोई भगवान है तो...उलाहना...कोई मुझे प्यार नहीं करता...बहुत साल पहले...ऐसा ही उलाहना, जन्मदिन पर किसी ने चोकलेट नहीं दिया था तो...छोटा भाई पैदल एक किलोमीटर जा के ले के आता है...उस वक़्त वो अकेले जाता भी नहीं था कहीं.

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इस साल मेहंदी का रंग बहुत फीका आया है...नमक पानी रंग आने के लिए अच्छा होता भी नहीं है...रात डूबती जा रही है और मैं सोच रही हूँ कि अकेलापन कितना तकलीफदेह होता है...गहरे निर्वात में पलकें मुंद जाती हैं...जख्म को भी चुभना आ गया है...ये लगातार दूसरा साल है जब मेरी राखी नहीं पहुंची है...राखी के धागों में बहुत शक्ति होती है, वो भाई की हर तकलीफ से रक्षा करती है.
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नींद के एक ना लौटने वाले रास्ते पर...एक ही ख्याल...मेहंदी का रंग इस साल बहुत फीका आया है.

11 August, 2010

समंदर की खोज में

शनिवार रात...कोई डेढ़ बजे का समय...कुछ लोग जिंदगी पर बात करते करते अचानक सेंटी हो जाते हैं...और समंदर देखने की इच्छा होती है. बंगलोरे चेन्नई एक्सप्रेस वे के बारे में गूगल बताता है कि कुछ दो सौ किलोमीटर है...मेरी भी इच्छा थी कि १००-१२० की स्पीड से कर चला के देखूं. 
बस इतना भर सोचना था, गीज़र चालू किया गया और एक एक करके सब नहा के ताज़ा हो गए...गैरतलब है कि रात के डेढ़ बज रहे थे. पीडी से रास्ता पूछा गया, ये पुराने यात्री रहे हैं इस रास्ते के...और अनुभव को कभी भी जाया नहीं करना चाहिए. कुल मिला के गाड़ी चलने वाले साढ़े तीन लोग थे, तीन लोग एकदम एक्सपर्ट और मैं एकदम कच्ची तो तय हुआ कि बारी बारी कार चलाएंगे. थोड़ा सा सामान पैक किया...कुछ कपड़े, तौलिया वगैरह और चप्पलें, चादर, तकिये...बस. दो बजते सब तैयार और गाड़ी में लोडेड. आई पॉड ख़राब हो रखा है तो फ़ोन से ही काम चलाना पड़ा. फाबिया में खूबी है कि किसी भी म्यूजिक प्लेयर को कनेक्ट कर सकते हैं. 

मेरे नए फ़ोन...विवाज़...में जीपीएस की सुविधा है जो आपकी पोसिशन बताती है और ये मेरे उम्मीद से कहीं ज्यादा अच्छा परफोर्म करती है...मजे की बात कि मैंने अपने घुमक्कड़ी मूड के हिसाब से कर्णाटक का पूरा नक्शा खरीद के रखा था कि किसी दिन ऐसे ही मूड बन जाए तो भुतलाने का कोई स्कोप न हो...मैं ख़ुशी ख़ुशी उठी कि चेन्नई जाना है, अच्छा है मेरे पास मैप है...और जैसे ही मैप देखा तो देखा कि चेन्नई तो दूसरे राज्य में है :) अब इतनी लम्बी प्लानिंग तो मैं कर नहीं सकती. मैं अपने आप को टेक्निकली चैलेंज्ड (तकनीकी रूप से अक्षम ;) ) मानती थी...अब नहीं मानती. काफी खुराफात की है मैंने तो अब प्रोमोट होके तकनीकी जुगाडू मानती हूँ :)

एक्सप्रेस वे पर १०० की स्पीड तो सोचा था पर इतने ही स्पीड पर ओवेर्टेक करने की बात नहीं सोची थी, वो भी भीमकाय ट्रक और वैसे ही अजीबोगरीब वाहनों को तो किसी फिल्म जैसे लग रहे थे. सीधी खूबसूरत सड़क थी और कुणाल ऐसे चला रहा था जैसे हम कोई विडियो गेम खेल रहे हों. रात बेहद खूबसूरत थी...और गाने और भी प्यारे...कोई सात बजे लगभग हम चेन्नई पहुंचे...यहाँ से गोल्डन बीच जाना इतना मुश्किल था कि क्या कहें...सारे लोग तमिल में बात करते थे...प्रशांत को फ़ोन किया तो मेरे नेटवर्क में कुछ पंगा था...आवाज नहीं आई...उसने sms किया उससे कुछ आइडिया हुआ कि सही रास्ते जा रहे हैं. और फिर जीपीएस और भगवान भरोसे हम लोग रिसोर्ट पहुंचे. 

थकान के मारे हालत ख़राब...और पेट में चूहे दौड़ रहे थे...ईसीआर कोस्ट पर कहीं कुछ खाने को ही नहीं मिल रहा था उतनी सुबह...इडली डोसा भी नहीं...जिस रिसोर्ट में टिके थे, उन्होंने खाना देने से इनकार कर दिया "सार दे वील नोट गीव यु" खाना पूछने पर किचन से यही जवाब मिला. हालत ऐसी हो गयी थी कि आधे घंटे और खाना नहीं मिलता तो सोच रहे थे प्रशांत से सत्तू मंगवाएंगे और घोर के पियेंगे ;) किसी तरह इन्तेजाम हुआ...और खा पी के अलार्म लगा के सो गए.

तीन बजे लगभग उठे, कॉफी पी और सीधे समुन्दर...चेन्नई में गोल्डन बीच को वीजीपी ग्रुप वालों ने खरीद लिया है, तो बीच पर जाने के लिए टिकट लगता है...मैं चेन्नई बहुत सालों बाद आई थी...यहाँ पानी बहुत साफ़ और पारदर्शी था...समंदर भी खूबसूरत नीला...मौसम सुहाना, थोड़ा बादल...थोड़ी धुप...समंदर का पानी गुनगुना...लहरें परफेक्ट...न ज्यादा ऊँची न ज्यादा शांत. सूरज डूबने तक हम पानी में ही बदमाशी करते रहे...चेन्नई में सूरज समंदर की विपरीत दिशा में डूबता है, तो शाम को समंदर का पानी एकदम सुनहला लगता है, पारदर्शी सुनहला...

दिन का समंदर और रात का समंदर एकदम अलग होते हैं...दिन को लहरें अलग थलग आती हैं...रात को जैसे गहरे नीले समंदर में बिजली कौंधती है, एक लहर बीच समंदर से उठती है और दौड़ती है दूसरी लहर का हाथ थामने...लम्बी पतली सफ़ेद रेखाएं...समंदर किनारे चुप चाप बैठना...थोड़ा और करीब ला देता है.

वापसी में तो मुझे पूरा यकीन था कि हम खो जायेंगे, आखिर फिर से डेढ़ बजे रात को रास्ता कौन बताएगा चेन्नई से बाहर जाने का...लगा कि अनजान शहर में एक अपना होना कितना विश्वस्त करता है...कि एकदम भटक गए तो प्रशांत को बुला लेंगे...बाइक उठा के आ जायेगा...भला आदमी है...एक बार भी मिली नहीं हूँ उससे हालाँकि...सोच रही थी...नेट पर बने रिश्ते भी कितने सच्चे से होते हैं.

जीपीएस के सहारे पूरे रास्ते आये...वाकई बड़े काम की चीज़ है, फोन लेते वक़्त सोचा भी नहीं था कि इसकी कभी जरूरत भी पड़ेगी और ये इतना काम भी आएगा...रात फिर से बहुत खूबसूरत थी...सुबह ६ बजे बंगलोर पहुँच गए...भागा भागी जाना....फटाफटी आना.

जिंदगी...आवारगी...जिंदगी  

(पीडी का ख़ास धन्यवाद)

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