16 May, 2013

मकबरे के दोनों बुत एक दूसरे का चेहरा देखते सोये थे


वो बहुत जोर से इस बात पर चौंका था कि मैंने कभी कोठा नहीं देखा था...किसी तरह का चकला, कोई बाईजी का घर नहीं. मैं इस बात पर परेशान हुयी थी कि उसने क्यों सोचा कि मैंने कोठा देखा होगा...शायद उसे मेरी उत्सुकता और मेरे पागलपन से कुछ ज्यादा ही उम्मीद थी. मुझे याद है मैंने हँसते हुए कहा था...कोठे में मेरे लिए क्या होगा...मैं तो लड़की हूँ. इस बात पर हद गुस्सा हुआ था मुझपर...बेवक़ूफ़ लड़की...मैं तुम्हारे लड़की होने की नहीं, लेखक होने की बात कर रहा हूँ...तुम लिखती हो फिर भी कभी तुमने देखने की जरूरत नहीं समझी...देश, विदेश इतनी जगह घूमी हो, कभी नहीं...चलो इस बार मेरे शहर आना, मैं तुम्हें ले जाऊँगा कोठा दिखाने. 

लोग प्यार में ताजमहल दिखाने की बात करते हैं...ये मैं किससे प्यार कर बैठी थी इस बार...और उसे किस कमबख्त से प्यार हो गया था. हम तकलीफों के तोहफे देते थे एक दूसरे को...हमारा हर दर्द दुगुना होता था, एक अपने लिए और एक उसके हिस्से का दर्द भी तो जीते थे हम. एक पुरानी मज़ार थी शहर के किन्ही उजड़ चुके हिस्से में. बेहद पुरानी ईटें और उनमें खुदे हुए कैसे कैसे तो नाम...हमारा पसंदीदा शगल था कहानियां बुनना. साल के किसी हिस्से हमें वहां जाने की फुर्सत मिलती थी...हम किसी ईंट पर लिखे नामों को लेते और उन किस्सों को, उन किरदारों को बुनते रहते...मैं लड़के का किरदार बनाती, वो लड़की का...हम अक्सर इस बात पर भी लड़ते कि जो नाम लिखे हैं वो लड़के ने लिखे हैं कि लड़की ने...ऐसा कम ही होता कि नाम दो हैण्डराईटिंग में होते. 

मेरी अपनी जिंदगी थी...उसका अपना काम...अपना परिवार जिसमें एक माँ, दो कुत्ते, एक पैराकीट और अक्वेरियम की बहुत सी मछलियाँ शामिल थीं. दोनों का काम ऐसा था कि हम शहर में होते ही नहीं. वो एक स्पोर्ट्स फोटोग्राफर था मैं एक इंडिपेंडेंट डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर. उसे रफ़्तार पसंद थी...मेरे पास अजीब आंकड़े लेकर आया करता था...जितने देश गया वहां के चकलाघरों के किस्से ले कर लौटा...मुझे बताता था कि औसत कितना वक़्त लगता है एक लड़की को एक ग्राहक निपटाने में...किस देश की वेश्याएं सबसे ज्यादा टाइम-इफिशियेंट हैं. जिन देशों में वेश्यावृत्ति लीगल है वहां की औरतों और यहाँ की औरतों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. वो मुझे कितनों के किस्से सुनाता, उनके नाम...उनकी तसवीरें...उनकी कहानियां. तुम्हारे जाने से उनका कितना वक़्त ख़राब होता है तुम्हें मालूम है? उनका कितना नुक्सान कर देते हो तुम. मगर उसे सनक थी...दिन को जाता और उनके लिए ख़ास फोटो-शूट रखता. मैं उसका एल्बम देखते हुए सोचती जिस्म पर इतने निशान हैं तो आत्मा पर जाने कितने होते होंगे. उनमें अधिकतर ड्रग लेती हैं. अपने जिस्म से भाग कर तो नहीं जाया जा सकता है कभी. 

फिर वैसे भी दिन होते जब हम कोई तितलियों सी रंग-बिरंगी कहानी रचते, मगर उसे मेरी कहानियों के अंत पसंद नहीं आते...वो कहता जिंदगी में कभी हैप्पी एंडिंग नहीं होती, ऐसा सिर्फ फिल्मों में होता है. उसके जाने के बाद मुझे उसकी कही कोई बात याद नहीं रहती. कई बार तो यकीन नहीं होता था कि मैं वाकई उससे मिली भी थी. उसकी याद लेकिन हर जगह साथ चलती थी. यूँ याद करने को था ही क्या...एक उसकी आँखों और एक वो लम्हा जब हम जाने किसकी तो बात करते ऐसे उदास और तनहा हो गए थे कि लग रहा था पूरा मकबरा मेरे ऊपर गिर पड़ेगा...उसने कहा था 'यू नीड अ हग' और मुझे अपनी बांहों में समेट लिया था. मैंने उस लम्हे को रेजगारी वाले पॉकेट में डाल दिया था. मैंने कितने शहरों में उस लम्हे को खोल कर देखा...कितने लोगों के साथ उस लम्हे को साझा किया मगर उसका जादू कहीं नहीं जाता. 

इस साल हमें एक दूसरे से मिलते हुए दस साल हो जायेंगे...यूँ हमारे बीच रिश्ता कुछ नहीं है सिवाए इस यकीन के कि हम अगर एक शहर में हैं तो एक फोन कॉल की दूरी पर हैं, एक देश में हैं तो एक सरप्राइज की दूरी पर हैं और अगर इस दुनिया में हैं तो एक विस्की ग्लास की दूरी पर हैं...किसी लम्हे...किसी शहर...किसी देश...हम अपने लिए एक ऑन द रॉक्स बनाते हैं तो आसमान की ओर उठा कर कहते हैं...जानेमन...आई लव यू.
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ताजमहल को देखता हुआ शाहजहाँ क्या सोचता होगा? किसी की याद में पत्थर हो जाना भी कुछ होता है क्या? पुराने किले से चलती हवा में किसका नाम आता है? उसके नाम के बाद मेरा नाम लिख दो तो कैसा लगेगा देखने में? उसका नाम कैसे भूल जाती हूँ मैं हर बार...मज़ार पर भटका हुआ, दिया जलाने हो हर शाम आता है, सफ़ेद बाल और लम्बी दाढ़ी वाला, कमर से झुका लाठी के बल पर चलता बूढ़ा...नाम क्या है उसका...और मेरी कहानी में ये कौन सा किरदार आ गया...ऐसे हो नहीं ख़त्म होनी थी कहानी...सब ख़त्म होने के समय जो कहानी शुरू होती है...वो कब ख़त्म होती है? तुम्हारे शहर में मेरे नाम से कोई मकबरा है? नहीं...तो मेरे मरने का इंतज़ार कर रहे हो मकबरा बनवाने के लिए...अच्छा, क्या कहा...तुम मुझसे प्यार ही नहीं करते...यु मीन मेरे मर जाने के बाद मुझसे प्यार नहीं करोगे...ओफ्फो...कहानी ख़त्म हुयी...ये ट्रेलर ख़त्म करो मेरी जान. 

दी एंड...

(btw, you know I hate the three dots)

15 May, 2013

जंकयार्ड डायरीज

तुम कोई उदास कविता नहीं हो कि तुम्हारे खो जाने पर आंसू बहाए जाएँ...तुम तो जिंदगी का रस हो, राग हो, नृत्य हो...तुम्हारे होने से धूप निकलती है...तुम पास होते हो तो जैसे सब कुछ थिरक उठता है...अब किसी दिन ऐसी ही कोई धुन गुनगुनाते आओगे कि पाँव रुक नहीं पायेंगे तो मैं क्या करूंगी बताओ...फिर कभी कभी सोचती हूँ बड़ी खूबसूरत चीज़...सोलह साल की लड़की होती है तो सोचती है...क्या वो मुझसे प्यार करता है...नहीं करता है...कुछ भी महसूस करता है मेरे लिए...मगर ३० की उम्र पहुँचने पर ऐसी छोटी चीज़ों में वक़्त जाया नहीं करते, इसलिए मैं तुम्हें कह सकती हूँ...डांस विद मी...मुझे जो चाहिए उसके बारे में अब दुआएं नहीं करती...तुमसे पूछ सकती हूँ और अगर तुम ना कह दो तो मैं उस लम्हे को वहीँ बिसार कर आगे बढ़ जाउंगी. मेरी फितरत नदी के विपरीत सी होती जा रही है. पहले तो समंदर के पास की नदी जैसा कुछ ठहराव था मगर अब पहाड़ी नदी जैसा बाँध तोड़ता बहाव है. मैं रुक नहीं सकती...ठहर नहीं सकती...मुझसे प्यार है तो मेरे साथ बह जाओ वरना नदी किनारे अनेक सभ्यताओं के बसने के निशान हैं...तुम भी किसी विस्मृत सभ्यता जैसे हो जाओगे जिसका बचा हुआ टुकड़ा टुकड़ा मिलेगा, पूरा कुछ कभी नहीं हो पायेगा...वो शब्द जो तुमने मुझसे कहे ही नहीं कोई ऐसी लिपि हो जायेगी जिसे सुलझाते पुरातत्त्वेत्ता उम्र गुज़ार देंगे.

जब हमें बहुत सी बात छुपानी होती है तो या तो हम बहुत चुप हो जाते हैं या बहुत बोलते हैं...इतनी सारी बातों में वो बात भी खो जाती है जो हम कहना चाहते तो हैं मगर सिर्फ एक उस बात को कहने में डरते हैं. आई लव यू ऐसी ही कोई शय है...दुनिया जहान की बातें करते हुए...फिल्मों पर बहस करते हुए...तुम्हारे पसंदीदा लेखक की कोई कविता पढ़ते हुए कहोगे मुझसे...मैं जानती हूँ...वैसे ये शब्द हैं भी काफी खतरनाक, इन्हें बाकी शब्दों के ककून में ही लपेट कर रखना चाहिए. बिना दस्ताने की उँगलियों से छू लो तो फ्रॉस्टबाईट हो सकता है. अगली बार मेरे गले लगो तो गौर से महसूस करना...मेरे गुडबाय में आई लव यू की खुशबू आती है. तुमने यूँ तो बहुत विदा के गीत सुने होंगे...आजकल किस गीत से गुज़र रहे हो? वो लैम्पशेड याद है जो हमने मिल कर बनाया था? हर रंग के रिबन में लपेट कर कांच की चूड़ियों संग...ड्रीम कैचर जैसा दिखता वो लैम्पशेड तुम्हारे ख्वाबों को रोशनी से भरता है क्या?

तुम्हारा प्यार किसी सोलर लैम्प जैसा है...जब तुम होते हो तो तुम्हारी मुस्कुराहटें सहेज कर रख देता है...बारिशों वाले दिन के लिए और जैसा कि बैंगलोर का मौसम है, इस लैम्प की अक्सर जरूरत पड़ती है. फिर इस मुस्कुराते उजाले में मैं शैडो डांस करती रहती हूँ...मेरी परछाई मुझसे कहीं ज्यादा डार्क और मिस्टीरियस है...कई बार तो मुझे अपनी परछाई खुद से ज्यादा अच्छी लगती है. 

सोच रही थी कि लोगों को कभी चीज़ों से नहीं जोड़ना चाहिए...लोग चले जाते हैं पर वो इनऐनीमेट चीज़ें कतरा कतरा जान लेती रहती हैं. मैं उन सारी चीज़ों से दूर नहीं भाग सकती जो तुम्हारे साथ रहते हुए मुझे अच्छी लगती थीं. वाईट लिली...वाईट चोकोलेट...वाईट फॉक्स मिंट...वाईट अल्ट्रा माइल्ड सिगरेटें...मेरी वाईट शर्ट...कमरे में आता सफ़ेद धूप का संगमरमर के सफ़ेद फर्श पर गिरता पहला टुकड़ा. तुम सफ़ेद रंग हो...तुमसे सारे रंग की रोशनियाँ निकलती हैं. 

खैर जाने दो...ऐवें ही कुछ कुछ लिखने का मन कर रहा था...बहुत सारा वर्कलोड होता है तो दिमाग में कुछ शब्द फँस जाते हैं...इन्हें लिखना जरूरी होता है वरना कुछ नया लिखने में दिक्कत होती है. जंकयार्ड डायरीज... ऐसा ही कुछ लिखने के लिए होती हैं. कल कोई तो कहानी लिखने का मन कर रहा था...फिर कभी...आज फिर ऑफिस को देर हो जायेगी...लिखेंगे बाकी वाकया ऐसे ही. आजकल लिखना प्यार की तरह हो गया है...भागते दौड़ते, दो मिनट निकाल कर लिखते हैं...बहरहाल...ओके...टाटा...लव यू...बाय. 

13 May, 2013

तुम सी बस एक है मेरी जान, तोश्का

मैं उसका नाम तोश्का नहीं रखना चाहती थी...कि इस नाम में बहुत सारी उदासी थी...लेकिन मुझे मालूम ही नहीं चला कब एक शब्द से उठ कर वो एक जीती जागती जिद्दी लड़की बन गयी...रशियन...नीली आँखों और दो सुनहली चोटियों वाली लड़की को ऐसा कौन सा गम था कि मेरी जान खा गयी कि मेरी कहानी लिखो.

पहली बार इस शब्द के सामने पड़ी थी तो लगा था कि ये मेरा नाम होना था...तोस्का...लेकिन दन्त स में वो बाद नहीं आती जो तालव्य श में आती है. श से कशिश आती है, कुछ मेरे पसंदीदा शब्दों में श होता है...इश्क, रश्क, अश्क, खानाबदोश, तलाश, पलाश...जाने और कितने सारे. स से श हो जाना कुछ वैसे था जैसे आप किसी के प्यार में होते हैं तो उस नाम को एक ख़ास लहज़े में पुकारते हैं...नाम वही होता है मगर महबूब के होटों पर अजीब से नशे में लिया हुआ लगता है. दरअसल आप सिर्फ उसका नाम नहीं लेते हैं...हर बार उसका नाम लेते हुए अपना एक हिस्सा जोड़ देते हैं उसमें...जैसे मैंने उसका नाम पुकारते हुए 'इश्श्श' सा कुछ कहा. सबसे छुपा के उसका नाम लिखा जैसे...चुपचाप जैसे चिरमिरा के फूलों में छिपी हुयी तितली.

उस रोज़ आसमान सियाही हो गया था और मेरी कहानी लिखने को जरा भी रौशनी नहीं बची थी. हवा ने खुद को वैसे रोक रखा था जैसे तुम्हारे आने पर मैं अपनी तेज़ होती साँसों को रोक के रखती हूँ. समंदर के पास का मौसम था कोई...बेहद गर्म और उमस से भरा हुआ. मेरे आसपास की चीज़ों में कोई कलात्मकता नहीं थी...वे इस मशीनी युग की बनी चीज़ें थीं जिन्हें कभी किसी कामगार ने हाथ भी नहीं लगाया था. उनमें कोई आत्मा नहीं थी. मुझे तुम्हारे लिखे प्रेमपत्र याद आ रहे थे, मुझे वो वक़्त भी याद आ रहा था जब खेलते हुए पहली बार तुमने धूल में अपना और मेरा नाम एक साथ लिखा था.

मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि तोश्का ने जब लिखना सीखा था तो उसने अक्षर नहीं सीखे थे...उसने सबसे पहले तुम्हारा नाम लिखना सीखा था. फिर एक वाक्य कि वो तुमसे प्यार करती है...इतने के बाद उसने खुद को जानने की कोशिश की होगी. तोश्का वैसी लड़की है जिसने आइना शायद कभी देखने की जरूरत ही नहीं समझी. तुम मेरे आसपास कहीं रहते जहाँ मैं रोज़ तुम्हें देख सकती तो मैं भी आइना नहीं देखना चाहती कभी. मगर होता ऐसा है कि तोश्का को हर उस चीज़ से प्यार होने लगता है जिससे तुम्हें प्यार है और इस सिलसिले में वो खुद को जानने की कोशिश करती है.

तोश्का बंजारन है...उसे जमीन से नहीं सफ़र से प्यार है. नदियाँ भी प्यासी होती हैं न...वैसी है तोश्का...प्यास का सान्द्र रूप...नदी का सान्द्र रूप...वो हवा को चूम लेती है तो शहर के लोग दीवाने हो जाते हैं. तोश्का...समंदर किनारे चलती जाती है...उसकी घेरदार स्कर्ट भीगती है तो तोश्का का गीत समंदर की सीपियों में परत दर परत जमा होने लगता है. हथेलियों में एक अंजुरी भर पानी आसमान की ओर उछालती है तो दूर हिमालय के सीने में बसे शहरों में मीठे पानी की बरसातें होती हैं.

तोश्का...एक बरसातों के पहले उगने वाली लड़की है, जब आसमान बिलकुल सियाह हो जाता है तो  इसी सीली गहरी उदासी से खुद को रचती है वो. उसकी आँखों में कितने सूरज डूब जाते हैं मगर वो ग्रहण के बाद के चाँद जितनी रौशनी भी नहीं मांगती है. उसकी पसंद का संगीत रचने के लिए इश्वर को वाद्ययंत्र उठाना पड़ता है...कभी पियानो, कभी गिटार कभी जलतरंग.

तोश्का को इश्क से प्यार हो गया है...मेरी कहानियों के इश्क से...थोड़ा जिद्दी, थोड़ा पागल...हद दर्जे का मनमौजी... बदतमीज...दुष्ट...मैंने तो उन्हें मिलाया भी नहीं था मगर किस्मत भी कोई शय है. अब मैं उस रोज़ से डरती हूँ जब इश्क मेरी प्यारी तोश्का का दिल तोड़ देगा और मुझे उसे सम्हालना होगा. मैं तोश्का को बता तो नहीं सकती न कि इस कमबख्त, नामुराद इश्क से मुझे भी प्यार हो रखा है और क्यूँ न होता...मैंने उसे अपने लिए ही तो रचा था...मगर वो एक नंबर का दिलफेंक आशिक निकला. मेरी लिखी सारी कहानियों में जबरन अपना रोल लिखवा लेता है.

बहरहाल, तोश्का मेरी जान...मेरी दुआएं तेरे साथ...और या खुदा...मेरे हिस्से की दुआएं लिखने के लिए किसी को अलॉट कर!

12 May, 2013

तुम्हें इजाजत है


वो मुझे ऐसे गले लगाता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ...जरा से जोर से टूट जाउंगी...बिखर जाउंगी किरिच किरिच. जितने से मेरी जान चली जाए, उससे बस एक लम्हा ज्यादा रखता है अपनी बांहों में. ऐसा क्यूँ महसूस होता है कि उसने मेरी रूह को छू लिया है? ठीक उस लम्हे, मैं जानती हूँ...मुझे उसे जाने की इजाज़त दे देनी चाहिए.

पहले मुझे लगता था उसके आने का नियत मौसम है. वो हर साल नवम्बर से दिसंबर के बीच कभी आएगा. मगर वो बैंगलोर की बारिश की तरह मूडी होता चला गया है. अब उसके आने का कोई नियत वक़्त नहीं है. हमेशा बिना किसी नोटिस के आता है. ये नहीं कि आने के पहले कोई हिंट दे दे कि मैं तैयार रहूँ...वैसे में चोट ऐसे तो नहीं लगेगी. ऑफिस में काम कर रही हूँ या किसी मीटिंग में हूँ...बात करते करते देखती हूँ तो जिंदगी का फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस गड़बड़ा जाता है, ऐसे उसने आने को प्रोसेस नहीं कर पाती है आँखें. दिल पे हाथ रख कर इतना ही कह पाती हूँ...तुम मेरी जान ले लोगे किसी दिन, कसम से.

कभी किसी बहुत बारिशों वाले डिप्रेशन के दिन इस गुलमोहरों वाले शहर में टहलने निकली होती हूँ...एक मिलीजुली गंध होती है...मिट्टी में गिरे फूलों की पंखुड़ियों की. ऐसे में सिगरेट के लम्बे कश खींचती हूँ...कहीं अपनी साँसों को वैलिडेट करती हुयी. लगता है जैसे सांस ली नहीं जा रही तो उस खालीपन को सिगरेट के धुएं से रंगती हूँ...फिर हर सांस महसूस होती है. मेरी पसंदीदा चीज़ों में बारिश रुक जाने के बाद की सिगरेट है. यूँ भी मुझे सिगरेट पीते हुए किसी की कंपनी पसंद नहीं है. तो जब हवा में बेतरह नमी होती है...मूड कुछ अनसुलझा होता है तो मैं कहीं बाहर होती हूँ...ऐसे में उसकी तलाशती नजरें मिलती हैं...सिगरेट के धुएं के उस पार...और वो मुझे देखते ही बाँहें खोल देता है...मैं चाहती हूँ कि अहतियात से उससे गले मिलूं...कि उँगलियों में सिगरेट फँसी हुयी है...कि सीने में सांस अटकी हुयी है...कि दिल की धड़कन...बारिश के बाद किसी पेड़ की डाली को पकड़ कर हिला दो तो पत्तों पर अटकी सारी बूँदें बौछार की तरह गिरेंगी...वैसे ही भीगती हूँ मैं ... अचानक ... सराबोर.

'माय सनशाइन, खुश हो मेरे मौसमों का रंग बदल कर?'. सिगरेट बुझा दी है मैंने. उसके होते हुए मुझे हमेशा यकीन होता है कि मैं हूँ. उसके साथ चलने से कितनी कैलोरीज बर्न होती होगी सोचती हूँ...दिल इतनी तेज़ तो आधे घंटे की जॉगिंग के बाद धड़कता है. साथ चलते हुए तकलीफ ये है कि मैं उसका चेहरा नहीं देख पाती हूँ...मैं किसी जगह उसके साथ थोड़ा वक़्त बिताना चाहती हूँ जहाँ मैं उसे देख सकूं...वो किसी धूमकेतु की तरह है...इतने कम वक़्त के लिए दिखा है कि उसका चेहरा ठीक से याद नहीं लेकिन हर बार जब वो दिखा है मेरी पूरी दुनिया टॉप्सी टरवी कर गया है. वो चुटकी बजाता है और सितारे घबरा कर उसे जगह दे देते हैं...मेरा हाथ अपने हाथ में लेता है तो लकीरें उसकी मन मुताबिक बदल जाती हैं.

मैं उसको लेकर पजेसिव नहीं हूँ. पूछती हूँ उससे कि अब मेरी उम्र हुयी...उसके लिए तो दुनिया की सारी सोलह साला लड़कियां पलकें बिछा कर इंतज़ार कर रही हैं, वो मेरे लिए फुर्सत कैसे निकालता है...क्यूँ निकालता है...इश्क कुछ कहता नहीं...उसकी मुस्कुराहटों में बहुत से राज़ छुपे हैं...मैं देखती हूँ उसे, एक पूरी नज़र...इस साल्ट-पेपर हेयर पर कितनी लड़कियां फ़िदा होती होंगी...उम्र हो गयी है अब उसकी भी. कहीं न कहीं दर्द की एक बारीक रेखा भी दिखती है उसकी आँखों के इर्द गिर्द. मैं उसका हाथ अपने हाथों में लेती हूँ...मैं जानती हूँ. उसकी कद्र अब पहले जैसी नहीं रही. आजकल कितने तरह का गुबार लोग इश्क पर निकालते हैं. दिल टूटने पर भी मैंने इश्क को कभी बुरा-भला नहीं कहा बल्कि हम पुराने दोस्तों की तरह हर हार्ट ब्रेक के बाद साथ ड्रिंक पर चल देते थे. मैंने जब उसके होने की दुआ मांगी थी तभी उसने वादा किया था कि वो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा.

वो बहुत अहतियात से मुझे बरतता है क्यूंकि उसे मालूम है उसके आने से मुझे बेहद तकलीफ होने वाली है...वो बड़े अहतियात से जहर का प्याला मेरी ओर बढ़ाता है. विस्की में घुला धीमा जहर. उसके रहते हुए रगों में घुलना शुरू करता है. मैं इश्क की ओर हाथ बढ़ाती हूँ...

वो मुझे ऐसे गले लगाता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ...जरा से जोर से टूट जाउंगी...बिखर जाउंगी किरिच किरिच. जितने से मेरी जान चली जाए, उससे बस एक लम्हा ज्यादा रखता है अपनी बांहों में. ऐसा क्यूँ महसूस होता है कि उसने मेरी रूह को छू लिया है? ठीक उस लम्हे, मैं जानती हूँ...मुझे उसे जाने की इजाज़त दे देनी चाहिए.

10 May, 2013

जरा सा पास, बहुत सा दूर

इससे तो बेहतर होता कि वे एक दूसरे से हजारों मील दूर रहते. ऐसे में कम से कम झूठी उम्मीदें तो नहीं पनपतीं, हर बारिश के बाद उसको देखने की ख्वाहिश तो नहीं होती. ऊपर वाला बड़ा बेरहम स्क्रिप्ट राइटर है. वो जब किरदार रचता है तो मिटटी में बेचैनी गूंथ देता है. ऐसे लोगों को फिर कभी करार नहीं आता.

इस कहानी के किरदार एक दूसरे से २०० किलोमीटर दूर रहते हैं. एक बार तो सोचती हूँ कहानी को किसी योरोप के शहरों की सेटिंग दे दूं...वहां शहर इतने खूबसूरत होते हैं...बरसातों में खास तौर पर. लेकिन उस सेटिंग में मेरे किरदार नैचुरल नहीं महसूस करेंगे. उनके अहसासों में एक अजनबियत आ जायेगी. यूँ मुझे वियेना और बर्न बहुत पसंद है. पर उनकी बात फिर कभी.

उन दोनों के शहरों के बीच हर तरह की कनेक्टिविटी थी. बसें चलती थीं, ट्रेन थी, हवाईजहाज थे और उन्हें जोड़ने वाला हाइवे देश का सबसे खूबसूरत रास्ता माना जाता था. वो रहता था सपनों के शहर मुंबई में और वो रहती थी बरसातों के शहर पुणे में.

आज किरदारों का नाम रख देती हूँ कि कुछ तसवीरें हैं ज़हन में...तो मान लेते हैं कि लड़के का नाम तुषार था. किसी सुडोकु पजल जैसा था लड़का, सारे खानों में सही नंबर रखने होते थे जब जा कर उसके होने में कोई तारतम्य महसूस होता था वरना वो बेहद रैंडम था और जैसा कि मेरी कहानी की लड़कियों के साथ होता है, उसके नंबरों से डर लगता था. वो उसे सुलझाना चाहती थी मगर डरती थी. हालात हर बार ऐसे होते थे कि वो मिलते मिलते रह जाते थे. वे सबसे ज्यादा ट्रैफिक सिग्नलों पर मिलते थे, जिस दिन किस्मत अच्छी होती थी उनके पास पूरे १८० सेकंड्स होते थे.

एक लेखक ने अपनी किताब का कवर सरेस पेपर का बनवाया था ताकि उसके आसपास रखी किताबें बर्बाद हो जायें. तुषार ऐसा ही था, उसे पढ़ने की कोशिश में उँगलियाँ छिल जाती थीं. उसके ऊपर कवर लगा के रखना पड़ता था कि उसके होने से जिंदगी के बाकी लोगों को तकलीफ न हो. गलती मेरी ही थी...मैंने ही ऐसा कुछ रच दिया था कि लड़की को कहीं करार नहीं था.

लड़की कॉफ़ी में तीन चम्मच चीनी पीती थी, तुषार ने उसके होटों का स्वाद चखने के लिए उसके कॉफ़ी मग से एक घूँट कॉफ़ी पी ली थी, मगर उसने लड़की ने इतना ही कहा कि मुझे देखना था तुम इतनी मीठी कॉफ़ी कैसे पी पाती हो. तुषार को ब्लैक कॉफ़ी पसंद थी, विदाउट मिल्क, विदाउट शुगर. लड़की ने वो कॉफ़ी मग अपनी खिड़की पर रख दिया था. उसे लगता था जिस दिन कॉफ़ी मग बारिश के पानी से पूरा भर जाएगा उस दिन उसे तुषार के साथ बिताने को थोड़ा ज्यादा वक़्त मिलेगा.

दोनों शहर इतने पास थे कि दूर थे...और ये ऐसी तकलीफ थी कि सांस लेने नहीं देती. लड़की सोचती कि ऐसे मौसम में मुमकिन है कि वो वाकई आ सके. तीन घंटे क्या होते हैं आखिर. वो छत के कोने वाले गुलमोहर के नीचे खड़ी भीगती और सोचती बारिशों में तेज़ ड्राइव करना जितना खतरनाक है उतना ही खूबसूरत भी, या कि खतरनाक है इसलिए खूबसूरत भी. एक्सप्रेसवे पर गहरी घाटियाँ दिखतीं थें और उनसे उठते बादल. दोनों उसी रास्ते से विपरीत दिशाओं में जाते हुए मिलते. तुषार उसका गहरा गुलाबी स्कार्फ पहचानता था. ऐसा हर बार होता कि जब तुषार का पुणे आने का प्रोग्राम बनता, लड़की को बॉम्बे जाना होता. वे तकरीबन एक ही समय खुश हो कर एक दूसरे को फोन करते कि अपने शहर में रहना. जब उनकी गाड़ियाँ क्रोस करतीं लड़की अपना स्कार्फ हिला कर उसे अलविदा कहती थी.

इतनी दूरी कि जब चाहो उससे मिलने जा सको लेकिन उतना सा वक़्त न मिले कभी, धीमे जहर से मरने जैसा होता है. फिर भी कभी कभी उनके हिस्से में कोई बारिश आ जाती थी. कैफे में बैठे, अपने अपने पसंद की कॉफ़ी पीते हुए वे सोचते कि जिंदगी तब कितनी अच्छी थी जब एक दूसरे से प्यार नहीं हुआ था. या कि वे दोनों बहुत दूर के शहर में रहते जब आने की उम्मीद न होती...या कि एक दूसरे को सरप्राईज देने के बजाये वे प्लान कर के एक दूसरे के शहर आते. लड़की के सारे दोस्त भी तुषार के साथ मिले हुए थे...तो अक्सर उसे उसकी किसी दोस्त का फोन आता कि कैफेटेरिया में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ और वहां तुषार मिलता. कभी कभी लगता कि अचानक उसे देखने की ख़ुशी कितना गहरा इंतज़ार दे जाती है कि वो हर जगह, हर वक़्त उसे ही तलाशती फिरती है.

वे अक्सर टहलने निकल जाया करते थे. घुमावदार गलियों पर, सीढ़ियों पर, शीशम के ऊंचे पेड़ों वाले रस्ते पर...तुषार दायें हाथ में घड़ी बांधता था और लड़की बायें हाथ में, अक्सर उनकी घड़ियों के कांच टूटते रहते थे. उन्हें कभी हाथ पकड़ के चलना रास नहीं आया. अक्सर जब ऐसा होता था तो वे ध्यान से अपने चलने की साइड बदल लेते थे.

इस कहानी में बहुत सारा इंतज़ार है...उन दो शहरों की तरह जो अपनी सारी बातें सिर्फ उनको जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे के माध्यम से कर पाते थे. कहानियों को फुर्सत होती है कि वे जहाँ से ख़त्म हों, वहां से फिर नयी शुरुआत कर सकें. मैं उन्हें इसी मोड़ पर छोड़ देती हूँ...जहाँ प्यार है और इंतज़ार है बेहद. उम्मीद नहीं है क्यूंकि ख्वाहिश नहीं है. दोनों अपने अपने शहरों से भी उतना ही प्यार करते हैं जितना कि एक दूसरे से.

बेचैनी के इस आलम में सुकून बस इतना है कि दोनों जानते हैं कि हर बारिश में यहाँ से कुछ दूर के शहर में रहने वाला कोई उनसे प्यार करता है और चाहता है कि वो एक्सप्रेसवे पर २०० की स्पीड से गाड़ी उड़ाता हुआ उनके पास चला आये.जीने के लिए इतना काफी है.

03 May, 2013

सिगरेट सी तुम्हारी उँगलियों के/ फीके बोसे हम चखेंगे

We are the people in search of a 'Refuge'. That eternal dwelling place where we find peace.
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हम पनाह तलाशते हुए लोग हैं.

खानाबदोश...हम किसी ज़मीन के अहसानमंद नहीं. हम प्यासे, पानी की खोज में जमीनों को मारे मारे फिरते लोग हैं.

हमारी मुट्ठियों में बस पानी की मरीचिका है. हम बेदखल किये लोग हैं. अपनी जमीनों से बेदखल, हम दुनिया में एक ठिकाना तलाशते हैं. हमारे हिस्से की ज़मीनों पर उग आये कारखाने, हमारे हिस्से की ज़मीन धंस गयी खदानों में. कोलियरी के काले चूरे में खोये हुए हम बदकिस्मत नहीं...बे-किस्मत लोग हैं. अपनी ही ज़मीं पर बेगारी खटते, अपने खोये हुए जंगल से निकले हम बंजारे लोग हैं. हमारे साथ ही खो जाएगा संथाल प्रदेश का सारा सौन्दर्य...हमारी औरतें भी सीख लेंगी करना पर्दा और हम भूल जायेंगे नृत्य की थाप. हम अपने आप को कहीं दिहाड़ी मजदूरी करते पायेंगे...हम बनायेंगे दूसरे शहरों में अट्टालिकाएं और भूल जायेंगे मिट्टी के घरों पर उकेरना ताड़ और बांस के पेड़.

हमारे हिस्से की मुहब्बत लिख दी गयी किसी और के नाम...हम कहाँ जी सके अपने हिस्से का हिज्र...हमने कहाँ की कभी अपने हिस्से की शिकायतें...न भेज ख़त हमें बेरहम...हमने कभी कासिद को अपना नाम भी कहाँ बताया...हम एकतरफा इश्क करने के तरफदार अपनी ही ख़ामोशी में घुटते गए...हमने कब कहा उनसे कि आपके बिना जी न सकेंगे.

हमारे हिस्से के बादलों ने अपना रंग बदल दिया...हमारे हिस्से की बारिश भटक कर पहुँच गयी चेरापूंजी...हम अपनी ज़मीं...अपनी मुहब्बत से उजाड़े हुए लोग हैं.

हम लुप्त होते लोग हैं. हाशिये पर धकेले हुए. हम अपने खुले आसमानों के कैदी हैं. हम अतीत के एक टुकड़े को फिर से जी लेने की जिजीविषा लिए हुए वर्त्तमान को नकारते लोग हैं.

किसको बुरी लगती है अपने गाँव की मिटटी? हम बहुत ऊंचा उड़ते हैं मगर लौट कर उसी छोटे से घर में जाना चाहते हैं. हम खुदा को मानने और नकारने के बीच झूलते हुए अपनी जिंदगी की अकेली लड़ाइयाँ लड़के हुए लोग हैं.

अपने हक को मांगने और छीनने के बीच की रस्साकशी में उलझे हम हालातों के मारे उलझे हुए लोग हैं. हम वो मज़ाक हैं जो संजीदगी से सुनाया जाता है...डार्क ह्यूमर रचते किसी डायरेक्टर की प्रेरणा हैं हम. जिंदगी हमें तमाशे की तरह बेचती है और लोग हमें मनोरंजन की तरह खरीदते हैं. दिल भर जाने पर ठुकराए हुए हम बनारसी साड़ी बुनने वाले जुलाहे हैं. हमारे काम की अब किसी को दरकार नहीं...हम शोपीस में रखे हुए सबसे खूबसूरत नमूने हैं जिन्हें बेचना अपराध है. हमारी कीमत इतनी ज्यादा है कि बेशकीमती हैं...कि हमें खरीदने को कोई तैयार नहीं...कि हमें खरीदने की किसी की औकात नहीं. एक मरते हुए शहर के लुप्त अजायबघर में रखे धूल खाते तेवर हैं हम...हमने कभी इसी तेवर से राज्य की चूलें हिला दीं थीं.

दिल, अमां कौन सा...ज़ख्म...कौन से? जो दिखता है वही बिकता है सरकार...कलेजे में कितना दर्द है कि कलेजा पत्थर है...अरे इस पत्थर से चिंगारियां क्यूँ नहीं निकलतीं. उम्र बीतने को आई, मगर ये कौन सा आक्रोश है कि अब भी आग लगा देने को उतारू है. काले चिथड़ों में लिपटा ये कौन सा आन्दोलन है...किसे फूँक देना चाहता है...उसने कहा था गंगा किनारे काली रेत पर मिलेगा वो...पूरनमासी की रात को. हम जागने के लिए आये हरकारे का इंतज़ार करते लोग हैं. हमारी सारी कोमल शिराएं झुलस गयी हैं. हम मुहब्बत से परे...नफरतों से बच कर चलते हुए लोग हैं.

हम भीड़ से भागते हुए भीड़ का हिस्सा बनते हैं...हम सुबह से शाम तक अनगिन चेहरे बदलते हैं. हम इश्क को शौक़ की तरह जीते, जिंदगी को विरक्त भाव से टालते, मुस्कुराने को तरसे हुए लोग हैं. हमें कोई भींच कर सीने से लगाए...हमें कोई समंदर में तैरना सिखाये...हमें कोई इश्क में डूबना सिखाये...हम इस आपाधापी वाली जिंदगी में खोये हुए लोग हैं. बेचैन. तन्हा. उदास.

सिगरेट की गंध में लिपटे/ फीके बोसे हम चखेंगे
माथे पे अमृतांजन के/ किस्से बहुत लिखेंगे
विस्की में जिंदगी है/ जब तक बची हुयी
तुम्हारे हैंगोवर से जानां/ वादा है न उबरेंगे 

01 May, 2013

स्लो मोशन राईटिंग



आजकल मुझे कोई स्क्रीन अच्छी नहीं लगती. घर आते ही लैपटॉप टीवी से कनेक्टेड और गाने चालू. स्क्रीन ऑफ. मोबाईल चार्जिंग पर. किचन में या तो खाना बनाती हूँ या रोकिंग चेयर पर झूलते हुए अख़बार या मैगजीन पढ़ती हूँ. चैन और सुकून लगता है. आज सुबह लैपटॉप खोला लेकिन फिर जैसे इरीटेशन होने लगी. लिख रही थी, सोचा अपलोड कर देती हूँ. कभी बाद में अपनी हैण्डराईटिंग देखूंगी इधर. कोपियाँ तो जाने कहाँ जायेंगी.
ये जो लिफाफा सा दिख रहा है, एक छोटा सा पाउच है, पेन रखने के लिए.
खास नहीं. बस. ऐसे ही. 

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