17 January, 2013

मिर्ची लाइट्स से सजे शहर की उदासियाँ

बहुत अजीब थीं कि ये एक मिर्ची लाइट्स से सजे हुए शहर की उदासियाँ थीं...

मुश्किल होता होगा यूँ आँख मिचमिचाती रोशनियों को देख कर भी नहीं मुस्कुराना...लेकिन न तो ये किसी के ख्वाबों का शहर था न वो लड़की झूठी थी जो यहाँ के किस्से सुना रही थी. तो फिर मेरी जान, सूखे पत्तों पर उदास क़दमों से चलता ये लड़का क्या वाकई में था की नींद उठी आँखों को ख्वाबों का पता नहीं चला था.

बेरौनक यहाँ कोई चेहरा नहीं था, नूर से दमकती थीं इस शहर के पेड़ की शाखें...कि सो नहीं पाते थे पंछी रात भर अपने घोसलों में कि बिना परदे के घोंसले वाला सजायाफ्ता ये शहर मिर्ची लाइटों से सजा था. देर रात शहर की सड़कों पर आवारा घूमती रहती थी एक लड़की कि उसके बालों की लटों में रास्ता भूल गया था इस शहर से बाहर जाने का रास्ता. बहती हवा में उड़ कर आया था उसके बचपन का एक पुर्जा कि जिस पर लिखा हुआ था एक नाम जो उसे पुकारा करता था चाँद परछाई वाले पानी में से. लड़की कूद जाना चाहती थी गंगा में मगर उसके शहर से गुज़रता रेगिस्तान पी गया था उसके डूब मरने के हिस्से का सारा पानी. उसकी आँखों में हमेशा जिंदगी जलती बुझती रहती कि ये मिर्ची लाइटों में कैद उदासियों का शहर था...

उसे एक बार को हो गया था इश्क शहर के बरगद की सबसे ऊंची शाख पर रहने वाले परिंदे से...कि वो उसकी मुहब्बत में भूल जाती थी रास्तों को उनके शहर की ओर भेजना और शहर के सारे लोग भटक कर किसी और के घर चले जाते थे. फिर भी किसी के मेहमानखाने में जगह कम नहीं पड़ती थी कि शहर की औरतें जलाये रखती थीं चूल्हा रात के सारे पहर कि उन्हें मालूम होता था कि मुसाफिर दिल कभी खुद के घर का रास्ता भूल जाए मुमकिन है...तो वो हर अजनबी का ऐसी स्वागत करतीं जैसे उनका महबूब लम्बे सफ़र से वापस लौटा हो.

शहर की औरतों का आँचल उनके होठों के कोने में फंसा हुआ रहता था...कई बार लोगों का दिल भी कुछ यूँ ही अटक जाता था किसी की आधी मुस्कराहट के पास कहीं. अजनबियों से भरे हुए इस शहर में किसी ने नहीं पहने थे किसी और के चेहरे इसलिए यहाँ घूंघट दरम्यान रहता था...कोई किसी घर में दुबारा नहीं जाता था कि जब भी किसी और शहर से कोई शख्स यहाँ आता था तो उसका शहर भी फिसल कर इस शहर की सरहद में मिल जाता था. फिर उसके घर के लोग, दोस्त और दुश्मन इसी शहर में भटकते रहते थे...मुसलसल अपने घर का पता ढूंढते हुए.
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दिखता नहीं था कोई भी...साफ़ इस रौशनी में...कोई चेहरा नहीं होता था. ट्रैफिक के शोर में गुम थीं आवाजें...फिर ऐसी ही एक शाम थी...ऐसा ही एक शहर था...तुम्हें बड़ी शिद्दत से याद किया था. सुना उस रात बहुत तेज़ बारिश हुयी थी और खिड़की के पास रखी तुम्हारी डायरी बिलकुल भीग गयी थी...ये वही डायरी थी न जिसके आखिरी पन्ने पर मैंने साइन किया था?
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मेरा नाम भी कब तक याद रहना था तुम्हें...

02 January, 2013

हैप्पी न्यू इयर २०१३

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं ।
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नये साल में उम्मीदों की एक सुबह...
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नए साल में हम कैम्पिंग करने एक नदी किनारे गए थे. छोटे छोटे टेंट्स और खाने पीने का थोड़ा सामान.

शहर को पीछे छोड़ते हुए गाँव शुरू हो चुके थे...गाँव की भी आखिरी सीमा से एक पगडण्डी शुरू होती थी...उधर से आगे बढ़ते हुए दो छोटी पहाड़ियों के ऊपर कोई किलोमीटर से ऊपर का सफ़र था.

जब हम घाटी में पहुँचते तो जैसे पूरी दुनिया पीछे छोड़ आये थे. साथ थे ९ लोग...कुणाल और मैं, मोहित-नीतिका, कुंदन, चन्दन, साकिब और रमन और दिनेश.

कहीं से कोई शोर नहीं...कहीं एक इंसान नहीं दूर दूर तक...नए साल का कोई हल्ला नहीं, कोई फ़िक्र नहीं मुझे ऐसा ही शांत नया साल चाहिए था. एक बार नए साल में ताज गए थे...वहां डांस फ्लोर पर किसी ने हमारी दोस्त के साथ बदतमीजी की, एक बार नहीं कई बार...और ताज वालों ने उसे होटल से बाहर तक नहीं निकाला. हमें कम से कम ताज से ऐसी उम्मीद नहीं थी. लगा कि कम से वहां तो सेफ्टी होगी. उसके बाद कभी नया साल मनाने का उत्साह ही नहीं रहा. बाहर जाकर पार्टी और हल्ला करने की अब मेरी उम्र नहीं रही. मुझे अब बहुत शोर शराबा और नौटंकी करना अच्छा नहीं लगता है.

३१ की सुबह घर में दो रोटियां बनाने के बाद गैस ख़त्म हो गयी थी...सुबह से भूखे ही थे. दिन में ऑफिस का ये हाल था कि दस मिनट निकाल कर बगल की दूकान से एक पैकेट चिप्स ला के खाने की फुर्सत नहीं थी. सुबह से एक सेब खाया था बस. ढाई बजे बैंगलोर से निकले...और इस बार कार मैं ड्राइव कर रही थी. हमें पहुँचते पहुँचते पांच बज गए थे. भूख के मारे बुरा हाल था...फिर गरम गरम पकोड़े मिले खाने को...जान में जान आई. आलू और मिर्च के पकोड़े. हैंगोवर से बचने के नुस्खों में एक था...पहले कोई तली हुयी चीज़ खा लो...

कुंदन, कुणाल और चन्दन 
नदी किनारे एक राफ्ट बंधा हुआ था...तारे उग आये थे...मुझे खुले में सितारों के नीचे सोये बहुत वक़्त हुआ था. कौन सी बातें थी अब याद नहीं पर अच्छा लग रहा था. सबसे अच्छा लग रहा था कि सेफ महसूस कर रहे थे कि सब अपने लोग हैं. किसी तरह की टेंशन नहीं थी. अधिकतर नेटवर्क नहीं था तो कोई फोन करके परेशान भी नहीं कर सकता. देर तक मूंगफली खाते और भूंजा फांकते वक़्त कटा...फिर अलाव जलाया गया. अलाव के इर्द इर्द बैठे हुए हमने पहाड़ी के पीछे उगता चाँद देखा...पूरा जंगल चांदनी में नहा गया था. मैं फिर से ट्राईपोड ले जाना भूल गयी थी कम रौशनी में फोटो ऐसे खींचे जाते थे कि रेडी बोलते ही फोटोग्राफर समेत सारे सब्जेक्ट्स सांस रोक लेते थे. थोड़ी सी मूवमेंट से भी फोटो ब्लर आ जाती थी.

रात को थोड़ा डांस थोड़ा गाना...थोड़ा चिल्लाना...थोड़ा थोड़ा करके सब बहुत हो गया. सुबह ६ बजे नेचर वाक पर जाना था. मोहित का हल्ला कि मैं सबको उठा दूंगा...चार बजे सो कर ६ बजे तो सब उठने से रहे लेकिन हल्ला करने में सब रेडी...

सात बजे मेरी नींद खुली तो बाकी किसी टेंट में कोई हलचल नहीं दिख रही थी. सुबह का समय, सब एकदम शांत था. कैमरा, अपनी नोटबुक, पेन तीनो उठा कर वहीं नदी किनारे चली गयी. सूरज का रंग फीका था और नदी का पानी रूपहला. हर साल की शुरूआती आदत...डायरी लिखना. सो कुछ तसवीरें खींचीं, एक आध गिलास पानी टिकाया और फिर जैसे धूप गरमाती गयी खुद के साथ थोड़ा वक़्त बिताया. नेरुदा की किताब ट्वेंटी पोयम्स ऑफ़ लव एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर नयी डिलीवर हुयी थी फ्लिप्कार्ट से. कुछ कवितायें पढ़ीं. कोई अख़बार नहीं...कोई मेल नहीं...कोई एसएमएस नहीं. कभी कभी जीने के लिए दुनिया से कटना भी जरूरी होता है. सुबह की कॉफ़ी तैयार हो रही थी. नौ बजते बजते बाकी लोग उठे.

दिन का मेन अट्रेक्शन था लाइफ जैकेट पहन कर नदी में 'डेड मैन फ्लोट' करना. अधिकतर को तैरना नहीं आता था. नदी में थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी गर्म और ठंढा था. हम कितनी देर तो नदी में ही रहे. फिर खाने का कोई इन्तेजाम नहीं था तो एक डेढ़ बजे निकले...भूख लगनी शुरू हो गयी थी. रस्ते में जहाँ से घाटी दिखती थी एक राउंड फोटो सेशन चला. बैंगलोर पहुँचते चार बज गए थे. खाने पर हम इस तरह से टूटे जैसे एक साल के भूखे हों. चाइनीज...थाई...इन्डियन...जिसने जो मंगाया, सबने खाया. कोई पच्चीस रोटियां, पांच प्लेट चाव्मीन, एक प्लेट चावल, एक थाई ग्रीन करी, पांच चिली पनीर...कहाँ गया किसी को मालूम नहीं.

घर पर आराम करने के मूड में आये कि पेट में दर्द शुरू. मुझे शिमला मिर्च से अलर्जी है...हमेशा प्रॉब्लम नहीं होती...पर जब होती है जान चली जाती है. और दर्द कभी दिन में शुरू नहीं होता...रात में होता है कि हॉस्पिटल में भी इमरजेंसी में जाना पड़े. कल भी आसार बुरे दिख रहे थे. दर्द के मारे जान जा रही थी उसपर डि-हाईड्रेशन. पता नहीं कितना तो ओआरएस पिया और कोई तो टैबलेट खायी. अभी सुबह उठी हूँ तो लगता है पुर्जा पुर्जा दर्द कर रहा है. बुखार बुखार सा लग रहा है...ऑफिस में इनफाईनाईट काम है...गैस ख़त्म है सो उसका इन्तेजाम करना है...कुणाल की मौसी-मौसाजी और बच्चे आये हैं तो रात का कुछ अच्छा खाना बनाना है. बाप रे! दिन बहुत लम्बा लग रहा है और चलने की हिम्मत नहीं. कल रात दोनों बच्चों को माइक्रोवेव में मैगी बना कर खिलाये थे. आज पता नहीं नाश्ता का क्या करेंगे. दस बजे टाइप्स गैस एजेंसी खुलेगी. बाबा रे...पैक्ड डे अहेड!

१३ मेरा लक्की नंबर है. देखे ये साल क्या रंग दिखाता है...नए साल में नयी उम्मीदें...नए सपने...आप सबको भी हैप्पी न्यू इयर. 

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