30 September, 2011

फाउंटेन पेन से निकले अजीबो गरीब किस्से

'तुम खो गए हो,' नयी कलम से लिखा पहला वाक्य काटने में बड़ा दुःख होता है, वैसे ही जैसे किसी से पहली मुलाकात में प्यार हो जाए और अगले ही दिन उसके पिताजी के तबादले की खबर आये. 

'तुम खोते जा रहे हो.' तथ्य की कसौटी पर ये वाक्य ज्यादा सही उतरता है मगर पिछले वाक्य का सरकटा भूत पीछा भी तो नहीं छोड़ रहा. तुम्हारे बिना अब रोया भी नहीं जाता, कई बार तो ये भी लगता है की मेरा दुःख महज एक स्वांग तो नहीं, जिसे किसी दर्शक की जरूरत आन पड़ती हो, समय समय पर. इस वाक्य को लिखने के लिए खुद को धिक्कारती हूँ, मन के अंधियारे कोने तलाशती भी हूँ तो दुःख में कोई मिलावट नज़र नहीं आती. एकदम खालिस दुःख, जिसका न कोई आदि है न अंत. 

स्याही की नयी बोतल खोलनी थी, उसके कब्जे सदियों बंद रहने के कारण मजबूती से जकड़ गए थे. मैंने आखिरी बार किसी को दवात खरीदते कब देखा याद नहीं. आज भी 'चेलपार्क' की पूरी बोतल १५ रुपये में आ जाती है. बताओ इससे सस्ता प्यार का इज़हार और किसी माध्यम से मुमकिन है? अर्चिस का ढंग का कार्ड अब ५० रुपये से कम में नहीं आता. गरीब के पास उपाय क्या है कविता करने के सिवा. तुम्हें शर्म नहीं आती उसकी कविता में रस ढूँढ़ते हुए. दरअसल जिसे तुम श्रृंगार रस समझ रहे हो वो मजबूरी और दर्द में निकला वीभत्स रस है. अगर हर कवि अपनी कविता के पीछे की कहानी भी लिख दे तो लोग कविता पढना बंद कर देंगे. इतना गहन अंधकार, दर्द की ऐसी भीषण ज्वाला सहने की शक्ति सब में नहीं है.

सरस्वती जब लेखनी को आशीर्वाद देती हैं तो उसके साथ दर्द की कभी न ख़त्म होने वाली पूँजी भी देती हैं और उसे महसूस करके लिखने की हिम्मत भी. बहुत जरूरी है इन दो पायदानों के बीच संतुलन बनाये रखना वरना तो कवि पागल होके मर जाए...या मर के पागल हो जाए. बस उतनी भर की दूरी बनाये रखना जितने में लिखा जा सके. इस नज़रिए से देखोगे तो कवि किसी ब्रेन सर्जन से कम नहीं होता. ये जानते हुए भी की हर बार मरीज के मर जाने की सम्भावना होती है वो पूरी तन्मयता से शल्य-क्रिया करता है. कवि(जो कि अपनी कविता के पीछे की कहानी नहीं बताता) जानते हुए कि पढने वाला शायद अनदेखी कर आगे बढ़ ले, या फिर निराशा के गर्त में चले जाए दर्द को शब्द देता है. वैसे कवि का लिखना उस यंत्रणा से निकलने की छटपटाहट मात्र है. इस अर्थ में कहा नहीं जा सकता कि सरस्वती का वरदान है या अभिशाप.

ये पेन किसी को चाहिए?
तुम किसी अनजान रास्ते पर चल निकले हो ऐसा भी नहीं है(शायद दुःख इस बात का ही ज्यादा है) तुम यहीं चल रहे हो, समानांतर सड़क पर. गाहे बगाहे तुम्हारा हँसना इधर सुनाई देता है, कभी कभार तो ऐसा भी लगता है जैसे तुम्हें देखा हो- आँख भर भीगती चांदनी में तुम्हें देखा हो. एक कदम के फासले पर. लिखते हुए पन्ना पूरा भर गया है, देखती हूँ तो पाती हूँ कि लिखा चाहे जो भी है, चेहरा तुम्हारा ही उभरकर आता है. बड़े दिनों बाद ख़त लिखा है तुम्हें, सोच रही हूँ गिराऊं या नहीं. 


हमेशा की तरह, तुम्हारे लिए कलम खरीदी है और तुम्हें देने के पहले खुद उससे काफी देर बहुत कुछ लिखा है. कल तुम्हें डाक से भेज दूँगी. तुम आजकल निब वाली पेन से लिखते हो क्या?


26 September, 2011

इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक

आवाजों का एक शोर भरा समंदर है जिसमें हलके भीगती हूँ...कुछ ठहरा हुआ है और सुनहली धूप में भीगा हुआ भी. पाँव कश्ती से नीचे झुला रही हूँ...लहरें पांवों को चूमती हैं तो गुदगुदी सी लगती है. हवा किसी गीत की धुन पर थिरक रही है और उसके साथ ही मेरी कश्ती भी हौले हौले डोल रही है.

आसमान को चिढ़ाता, बेहद ऊँचा, चाँद वाली बुढ़िया के बालों सा सफ़ेद पाल है जो किसी अनजान देश की ओर लिए जा रहा है. नीला आसमान मेरी आँखों में परावर्तित होता है और नज्मों सा पिघलने लगता है...मैं ओक भर नज़्म इकठ्ठा करती हूँ और सपनों में उड़ेल देती हूँ...जागी आँखों का सपना भी साथ है कश्ती में. 

शीशे के गिलासों के टकराने की मद्धम सी आवाज़ आती है जिसमें एक स्टील का गिलास हुआ करता है. मुझे अचानक से याद आता है कि मेरे दोस्त मेरे नाम से जाम उठा रहे होंगे. बेतरतीब सी दुनिया है उनकी जिसमें किताबें, अनगिन सिगरेटें और अजनबी लेकिन अपने शायरों के किस्से हैं...मैं नाव का पाल मोड़ना चाहती हूँ, फिर किसी जमीन पर उतरने की हूक उठती है. जबकि अभी ही तो नयी आँखों से दूसरी दुनिया देखने निकली थी. उनकी एक शाम का शोर किसी शीशी में भर कर लायी तो थी, गलती से शीशी टूट गयी और अब समंदर उनके सारे किस्से जानता है. 

जमीन पर चलते हुए छालों से बचने के लिए इंसान ने जूते बनाये. नयी तकनीकें इजाद हुयी और एक से बढ़कर एक रंगों में, बेहद सुविधाजनक जूते मिलने लगे. जिनसे आपके पैर सुरक्षित रहते हैं...हाँ मगर ऐसे में पैर क्या सीख पाते हैं? दुनिया देख आओ, हर शहर से गले मिल लो, नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों भटक आओ...मगर पैर क्या मांगते हैं...मिट्टी. तुम्हारे घर की मिट्टी, भूरी, खुरदरी कि जिसमें पहली बार खेल कर बड़े हुए. आज समंदर में यूँ पैर भीग रहे हैं तो समंदर उन्हें मिट्टियों की कहानी सुना रहा है. समंदर के दिल में पूरी दुनिया की मिट्टी के किस्से हैं.

शोर में कुछ बेलौस ठहाके हैं, कि जिनसे जीने का सलीका सीखा जाए और अगर गौर से सुना जाए तो चवन्नी मुस्कान की खनक भी है. इतनी हंसी आँखों में भर ली जाए तो यक़ीनन जिंदगी बड़े सुकून से कट जाए. तो आवाजों के इस समंदर में एक ख़त मैं भी फेंकती हूँ, महीन शीशी में बंद करके. कौन जाने कभी मेरा भी जवाब आये...कि क़यामत का दिन कोई बहुत दूर तो नहीं. 



इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक 
कोई हमें फुसला के वापस घर ले जाए

20 September, 2011

कुछ अच्छे लोग जो मेरी जिंदगी में हैं...

बुखार देहरी पर खड़ा उचक रहा है. आजकल बड़ा तमीजदार हो गया है, पूछ कर आएगा. ऑफिस का काम कैसा है, अभी बीमार पड़ने से कुछ ज्यादा नुकसान तो नहीं होगा, काम कुछ दिन टाला जा सकता है या नहीं. उम्र के साथ शरीर समझने लगता है आपको...कई बार आपके हिसाब से भी चलने लगता है. किसी रात खुद को बिलख कर कह दो, अब आंसू निकलेंगे तो आँखें जलन देंगी तो आँखें समझती हैं, आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुप हो जाती हैं. 

एक दिन फुर्सत जैसे इसलिए मिली थी की थकान तारी है. थकान किस चीज़ की है आप पूछेंगे तो नब्ज़ पर हाथ रख कर मर्ज़ बतला नहीं सकती. अलबत्ता इतना जरूर पता है कि जब किताबों की दुकान में जा के भी चैन न पड़े तो इसका मतलब है कि समस्या बेहद गंभीर होती जा रही है. 

सोचती हूँ इधर लिखना कम हो गया है. बीते सालों की डायरी उठती हूँ तो बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है. तितली के पंखों की तरह रंगीन. इत्तिफ़ाक़न ऐसा हुआ है कि कुछ पुराने दोस्त मिल गए हैं. यही नहीं उनके अल्फाज़ भी हैं जो किसी भटकी राह में हाथ पकड़ के चलते हैं...कि खोये ही सही, साथ तो हैं. विवेक ने नया ब्लॉग शुरू किया, हालाँकि उसने कुछ नया काफी दिन से नहीं लिखा. पर मुझे उम्मीद है कि वो जल्दी ही कुछ लिखेगा.

इधर कुछ दिनों से पंकज से बहुत सी बात हो रही है. पंकज को पहली बार पढ़ा था तो अजीब कौतुहल जागा था...समंदर की ओर बैठा ये लड़का दुनिया से मुंह क्यूँ फेरे हुए है? आखिर चेहरे पर कौन सा भाव है, आँखें क्या कह रही होंगी. उस वक़्त की एक टिपण्णी ने इस सुसुप्तावस्था के ज्वालामुखी को जगा दिया और वापस ब्लॉग्गिंग शुरू हुयी. मुझे हमेशा लगता था कि एकदम सीरियस, गंभीर टाइप का लड़का है...पता नहीं क्यूँ. वैसे लोगों को मैं इस तरह खाकों में नहीं बांटती पर ये केस थोड़ा अलग था. इधर पंकज का एक नया रूप सामने आया है, PJs झेलने वाला, इसकी क्षमता अद्भुत है. कई बार हम 'missing yahoo' से 'ROFL, ROFLMAO' और आखिर में पेट में दर्द होने के कारण सीरियस बात करते हैं. जहर मारने और जहर बर्दाश्त करने की अपराजित क्षमता है लड़के में. कितनी दिनों से अवसाद से पंकज ने मेरी जान बचाई है...यहाँ बस शुक्रिया नहीं कहूँगी उसका...कहते हैं शुक्रिया कहने से किसी के अहसानों का बोझ उतर जाता है. काश पंकज...तुम थोड़ा और लिखते. 

आज ऐसे ही मूड हो रहा है तो सोच रही हूँ दर्पण को भी लपेटे में ले ही लिया जाए. दर्पण मुझे हर बार चकित कर देता है, खास तौर से अपनी ग़ज़लों से. मुझे सबसे पसंद आता है उसकी गज़लें पढ़कर अपने अन्दर का विरोधाभास...ग़ज़ल एकदम ताजगी से भरी हुयी होती हैं पर लगता है जैसे कुछ शाश्वत कहा हो उसने. अनहद नाद सा अन्तरिक्ष में घूमता कुछ. कभी कभार बात हुयी है तो इतना सीधा, सादा और भला लड़का लगा मुझे कि यकीन नहीं आता कि लिखता है तो आत्मा के तार झकझोर देता है. पहली बार बात हुयी तो बोला...पूजा प्लीज आपको बुरा नहीं लगेगा...मुझे कुछ बर्तन धोने हैं, मैं बर्तन धोते धोते आपसे बात कर लूं? दर्पण तुम्हारी सादगी पर निसार जाएँ. 

ज्यादा बातें हो गयीं...बस आँखें जल रही हैं तो लिखा हुआ अब पढूंगी नहीं...इसे पढ़ के किसी को झगड़ा करना है तो बुखार उतरने के बाद करना प्लीज...

18 September, 2011

किस्सा नए लैपटॉप का- 2

इस भाग में आप पायेंगे की हमने कैसे वायो और डेल में पसंदीदा लैपटॉप चुना. इसके पहले का भाग यहाँ है. इसमें आप ये भी पायेंगे की एक लड़की का और एक लड़के का किसी भी तरह के सामान खरीदने के पीछे एकदम अलग मनोविज्ञान होता है. 

वायो VPCCB14FG/B के इस मॉडल में १५.५ इंच फुल हाई डेफिनिशन स्क्रीन थी और मैक के स्क्रीन की तुलना में सबसे अच्छी स्क्रीन लगी थी मुझे. लैपटॉप की प्रोसेसिंग स्पीड के अलावा जिस छोटे से फीचर के कारण मेरा चुनाव टिका हुआ था वो था बैकलिट कीबोर्ड. अक्सर मैं और कुणाल अलग अलग टाइम पर काम करना पसंद करते हैं तो कई बार होता है कि उसे सोना होता है और मुझे काम भी करना होता है. रात को कभी कभार लिविंग रूम में मुझे ३ बजे डर सा लगता है...अब लाईट जला के काम करती हूँ उसे सोने में दिक्कत होती है और बिना लाईट के लिखने में मुझे परेशानी. बैक लिट कीबोर्ड किसी लो-एंड मॉडल में नहीं था...तो ये मॉडल ५४ हज़ार का पड़ रहा था मुझे. बहुत दिन सोचा कि १० हज़ार के लगभग ओवर बजट हो रहा है मगर कोई और मॉडल पसंद ही नहीं आ रहा था और फिर लगा कि लंबे अरसे तक की चीज़ है...और कुणाल ने कहा...अच्छा लग रहा है ना, ले लो...इतना मत सोचो :)

मेरे लिए लैपटॉप का भी सुन्दर होना अनिवार्य था...मैं बोरिंग सा डब्बा लेकर नहीं घूम सकती...लैपटॉप सिर्फ क्रियात्मक(functional) होने से नहीं चलेगा. उसे मेरे स्टाइल के मानकों पर भी खरा उतरना होगा. मैं डेल के शोरूम गयी, डेल के मॉडल ने मुझे प्रभावित नहीं किया. मेरे लिए लैपटॉप भी पहली नज़र का प्यार जैसा होना जरूरी था...यहाँ के लैपटॉप मुझे अरेंज मैरिज जैसे लगे. उसपर डेल की जो सबसे बड़ी खासियत है, वो आपकी पसंद के फीचर्स के हिसाब से लैपटॉप कस्टमाईज कर के देंगे, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा. लगा की गोलगप्पा या चाट बनवा के खा रही हूँ...थोडा मिर्ची ज्यादा देना...ना न नमक तेज लग रहा है. मेरी ये बात सुन के टेकिस(Techies/Geeks) अपना सर फोड़ सकते हैं इसलिए उनको यहीं चेता रही हूँ की कृपया आगे न पढ़ें. मेरे लैपटॉप खरीदने के कारण यहाँ से होरोर मोड में आगे बढ़ेंगे. डेल के लैपटॉप थोड़े ज्यादा भारी(read bulky) लगे, किसी लड़के के लिए ठीक हैं पर मेरे लिए...उनमें नज़ाकत नहीं थी(आप कहेंगे होनी भी नहीं चाहिए, खैर). कुणाल के लिए, या मेरे भाई के लिए परफेक्ट हैं (पापा के पास भी डेल ही है) पर मेरे लिए...एकदम न...ऐसा लैपटॉप लेकर मैं नहीं घूम सकती. 

तो फिर सोनी का VPCCB14FG/B चुना...बुक करवा दिया था और जब खरीदने पहुंची तो उन्होंने बताया की ये मॉडल स्टॉक में ही नहीं है सिर्फ नारंगी और हरे रंग में है. मुझे एकदम रोना आ गया...मैं वहीं बैठ के आंसू बहाने वाली थी की क्रोमा के फाइनांस वालों ने तुरंत्बुद्धि का परिचय देते हुए मुझे बगल में ही सोनी शोरूम चलने को कहा. वहां भी बहुत देर तलाशने के बाद मॉडल नहीं मिला...तब तक मेरी नज़र इस लैपटॉप पर जा चुकी थी VPCCA15FG/R...गहरे लाल रंग का ये लैपटॉप उसी दिन आया था शोरूम में...और इससे प्यार हो चुका था. इसके सारे फीचर्स पहले वाले के ही थे बस स्क्रीन १४ इंच थी और फुल हाई डेफिनिशन नहीं थी. मुझे पहले भी १५.५ थोडा ज्यादा बड़ा लग रहा था  क्यूंकि मैं लैपटॉप लेकर अक्सर घूमती फिरती रहती हूँ. फुल HD नहीं होने का थोडा चिंता हुयी पर मैं वैसे भी लैपटॉप पर फिल्में नहीं देखती...तो लगा की छोटे साइज़ में और इस रंग के लिए ये कॉम्प्रोमाइज चलेगा. 

वैसे भी सोनी के लाल रंग के लैपटॉप पर मेरा सदियों पहले से दिल आया हुआ था. लैपटॉप बेहद अच्छा चल रहा है...बहुत ही फास्ट है, हल्का है २.४ किलो और रंग ऐसा की जिस मीटिंग में जाती हूँ नज़रें लैपटॉप पर :) ये रंग मार्केट में सबसे तेज़ी से बिकता भी है...जब भी ढूंढिए आउट ऑफ़ स्टोक मिलता है. 

पिछले कुछ दिनों में प्रवीण जी और अनुराग जी ने भी लैपटॉप ख़रीदे. प्रवीण जी का मैक एयर है और अनुराग जी ने डेल इन्स्पिरोन(लाल रंग में) ख़रीदा. प्रवीण जी अपने लैपटॉप को पहली नज़र का प्यार कहते हैं जबकि अनुराग जी उसे 'मेरा प्यार शालीमार'. इन दोनों की और मेरी खुद की पूरी प्रक्रिया पर नज़र डालती हूँ तो एक बात साफ़ दिखती है...हम चाहे जो सोच कर, दिमाग लगा कर, लोजिक बिठा कर खरीदने जाएँ...लैपटॉप जैसे मशीन भी हम प्यार होने पर ही खरीदते हैं. :) दिल हमेशा दिमाग से जीतता है. 

किस्सा नए लैपटॉप का- १

 इधर कुछ दिनों में हमारे कई ब्लॉग मित्रों के लैपटॉप वृद्धावस्था को प्राप्त होकर शनैः शनैः स्वर्गवासी हो गए...न न सच में किसी ने उन्हें स्वर्ग में इश्वर के इस्तेमाल के लिए नहीं भेजा...वे घर में ही कोमा में पड़े हुए हैं. 

चार-पाँच साल ही एक लैपटॉप की उम्र होती है अक्सर, तो हम कह सकते हैं ये की ये लैपटॉप अपने कर्तव्य का निर्वाह करके रिटायर हुए हैं...सालों तक ये हमारे साथी रहे...सुख-दुःख में साथ निभाया...झगड़े टंटे में डटकर साथ दिया. मेरे लैपटॉप का जाना तो एकदम मानवीय था...पहले एक अक्षर ने साथ छोड़ा 'O' ने...हमने इसे कॉपी पेस्ट करके कुछ दिन काम चलाया...मगर ब्लॉग लिखने में घोर असुविधा होने लगी तो लिखना काफी कम भी हो गया...फिर हमने एक नया कीबोर्ड ख़रीदा...अब लैपटॉप डेस्कटॉप की तरह काम करने लगा था. पर जैसा की आप जानते हैं, उम्र बढ़ने पर रफ़्तार कम होते जाती है, तो नए कीबोर्ड में कुछ टाईप करके उसके स्क्रीन पर उगने का वैसा ही इंतजार होता था जैसे सदियों १६ की उम्र में उस मोहल्ले के खूबसूरत लड़के के बालकनी पर आने का. 

इस बीच हमें उधर के मैक पर काम करने का मौका मिला...हम एकदम बुरी तरह उसपर फ़िदा हो गए. उसकी स्क्रीन रिसोलुशन का वाकई कोई लैपटॉप बराबरी नहीं कर सकता...और प्रोसस्सिंग स्पीड भी बेहतरीन थी. कुछ दिन ही इस्तेमाल करते हुए कई परेशानियाँ आयीं...हमेशा से विंडोस का ऑपरेटिंग सिस्टम इस्तेमाल करने पर आप अपने लैपटॉप से कुछ चीज़ों की उम्मीद रखेंगे...यहाँ हर चीज़ को फिर से सीखना पड़ रहा था. हिंदी टाइपिंग के लिए मैं गूगल ट्रांसलिट्रेट डाउनलोड करके रखती हूँ...पर मैक के लिए वो उपलब्ध नहीं था. गूगल चैट भी मैक के लिए नहीं बना था...ये तो दो छोटी परेशानियाँ आयीं मगर इनका निकट भविष्य में कोई समाधान नहीं दिख रहा था. मैक में हिंदी टाइपिंग का अपना कीय्बोर्ड है...और कुछ अभ्यास के बाद शायद उसमें टाईप करना आसान हो ये सोच के हमने कोशिश भी की, लेकिन उसमें अक्सर दो की(Key) एक साथ दबानी पड़ती थी. इससे हमारी नाज़ुक उँगलियों को परेशानी होती थी. इन दो बड़ी परेशानियों के अलावा भी कई छोटी मोटी दिक्कतें हुयी मुझे. तो मैंने अपने लिए मैक लेने का इरादा स्थगित कर दिया. 

एक नयी कॉफ़ी टेबल बुक लिख रही हूँ आजकल...कर्नाटक बस परिवहन के लिए. इस सिलसिले में उनके लाल बाग़ स्थित ऑफिस पर रोज जाना पड़ रहा था...अब बिना लैपटॉप काम कैसे करें. मेरे लैपटॉप ने मेरे मैक इस्तेमाल करने से सदमे में आ गया था. अब उसका 'A' भी काम करना बंद कर चुका था. एक दिन किसी तरह ctrl+v करके काम चलाया पर शाम होते होते ctrl भी बंद हो गया. इस तरह तीन चरण में मेरे लैपटॉप को पूरा लकवा मार गया. 

अब मैंने तीन लैपटॉप फाइनल किये...Sony Vaio, Dell Inspiron and Mac...सबसे पसंद मैक था लेकिन पहले वाली समस्या के कारण उसे आउट किया...हालाँकि कई बार कनखियों से उसे देख लेती थी. सोनी वायो पर मेरा दिल बहुत साल पहले आया हुआ था...जब पहली बार सोनी ने लाल रंग के लैपटॉप मार्केट में उतारे थे. खैर...फिर डिटेल जानकारी जुटाई.

३०-४० का बजट सोचा था. उसमें एक सोनी का लैपटॉप भी पसंद आया पर उसका प्रोसेसर इंटेल-३ था...और आजकल इंटेल ५ और ७ आ चुके हैं. फिर पुराने प्रोसेसर लेने का कोई फायदा नहीं लगा. तो अब बेसिक चाहिए था इंटेल ५, ४ जीबी रैम और ५०० जीबी हार्ड डिस्क. मुझे मेरे लैपटॉप में हमेशा मेरे पसंद की फिल्में, बहुत से गाने और बहुत सी तसवीरें चाहिए होती हैं, और साल दर साल ये स्टोक बढ़ता ही जाता है. तो ३२० से मेरा काम नहीं चलता. 

इन स्पेसिफिकेशन पर जो फाइनल किया वो था सोनी वायो VPCCB15FG/B और डेल इन्स्पिरोन. पोस्ट काफी लम्बी हो गयी है इसलिए दो पार्ट में बाँट रही हूँ...अगला पार्ट यहाँ है. 

07 September, 2011

धत, प्यार क्या होता है जी? हम नहीं जानते

अजीब लड़की थी, खिलखिलाती थी तो आँखें छलक आती थीं...मुस्कुराती थी तो हरसिंगार गमक उठते थे...गुनगुनाती थी तो सारे गृह अपने कक्षा में घूमने के बजाये रुक कर उसके हिलते होठ निहारा करते थे...कितनी बार तो उसे टोका की यूँ दुआओं की मुस्कुराहटें अजनबियों को मत दिया करो...तुम क्या जानो तुम्हारी एक दुआ से जिंदगी भर प्यार किया जा सकता है. पर लड़की एकदम ही अल्हड़ हुआ करती थी. सलीके से बस उसे चोटियाँ गूंथनी आती थीं जो उसने बचपन में नानी से सीखी थी...वरना तो उसे कुछ भी काम काज नहीं आता...सलीके का. 

लड़का भी थोड़ा दीवाना सा था...बाबूजी से दिन भर खेत खलिहान के तौर तरीके सीखता...जब बड़े भैय्या शहर जाते आगे की पढ़ाई करने के लिए उन्हें पाँच किलोमीटर दूर पैदल चलकर बस स्टैंड छोड़ने जाता...और फिर हर हफ्ते एक दिन जा के उस नीली बस को देख आता...उसके मन में बस के लिए भी वैसा ही आदर था जैसा भैय्या के लिए. मुंह अंधरे उठता, गुहाल में झाडू लगाता, कटिया चला के नरुआ(पुआल) काटता...कुएं से बाल्टी भरता और गाय को सानी पानी देता. इस समय लड़की भी उठती और गुहाल की कच्ची मिटटी वाली दीवाल पर दोनों बैठ कर सूरज उगना देखते...देवता को प्रणाम करते और दिन के काम में लगते. 

लड़की कोई गीत गाती रहती जिसका भावार्थ रहता की हे सूर्य देवता मेरे घर पर कृपा करो, गाँव पर कृपा करो, दूर परदेस में बैठे घर वालों को सुखी रखो...और कभी कभी कनखी से झाँक लेती की लड़का आसपास तो नहीं है...ऐसे में अपने मन से गीत में एक पंक्ति और जोड़ देती की लड़के पर भी किरपा करो...लड़का दूर कहीं धान के खेत में आम गाछ के नीचे बैठा हवा पर तैरता अपना नाम सुनता...इतने लाड़ से कोई भी तो नहीं बुलाता था उसे. 

लड़की ने नया नया दुपट्टा ओढ़ना सीखा था, कभी पुआल के टाल पर भूल आती, कभी कुएं की मुंडेर पर...लड़का ऐसे में उसकी ओढ़नी को छू कर देखता...ऐसा करने में उसे बड़ा अच्छा लगता...जैसे नए बछड़े के सर पर हाथ फेरने में लगता था, बिलकुल वैसा ही...कभी ऐसे में लड़की उधर पहुँच जाती तो दोनों सकपका जाते...घबरा के नज़रें  मिलाते और लड़की...धत...या ऐसा ही कुछ कहते हुए भाग जाती. शर्माना भी सीख रही थी आजकल...लड़का राहत की सांस लेता था. 

उसे भी आजकल लड़की के लिए कुछ छोटा मोटा करना अच्छा लगता...कुएं पर रहता तो पानी भर देता...कभी खेत से कच्ची छीमी ला देता कभी मूलियाँ...और अबकी उसने सोच रखा था की सावन में उसके लिए झूले लगाएगा...इस हफ्ते जब बस स्टैंड गया था तो सन ले आया था, बटाई करके रस्सी भी बुन रहा था रोज थोड़ी थोड़ी...और इधर सावन जो आने वाला था, गाँव की मिटटी में प्यार जैसा कुछ पनप रहा था...बारिश के आने पर सोंधी मिटटी की गंध आती है...पता चल जाता है की बारिश हुयी है.

उन्हें कब पता चला की उनमें जो हरी दूब जैसा नाज़ुक उग रहा है उसे प्यार कहते हैं...न लड़की को झूला झूलते वक़्त...न लड़के को झूला को धक्का देते वक़्त...हाँ जब उसकी मांग में सिन्दूर भर रहा था तो कुछ सात कसमें खिलायीं थी पंडित जी ने...पर उसमें ये कहाँ था की उस लड़की से प्यार करना है. 

आप आज भी उनसे पूछेंगे तो लड़की कहेगी...धत, प्यार क्या होता है जी? हम नहीं जानते...और लड़का भी ऐसा ही कुछ कहेगा...आप ही कहिये...और कैसे होता है प्यार?

तुम झूठ बोलते हो...सच्ची में

ना ना, तुम नहीं समझोगे मेरी जान...भरी दुपहरिया तपती देह बुखार में याद का कैसा पारा चढ़ता है...जैसे दिमाग की सारी नसें तड़तड़ा उठती हों और एक एक चित्र का सूक्ष्म विवेचन कर लेती हों. तुम्हें याद है कैसे नंगे पाँव धूप पर गंगा बालू में दौड़ती चली आती थी मैं, मुझे भी धूप से भ्रम होता था तुम्हारे आने का. तुम कहते थे कि तुम आये नहीं थे मगर दिल जो पागल हो रखा था, कभी तेज़ धड़कता भी था तो लगता था पुरवाई पर उड़कर तुम्हारी महक आ गयी है आँगन तक...और फिर चप्पल उतार कर चलना होता था न...अरे ऐसे कैसे, कोई सुन लेता तो...और नहीं तुम जानते नहीं मैंने पायल पहनना क्यूँ बंद कर दिया था...दो ही घुँघरू थे पर चुप्पी दोपहरी अपनी महीन नींद से जाग जाती थी और फिर कोयल पूरे मोहल्ले हल्ला करती फिरती थी कि मैं चुपके जाके तुम्हारी खिड़की से तुम्हें सोते हुए झाँक आई हूँ. 


वो पड़ोसी की बिल्ली जैसे मेरे ही रास्ता काटने के इंतज़ार में बैठी रहती थी, मुटल्ली...एक मैं हर बार तुम्हारी याद में गुम किचन का दरवाजा खुला भूल आती थी और उसके वारे न्यारे...वो तो बचपन में कजरी बिल्ली का किस्सा सुन रखा था वरना सच्ची किसी दिन उसको बेलन ऐसा फ़ेंक मारती कि मरिये जाती...अरे इसमें हिंसा का कौन बात हुआ जी...तुम भी बौरा गए हो...कल को जो मच्छर भी मारूंगी तो कहोगे उसमें जान होती है...बड़े आये नरम दिल वाले...नरम दिल मेरा सर...हुंह. जो रोज शाम को एक बिल्ली के कारण डांट खाना पड़े न तब जानोगे...कोई तुमको लेकर कुछ कहे तो फिर भी सुन लूँ, उस बिल्ली के लिए भला क्यूँ सुनु मैं...मेरी क्या लगती है...मौसी...मेरी बला से!

तुम तो रहने ही दो...फर्क पड़ता है तुम्हें मेरा सर...हफ्ते भर से बीमार हुयी बैठी हूँ और एक बार चुपके से झाँकने भी नहीं आये...और नहीं किसी के हाथ चिट्टी ही भिजवा दी होती, न सही कमसे कम गोल-घर के आगे से खाजा ही खरीद के ला देते...चलो कमसे कम हनुमान मंदिर ही चले जाते, प्रसाद देने कौन मना करेगा तुमको...लेकिन हाय रे मेरे बुद्धू तुमको इतनी बुद्धि होती तो फिर सोचना ही क्या था. तुम तो मजे से रोज क्रिकेट खेलने जा रहे होगे आजकल कि भले बीमार हुए पड़ी है...फुर्सत मिल गयी...अरे मर जाउंगी न तो तुम्हारा सचिन नहीं आएगा तुम्हारे आंसू पोंछने...पगलाए हुए हो उसके लिए...और मान लो आ भी गया तो बोलोगे क्या...क्या लगते हैं जी तुमरे हम? 
------
बहुत साल हुए...लड़की का बचपना चला गया, बात बात में तुनकना भी चला गया...बुखार आये भी बहुत बरस बीते...लड़का भी परदेस से वापस नहीं लौटा...पर आज भी जब वो लड़का फोन पर उसे यकीन दिलाने की कोशिश करता है की उसने कभी उससे प्यार नहीं किया था...तो लड़की के अन्दर का समंदर सर पटक पटक के जान दे देता है. 

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...