09 November, 2011

सियाही

निब का आगे का नुकीला हिस्सा टूटता है और धारदार स्टील उसकी ऊँगली में धंस जाता है. बेहद तेजी से खून बहता है और लड़की अचंभित सी गहरे लाल रंग के खून में मिलती काली स्याही देखती रह जाती है. सफ़ेद कागज़ पर एक तरफ से खून की धारा बहती है और दूसरी तरफ काली सियाही की...दोनों मिलकर  ऐबस्ट्राक्ट सा कुछ रच रहे हैं...अमूर्त जिसमें देखो तो सब कुछ दिख जाए. लड़की गहरी उसांस लेती है जैसे खुद को समझा रही हो कि ये तो होना ही था एक दिन. तुम्हें भी पता था, मुझे भी. सादे कागज़ पर अब बहुत सारी कहानियां रची जा चुकी हैं पर लड़की जैसे स्लो मोशन में स्टेच्यु हो गयी है. देख रही है...खून बह रहा है, दर्द हो रहा है, स्याही गिर रही है, टेबल पर बिखर रही है...उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा. ऊँगली में निब धंसा हुआ है, गहरे.
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उसकी आँखें काली थीं...एकदम गहरी, रात की तरह...उसे जान पाना बहुत मुश्किल था. ब्लैक होल में से रौशनी भी बाहर नहीं आती. उसकी आँखें सब कुछ सोख लेती थीं, पर वापस कुछ नहीं करतीं. शायद उन्होंने स्वार्थी होना दुनिया से सीखा हो...लड़कों से भी सीख सकती हैं...बुराइयाँ बहुत तेजी से फैलती हैं. (स्याही भी तो गिर रही है, पैरेरल स्टोरी में जहाँ लड़की खिड़की किनारे वाली टेबल पर धूप में अमूर्त में आकार ढूंढ रही है).
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उसके पास दुनिया भर की तन्हाई थी...जैसे दवात को अक्षयपात्र होने का वरदान मिला हो. कलम, निब, स्याही और सफ़ेद कागज़...इतने भर दुनिया थी उसकी. उसके पात्र पैदा होते और पन्नों में ही मर जाते...वो स्टेच्यु ही बनी रहती. जब पहला अबोर्शन कराया था कितना खून बहा था...और दर्द...दर्द तो पन्नों से उभर आता है. उसकी चीखों जैसा जो कि मुंह पर हाथ रखने से बंद नहीं होतीं थी, न कमरे का दरवाजा बंद करने से. यकीन करना कहाँ मुमकिन था कि इस शताब्दी में भी लड़कियों को जन्म लेने की इजाजत नहीं थी. या शायद यकीन करना बहुत आसान था...समाज के कुछ सियाह हिस्से उसके हिस्से में नहीं आये थे कभी. उसके हिस्से बस खुला आसमान था और सादे कागज़. आज उसे देर रात तक रोना था...बिलख बिलख कर उस बेटी के लिए जिसकी रक्षा नहीं कर पायी वो.
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उसे बहुत से सवालों का जवाब देना था जिसमें प्रमुख ये था कि वो कलमुंही सिर्फ बेटियां क्यूँ पैदा करना चाहती है...ये सवाल सिर्फ उसकी सास ही नहीं उसके पन्नो से उभर कर किरदार भी पूछते थे. वो इतनी बेबस हो जाती कि किरदारों का गला घोंट देती, कुछ को खाने में जहर मिला के मार देती और कुछ किरदार उसे इतना तड़पाते कि वो इंतज़ार करती और उनके बेटों के हिस्से में उम्र भर का अकेलापन लिख देती...ये अभिशप्त बेटे थे जिन्हें कभी उनका प्यार नहीं मिला...वो किसी लड़की की एक नज़र के लिए तरस तरस कर मर जाते थे. उसकी कहानियां दिन चढ़ते वीभत्स होती जा रहीं थी...जैसे उसके पाँव भारी होते किसी किरदार की जिंदगी में भयानक उथल पुथल मच जाती. वो किरदार जो उसकी खुली हंसी और खिली धूप में जीते थे उनकी जिंदगी में कभी सुनामी आता कभी भूचाल...और मरना...वो तो नियति बनती जा रही थी. 
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नियति के खेल अनोखे होते हैं...सास ने पता लगते ही उसका खास ख्याल रखना शुरू कर दिया था...इस बार खानदान का चिराग आने वाला था घर में. आखिर उसका वंश आगे बेटे से ही तो बढेगा...लड़की राजरानी की तरह रहती थी, खुली खिड़की में धूप तापती थी, सबको लगा था कि इस बार उसकी आँखों में कोई रौशनी की किरण चमकेगी. 
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ऊँगली में निब धंसा हुआ था...गहरे...और बहुत देर धंसा रहा...बहुत देर खून बहने के कारण लड़की टेबल पर बेहोश हो गयी...होश आया तो उसने खुद को अस्पताल में पाया...मोनिटर पर सिर्फ एक ही दिल की धड़कन सुनाई पड़ रही थी...बेड के इर्द गिर्द मुखोटा लगाये किरदार खड़े थे, पति, सास, ननद और पूरा कुनबा...उसे समझ नहीं आया कि उनके दुःख का कारण उसका जिन्दा बचना है या घर के चिराग का बुझ जाना. लड़की पागलों की तरह हंस उठी और इतनी देर हंसती रही कि उसे सेडेट करना पड़ा...ऑपरेशन के टाँके खुल गए और इन्टरनल ब्लीडिंग के कारण डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए. 
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लड़की के पति की दूसरी शादी करा दी गयी...हफ्ते भर में ही नयी दुल्हन ने चीख चीख कर पूरे मोहल्ले को बता दिया कि उसका पति 'नामर्द' है. 

12 comments:

  1. अद्वितीय...तुम्हारा मन है या ब्रह्माण्ड!बिना इसे बाँधे बस लिखती रहो पूजा...

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  2. अब कहने को रक्खा ही क्या है. सब कुछ तो स्मृति जी ने कह डाला.

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  3. स्याही बहती, खून बह गया, बहती गयी कहानी,
    पढ़ते पढ़ते पी ही डाला, आँखों का सब पानी।

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  4. मेरे मन का लिखा हुआ है. इसमें एक एक्स्ट्रा खुशबू भी है... जीवन की मुश्किलों के सच्चे रंग की... पूजा, आपकी कलम कि निब इस तरह अनुभूतियों की दावत में डूबी रहे.

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  5. आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । पोस्ट रोचक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।

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  6. आज 10 - 11 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


    ...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
    ____________________________________

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  7. kya kahu?main bahut khushnaseeb hu aur aap bhi jo hamari ma aur papa hamare aane par khushiya manane me mashgool hue.ye betiyan jo aa nahi paai shayad ase hi kahi na kahi panno par syahi ke aansu roti hain.....ishwar logo ko sadbuddhi de.aur aapko ase hi pyara likhne ki shakti.....

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  8. कानू जी क्षमा करना लेकिन 'खुशनसीब होना' फील करना भी 'इन्फिरीओरिटी-कॉम्प्लेक्स' का एक रूप है. जिस बात के लिए आप अपने को खुशनसीब कह रही हो मैम वो तो आप डिजर्व करती हो, उसके लिए अपने को लकी मत मानो.

    पूजा पोस्ट पे कमेन्ट करने आया था, पर मेरा कल का कहा आज का लिखा समझ लेना. :-)

    PS: स्त्रियों कि मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता है.

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  9. खून बहता देख... मुझे लगा लड़की कर्ण की तरह निकलेगी !

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  10. यह भारतीय समाज है..
    लड़की होनी चाहिए, भ्रूण हत्या पाप है...
    और अगर लड़की नहीं होगी तो फिर लड़कों की शादी किस से करेंगे...
    लेकिन..............
    लड़की तो हो, लेकिन पडोसी के घर में हों. मेरे घर न हो....
    ये है भारतीय समाज का सच..

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  11. दर्पण बहुत दिनों से आपने कोई पोस्ट नहीं लिखी इन्तेजार है.और आपको क्या कहू तर्क के मूड में होना हर समय संभव नहीं ,बस इतना समझ लीजिए वो खुशनसीबी कोई अहसान नहीं खुशनसीबी वाली फीलिंग इसलिए क्युंकी जो लड़कियां जन्म नहीं ले पाई वो बदनसीब थी या जिनने जन्म ले लिया वो उनसे कुछ ज्यादा नसीब वाली है किसी का अहसान नहीं है उनपर फिर भी माता पिता का अहसान तो है ही कम से कम उतना तो है ही जितना एक पुरुष पर होता है .सच है वो में डीजेर्व करती हू पर डीजेर्व तो कई लोग बहुत कुछ करते है वो उनको कहामिलता है. वेसे ये खुशनसीबी और बदनसीबी के बीच बड़ी बारीक रेखा है ,जहा तक महिलाओं की सोच बदलने का सवाल है वो होना ही चाहिए पर मेरे लिए खुशनसीबी शब्द सही है क्युंकी मुझे लगता है है की मैं खुशनसीब हू.जन्म लेना ही जरुरी नहीं अच्छे लोग मिलना भी जरुरी है और ये बात मेरी जिंदगी में है ,हाँ अगर पूजा अपने लिए ये खुशनसीब शब्द प्रयोग में लिया जाना पसंद ना करे तो उनके लिए मैं ये शब्द वापस लेती हू.(वेसे मैंने मान लिया था की उन्हें कोई आपति नहीं होगी इस शब्द से).खेर सोच सबकी बदलनी चाहिए इस सब में एसे पुरुष भी शामिल है जो बात को कहा से कहाँ पहुंचकर उसे तर्क कुतर्क के रस्ते पर धकेल देते हैं....बाकि आपकी अगली पोस्ट का इन्तेजार रहेगा...

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