29 November, 2013

सियाही का रंग सियाह

उसे उदास होने का शौक लगा रहता...वो देखती साथ की दोस्तों को उदास आहें भरते हुए...गम में शाम की उदासी का जिक्र करते हुए...धूप में बादल को तलाशते और बारिश वाले दिनों में सूरज की गर्मी ढूंढते हुए. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वो भी किसी के प्यार में उदास हो जाए...कोई उससे दूर रहे और वो उसकी याद में कवितायें लिखे लेकिन उसके साथ ऐसा होता नहीं. उसे किसी से प्यार होता तो वो उसे अपने दिल में बहुत सी जगह खाली कर के परमानेंट बसा लेती...फिर उसे कभी उस ख़ास को 'मिस' करने का मौका नहीं मिलता.

उसके इर्द गिर्द बहुत सुख थे इसलिए वो दुःख के पीछे मरीचिका सी भागती...उसे दुःख में होना बहुत ग्लैमरस लगता. इमेज कोई ऐसी उभरती कि करीने से लगा मस्कारा थोड़ा थोड़ा बह गया है...काजल की महीन रेखा भी थोड़ी डगमगा रही है कि जैसे हलके नशे में काजल लगाया गया हो. चेहरे पर के मेक-अप की परतों में रात को नहीं सोने वाले काले गड्ढे ढक दिए गए हैं...कंसीलर से छुपा लिया है टेंशन के कारण उगे मुहांसों को भी...और इतने पर भी अगर कमी बाकी रह गयी तो एक बड़ा सा काला चश्मा चढ़ा लिया कि कुछ दिखे ही ना. फीके रंग के कपड़े पहनना कि आसपास आती रौशनी भी उदास दिखे. चटख रंग के कपड़े उदासी को पास नहीं फटकने देते. 
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तारीखों का चकमक पत्थर है, घिसती हूँ तो कुछ चिंगारियां छूटती हैं...हाथ छुड़ा के भागती है कोई लड़की दुनिया की भीड़ में कि उसे मालूम है कि जब जंगल में आग लगती है तो किसी मौसम से कोई फर्क नहीं पड़ता. उसने भारी बरसातों में जंगल जलते देखे हैं...धुआं इतना गहरा होता है कि देख कर मालूम करना मुश्किल होता है कि आसमान का काला रंग जंगल से उठ रहा है या जंगल का सियाह रंग बादलों से बरस रहा है.
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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एक लड़की थी...बहुत दिनों से कहानी लिखने की कोशिश कर रही थी पर उसके किरदार पूरी जिंदगी जीने के पहले ही कहानी के पन्नों से उठ कर कहीं चले जाते थे. उसे लिखते हुए कभी मालूम नहीं होता किस किरदार की उम्र कितनी होगी. वो हर बार बस इतना ही चाहती कि कहानी का अंत कम से कम उसे मालूम हो जाए मगर उसके किरदार बड़े जिद्दी थे...अपनी मनमर्जी से आते थे अपने मनमाफिक काम करते थे और जब उनका मूड होता या जब वे बोर हो जाते, लड़की से अलविदा कहे बिना भी चले जाते. यूँ गलती तो लड़की की ही थी कि वो ऐसे किरदार बनाती ही क्यूँ थी...मगर बहुत सी चीज़ों पर आपका हक नहीं होता...वो आपके होते हुए भी पराये होते हैं.
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मेरी उँगलियों में तुम्हारी सिगरेट की गंध बसी हुयी है, मेरी शामों में तुम्हारा रूठ कर जाना...मेरी बरसातों में हरा दुपट्टा ओढ़े एक लड़की भीगती है...ठंढ की रातों में मुंह से सफ़ेद धुआं निकलता है तो स्कूल ड्रेस के लाल कार्डिगन की याद आती है. मौसमों के पागल हो जाने के दिन हैं और मैं पूरे पूरे दिन भीगते हुए गाने सुनना चाहती हूँ.

मैं समंदर में एक कश्ती डाल देना चाहती हूँ...मैं तूफ़ान की ओर बढ़ती हूँ और तूफ़ान कदम समेटता है...मैं देखती हूँ उस लड़की को जो मुझसे एकदम अलग है...मुझे उस लड़की से डर लगता है...उस लड़की से किसी को भी डर लगता है. वो जाने किस नींद से जागने लगी है...वो लड़की कितनी गहरी है कि प्यार का एक बूँद  भी नहीं छलकता उसकी अंजुरी से...उस लड़की में कितना अंधकार है कि हर रौशनी से दूर भागती है. वो कितनी डिसट्रक्टिव है...उसमें कितना ज्यादा गुस्सा है. मैं उसकी इच्छाशक्ति को देखती हूँ तो थरथराती हूँ. देखती हूँ कि दुर्गा अवतार से काली बनना बहुत मुश्किल नहीं होता.

तांडव करते हुए सबसे पहले जो टूटता है वो अभिमान है...

28 November, 2013

नीले कोट की सर्दियाँ कब आएँगी?

कभी कभी लगता है सब एकदम खाली है. निर्वात है. कुछ ऐसा कि अपने अन्दर खींचता है, तोड़ डालने के लिए. और फिर ऐसे दिन आते हैं जैसे आज है कि लगता है लबालब भरा प्याला है. आँख में आंसू ऐसे ही ठहरे रहते हैं कोर पर और खूब खूब सारा रो लेने को जी चाहता है. मन भरा भरा सा लगता है. कुछ ऐसा कि लगता है विस्फोट हो जाएगा. जगह नहीं है इतने कुछ की.

बहुत शिद्दत से एक सिगरेट की तलब महसूस होती है. पैकेट निकाल कर सामने रखा है. इसमें ज़िप लॉक टेक्नोलॉजी है कि जिससे सिगरेट हमेशा फ्रेश रहे. मालूम नहीं कितनी असरदार है तकनीक. एक सिगरेट निकाल कर खुशबू महसूस करती हूँ उसकी. अच्छी ही लगती है. याद नहीं ये वाला पैकेट कितने दिन पहले ख़रीदा था. सिगरेट के पैकेट पर कभी एक्सपायरी डेट दिखी हो ऐसा याद नहीं. हाँ मेरी एक्सपायरी डेट जरूर लिखी दिखती है. स्मोकिंग सीरियसली हार्म्स यू एंड अदर्स अराउंड यू. इसलिए अगर पीना है तो ऑफिस से बाहर सड़क पर टहलते हुए पीनी पड़ेगी. टहलने लायक एनर्जी है ऐसा महसूस नहीं हो रहा है मुझे. सोच रही हूँ किसी से पूछूं, अगर कोई एकदम ही रैंडम में सिगरेट पीता है, जैसे कि साल के ऐसे किसी दिन तो भी उसके कैंसर से मरने के चांसेस रहते हैं. गूगल कुछ नहीं बताता.

Right now i'd give anything for just the right to smoke here, right at my table...but well...there are the rules.

उदासियाँ अकेले नहीं आतीं, अपने साथ मौसम का मिजाज भी लाती है, गहरा सलेटी...जिसमें धूप नहीं उगती. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा. आज खाना भी ठीक से नहीं खाया. सुबह कुक देर से आई. उसके आते आते बिना ब्रेकफास्ट किये ऑफिस जाने का मूड हो चुका था. कभी कभी लगता है कि भूख कोई चीज़ नहीं होती है. मूड ख़राब हो तो अच्छा खाना भी खाया नहीं जाता और गंध से ही उबकाई आती है. सुबह कुछ काम करना था, मेल्स वगैरह. थोड़ा और काम.

लंच कोई तरह से अन्दर धकेला...कि खा लेना जरूरी है समय पर. फिलहाल उदासी एकदम गहरी नदी की तरह है और उबरने का कोई तरीका नहीं दिख रहा. न कुछ पढ़ने का दिल कर रहा है न लिखने का. फिल्म देखने का भी कोई असर नहीं. अन्दर अन्दर भीगना और रिसना जैसा कुछ. जैसे सारी दीवारें सीली हैं और छूने से डर लगता है. एक कहानी लौट लौट कर याद आ रही है आदमखोर इमारतों में बंद रूहों को आज़ाद कर दो. लगता है वैसे ही किसी अस्पताल के कमरे में भर्ती हूँ सदियों से. न कोई मिलने वाला आया है, न डॉक्टर इलाज की कोई आखिरी तरीख बताते हैं.

मर जाने के सारे तरीके बेअसर साबित हुए हैं. इतना थका हुआ सा लगता है कि मर जाने की भी सारी प्लानिंग करनी मुश्किल लग रही है. उस रास्ते पर जाने के लिए बहुत टेक्नीकल होना पड़ता है. बहुत सी और चीज़ें सोचनी पड़ती हैं. अभी सिर्फ और सिर्फ उसकी याद आ रही है. एक वो ही थी न जिसको दिन में कभी भी फ़ोन करो समझ जाती थी कि सब ठीक नहीं है. उसके बिना जीने की आदत क्यूँ नहीं लगती. छः साल हो गए उसे गए हुए. अब भी ऐसे किसी दिन उसे खोजना बंद क्यूँ नहीं करती. कितना भागती हूँ उससे. उसकी कहीं फोटो नहीं रखी है फिर भी खुले आसमान के नीचे खड़े होने पर लगता है, वो है कहीं. देख रही है हमको.

१८ घंटे लगातार काम करने की कैपेसिटी नहीं है मेरी. थक जाती हूँ. सीढियां चढ़ती उतरती भागती. खाने का होश नहीं. कभी कभी कुक के नहीं आने से बहुत इरीटेशन होती है. मैं बिना खाए रह भी जाऊं...कुणाल के लिए घर का खाना नहीं होता है तो इतनी गिल्ट फीलिंग होती है कि समझ नहीं आता क्या करूँ. कल रात भी बाहर खाया है. मुझसे घर सम्हालता क्यूँ नहीं. आज उन सारी लड़कियों से बड़ी जलन होती है तो तरतीब से सजाया हुआ घर रख लेती हैं. पति का ख्याल रखती हैं. बच्चे बड़े करती हैं. मैं कुछ तो नहीं करती ख़ास. एक लिखने के अलावा मेरा और किसी काम में मन भी तो नहीं लगता.

लॉन्ग हॉलिडे...मेंटल पीस के लिए. हफ्ते भर. महीने भर. साल भर. जिंदगी भर. समंदर किनारे लेटे रहे गीली रेत पर. मुझसे और कुछ होता क्यूँ नहीं. आज लिरिक्स भी लिखने हैं. थक गयी हूँ. कन्धों में दर्द हो रहा है. सर में दर्द. दो दिन से घर का बना खाना नहीं खाया है. मैं बाकी लोगों की तरह मैनेज क्यूँ नहीं कर पाती? कैसे कर लेता है कोई, घर ऑफिस सब कुछ अच्छे से. मैं कहाँ फंस जाती हूँ. मौका मिलते लिखने लगती हूँ...अभी कायदे से इस वक़्त मुझे नहा कर तैयार होना चाहिए. आज एक जरूरी मीटिंग है. थोड़ा अपनी शक्ल पर ध्यान दूँगी तो बुरा नहीं होगा किसी का. पर मुझे फिलहाल यही सोच के सर दर्द है कि कौन से कपड़े आयरन करूँ. पीच कलर की एक शर्ट है. वही पहनती हूँ.

दिमाग बर्रे का छत्ता बना हुआ है. सिगरेट. कहाँ है सिगरेट. मैं एडिक्ट की तरह बात करती हूँ, जबकि मेरा पैकेट हमेशा कोई और ख़त्म करता है. आखिरी सिगरेट किस जन्म में पी थी याद नहीं मगर बैग में चाहिए जरूर. ब्रांड को लेकर ऐसी जिद्दी कि और कुछ नहीं पी सकती. मेरा दिमाग ख़राब है. उफफ्फ्फ्फ़....कोई लाओ रे कहीं का मौसम...कहीं की बारिश...कोलेज का बेफिकरपन...मम्मी की डांट...दोस्तों से झगड़ा...जीने के लिए जरूरत है एक अदद खुद की. किसी डब्बी में बंद करके भूल गयी हूँ. घर की भूलभुलैय्या की चाबी कहाँ गयी? 

26 November, 2013

क्लोज अप में तुम्हारी आँखें ज्यादा खूबसूरत दिखती हैं

कहाँ जा रहे हो तुम? समंदर किनारे गीली रेत पर तुम्हारे पैरों के निशान है...मेरे दिल पर तुम्हारे आने की आहट जैसे. कुछ देर में धुल जायेंगे...अगली लहर आने तो दो भला.
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आज फिर डाकिये को देखा. ना ना कोरियर वाला नहीं. असली डाकिया. भूरे ड्रेस वाला. पॉकेट में भारतीय डाकखाने का मोनोग्राम भी बना था. मैं काली साया बन उसकी नौकरी के ऊपर डोलती हूँ. मुझे वो एकदम अच्छा नहीं लगता, न वो घर जहाँ वो रोज चिट्ठियां गिराता है. कभी कभी दिल करता है उसे गले लगा कर एक बार जोर से रो पड़ूं. घर के रास्ते में जो रेड लेटर बोक्स आता है, जहाँ तुम्हें हफ्ते में दो दो चिट्ठियां तक गिराया करतीं थीं. कभी कभी दिल करता है उससे टेक लगा कर बैठी रहूँ और रात का कोहरा गिरता रहे. पूरी रात कोहरे को सियाही बना कर तुम्हें चिट्ठियां लिखूं कि तुम्हें समझ न आये कि उनमें आंसुओं की मिलावट है.

क्या लिखे कोई और क्यूँ...सब तो लिखा जा चुका है, फिर मैं कहाँ रीती जाती हूँ लिख लिख कर. पढ़ने का दिल नहीं करता. अपना लिखा भी नहीं पढ़ा कई दिनों से. मैं आजकल दो चीज़ें शुरू करना चाहती हूँ. मेरे मन का भी एक अल्टरनेट रियलिटी होता है, जहाँ मैं ये सारी चीज़ें कर सकती हूँ. मैं एक चिट्ठी लिखने वाला ग्रुप शुरू करना चाहती हूँ. जिसमें सब एक दूसरे को चिट्ठियां लिखें. कितना कुछ होता है न कहने को, जो कह नहीं सकते. ये लिखने की कैसी जिद है कि कागज़ कलम की खुशबू से सिंचता है.
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तुम्हें मालूम है, मैं तुम्हारे सवालों का जवाब होती जा रही हूँ. उन सवालों का भी जो तुम जिंदगी से करते हो. उन सवालों का भी जो तुम खुदा से करते हो...तुम्हारे उलाहनों के बाद का विस्मयादिबोधक चिन्ह जैसा. मेरे बिना अधूरा सा कुछ दिखता रहता है तुम्हारे वाक्यों में. तुम्हारी गलत मात्राओं में....तुम्हारे लिखे किरदारों का अपमान मैं अपने नाम लिखा लेती रही हूँ. उनकी विरक्ति में भी अपना अक्स देखती हूँ.

तुम वहां नहीं हो...मैं यहाँ नहीं हूँ...अगर तुम्हारे लिखे में नहीं हूँ तो मैं हूँ कहाँ? कैसी आदतें लग जाती हैं, न लगने वालीं. तुम्हारे हिज्जे की सुधारी हुयी गलतियों को देखती हूँ तो लगता है गाँव की पगडंडियों पर से दुबारा गुज़र रही हूँ. मैं हूँ हर उस जगह...वो जो बिंदी गलत लगाई थी तुमने, वो मैंने ताखे पे रखे आईने से उठा कर अपने माथे पर चिपका ली थी. छोटी, बड़ी मात्रा कहाँ समझ आई तुम्हें...
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मैं तुम्हारा चेहरा भूल गयी हूँ. कुछ इस तरह कि भीड़ में तुम्हें तलाश न सकूंगी. कैसी तो थी तुम्हारी मुस्कान?
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इस मौसम में सुबह कितने बजे होती है? खिड़कियाँ पूरब को खुलती है. मेरे उठने का वक़्त सात साढ़े सात बजे है लगभग. सूर्योदय शायद ही कभी देख पाती हूँ. कल दिन भर सर में बेतरह दर्द रहा है. वजह नहीं मालूम. जिंदगी अजीब सी लगती है. कहीं भाग जाना चाहती हूँ. लम्बी छुट्टियों पर. पलायन किसी समस्या का हल नहीं है. मुझे लगता ये है कि महीने भर की छुट्टी ले लूंगी तो शायद ठीक लगेगा सब कुछ, ये सोचते सोचते साल बीत जाता है. घबराहट ख़त्म नहीं होती. नींद चार बजे से खुली हुयी है. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसे खुली. नींद खुलने पर भी नींद आ रही है पर घंटे भर तक नींद नहीं आई और बेतरह उलूल जुलूल ख्यालों ने दिमाग ख़राब कर दिया तो उठ गयी और लैपटॉप खोल लिया. यहाँ न कुछ पढ़ने में मज़ा आ रहा है न लिखने में.
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चूल्हे की तरह धुआंता है औरत का मन. सीला सीला कुछ. सबसे नीचे कोयले बिछाती हुयी देखती है कि...
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मैं सांस लेना चाहती हूँ. गहरी सांस. ऐसी गहरी कि मन के सबसे गहरे कोने तक की हवा ताज़ी महसूस हो. 
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I wake up with a heartache.
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मुझे मालूम नहीं क्यूँ. सोचती हूँ कि दर्द का कोई सबब मालूम होता तो बेहतर होता. सुबह की हवा बेहद मीठी है. जैसे दुनिया में सब कुछ अच्छा है. फीकी धूप है. ऐसी जिससे ज़ख्म के किनारों पर की उदासी ज्यादा उजागर न हो.
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तुम्हें पता है आज गुलज़ार की आवाज़ को पॉज करके तुम्हें सुना है. पसंद के सारे गानों, साउंडट्रैक के सारे अबूझ अनजान भाषाओँ के शब्दों को पॉज करके तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा तलाशा है. कि बस एक तुम्हारी आवाज़ का कतरा ही चाहिए बस. सोचती हूँ, तुमने कभी कपड़े पसारे हैं? कभी कोई तौलिया तो निचोड़ा ही होगा तार पर डालने के पहले. वैसे ही सारा का सारा इन्टरनेट निचोड़ कर एक तुम्हारी आवाज़ का कतरा निकाला है. तुम्हें मालूम है तुम्हारी आवाज़ कितनी जिन्दा लगती है? अमृत जैसी. सूखे पौधे पर पड़ती है तो बिरवे फूट पड़ते हैं. कोई खूबसूरती नहीं है तुम्हारी आवाज़ में, यूँ कहो कि एक तरह का गंवारपना है, ठेठ बोली का लहका हुआ टोन आ जाता है अक्सर. जैसे पुल के ऊपर भागती ट्रेन दिखती है गंगा के पानी में नीचे.
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साइड प्रोफाइल में, एक खास एंगल से रौशनी पड़ती जब उसपर, तभी उसकी आँखों का दर्द उजागर होता था. बहरूपिया थी वरना वो...उसके हज़ार चेहरे, हर चेहरे पर मुस्कान, आँखों में उजली खिली धूप.
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जिन लोगों ने मुझे जिलाए रखा है.
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इससे पहले कि मैं भूल जाऊं. मुझे शुक्रिया अदा करना है इस फोटोग्राफर का. सीरिया में तसवीरें खींचते हुए, ख़ास इस तवीर को उसने सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में खींचा. मैं डरते हुए जानती हूँ कि ये सियाह धब्बा खून का हो सकता है फिर भी दिल को तसल्ली दे सकती हूँ कि शायद टूटा हुआ पलस्तर हो. शायद भीगी हुयी दीवार हो या कि चराग जलाने के कारण जमा हुआ हो धुआं. काला सा ये धब्बा चीख चीख कर कहता है कि इसका रंग लाल है मगर मैं फिर भी शुक्रगुजार हूँ उस फोटोग्राफर की कि उसने ये तस्वीर ब्लैक एंड व्हाईट खींची है.

कभी कभी मैं बंद कर लेना चाहती हूँ अपनी आँखें. मुझे करना है शुक्रिया अदा उन सारे संगीतकारों का जो मुझे आत्महत्या के छोर से बचा कर ले आते हैं वापस. जिंदगी के अजीब से विरक्त दिनों में जब अवसाद का गहरा रंग मुझे रंगता जाता है गहरा नीला मैं किसी मुर्दा संगीतकार को सुनती हुयी जीने की वजहें तलाशती हूँ.
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तुम्हारा नाम कितना अद्भुत है तुम्हें मालूम है? संगीत के तीनों सुर, वो भी सही क्रम में...सारंग...सोचो ऐसा होता होगा क्या कि पहले सारंग में सिर्फ तीन सुर निकलते होंगे- सा, रे और ग इसलिए वाद्ययंत्र का नाम सारंग पड़ा?


तुम्हारे नाम को थोड़ा सा तोड़ दूं तो संगीत के तीन सुर बिलकुल सही लय में लग जायेंगे, तुम्हें मालूम है?
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मैंने अपने किरदारों को सर चढ़ा रखा है. बेहद मनमौजी और जिद्दी किस्म के हैं सारे के सारे. मैं छोटे बद्तमीज बच्चों को देखती हूँ तो बहुत गुस्सा आता है मुझे कि उनके माँ बाप किसी करम के नहीं हैं. कुछ सिखाया नहीं है बच्चे को, मनमानी करते हैं. बात मगर खुद की आती है तो किरदार सारे इतने लाड़ले हैं कि किसी का एक डायलॉग तक कभी बदल नहीं सकती. जो एक बार लिख दिया, मजाल है कि कभी बाद में खुद को समझा पाऊं कि बदल देना चाहिए.

उनके ख्वाब उनकी ख्वाहिशें...उनके मूड स्विंग्स. मेरा क्या. जब मन होगा चले आयेंगे, बिना वक़्त, महूरत देखे. मनहूस कमबख्त. क्या क्या न करना होता है उनके लिए. बहरहाल, एक की कहानी सुनाती हूँ. वोंग कार वाई की किसी फिल्म देखते हुए एक किरदार कमरे में चला आया. मुझे मालूम नहीं कि फिल्म का कोई एक्स्ट्रा था या यूँ ही परछाई भर से उभरा कोई. उसे सिर्फ कैंटोनीज भाषा आती है. उदास सी आँखों वाली लड़की है. मेरे साथ घर में रहती है कई दिनों से. अपनी कहानी सुनाने के लिए कई बार मुझे कई सारी चाइनीज फिल्में दिखा चुकी है. एक फिल्म से एक सीन समझ आता है उसकी जिंदगी का. 

चुप चुप सी रहती है. फोटोग्राफी का शौक़ है उसे. कोई अगर कहता है कि एक तस्वीर में हज़ार कहानियां होती हैं तो गलत कहता है. उसकी हर तस्वीर से एक ही कहानी दिखती है. किसी छूटे हुए को तलाश रही है वो.

किससे पूछ कर आया था ऐसा बहका हुआ मौसम. क्या बारिशों को मालूम नहीं था कि घर लौट आने का वक़्त अँधेरा होने से पहले का है? अगर दोपहर में ग्रहण लगते वाला हो और उसपर घने बादल छा जाएँ तो पंछी भी अपने घोसलों को लौट जाते हैं. मगर इस लड़की को किसी से मतलब ही न था. अरे बिना रोशनी के कौन सी तस्वीर खींचनी है उसे. आजकल जमाना कितना ख़राब है. ऐसी भटकी हुयी लड़कियों को कोई भी फुसला लेता है. थोड़े से प्यार से पिघल जायेंगी. फिर जाने कौन देश के किस रेड लाईट एरिया में भेज दी जायेंगी. कहाँ ढूंढूंगी मैं उसे फिर.

किसी की आदत लग गयी है ये सिर्फ तब मालूम हो सकता है जब वो इंसान पास न हो. जो हमेशा पास रहते हैं उनके बारे में कभी मालूम ही नहीं चलता कि उनकी आदत लग गयी है.
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ड्राफ्ट्स हैं सारे के सारे...कुछ नए...कुछ पुराने. अधूरे सब. मुकम्मल सिर्फ मैं. 

भूलना एक उम्र भर का काम


सिक्सटीन लव पोयम्स एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर. किताब के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे. कल पूरी रात पागलों की तरह बरसा था बादल. उस मासूम को कहाँ मालूम था कि बालकनी पर भूल गयी हूँ मैं नयी किताब, पुरानी कॉपी और तुम्हारी याद के बहुत से किस्से. बादल सबके हिस्से बराबर बरसा तो भिगो गया पाब्लो नेरुदा की प्रेम पगी कवितायें और हमारे प्रेम जैसा एक आखिरी उदास गीत.

मेरी तरह तुम भी कभी सोचते हो क्या कि आखिर क्या बात थी कि मैंने आखिरी बार तुम्हें वही कविता पढ़ कर सुनायी...लव इज सो शोर्ट, फोरगेटिंग इस सो लॉन्ग...प्रेम क्षणिक है. भूलना एक उम्र भर का काम. मुझे क्या मालूम था कि हम उस दिन के बाद कभी नहीं मिलेंगे? कैफे की धूप वाली दोपहर कितनी सरल और शांत थी. प्रेम भी अपने उफान से उतर कर गहरी नदी सा बह रहा था...ऐसी नदी जो सींचती है, जिसके किनारे सभ्यताएं बसतीं हैं और प्रेमी लहरों के हाथ समंदर को तोहफे भेजते हैं. उस आखिरी दिन माथे पर कूद कूद आई लटों को जब पीछे करती थीं तो तुमने सोचा था क्या मेरे बगैर इन्हें तमीज कौन सिखाएगा?

मैं चुपचाप बनाती गयी थी आत्महत्या के नर्म, नाज़ुक पुल...उनसे आखिरी बार गुज़र जाने के लिए. तुम्हें लगा था डर कभी? अनगिन दोस्तों का दायरा छोटा करते हुए सिर्फ तुम तक सिमट गयी थी. यूँ हर इश्क का अंजाम कुछ ऐसे ही होता है कि उसके बगैर जीवन की कल्पना भी बेमानी लगती है मगर फिर भी...किसी नए इश्क में पुराने इश्क सी कोई बात नहीं होती. हम उन्हीं राहों पर नए लोगों के साथ गुज़र रहे होते हैं जिनपर कुछ साल पहले किसी के साथ अगले कई जन्मों तक के सपने देख डाले थे. शहर बड़े बेरहम और युगों की याद्दाश्त वाले होते हैं. वे नए प्रेमियों के साथ होने पर भी पुराने लतीफे सुनाते हैं और उनपर वैसे ही कार्बन कॉपी वाली हंसी हँसते हैं. तुम्हें शहर बदल लेना चाहिए था. यूँ कायदे से मुझे शहर बदल लेना चाहिए था. इस शहर के गुलमोहरों को गहरी लाल शामें चाहिए होती हैं. मैं चाहती भी हूँ तो ये मुझे अमलतास के फूलों जैसा सुनहला आसमान बनाने नहीं देते.

मालूम होता कि मुलाक़ात आखिरी है तो किसी खूबसूरत बात पर ख़त्म करती. तुमसे कहती कि जब तक समंदर है तुम मेरे अन्दर बचे रहोगे. मेरी कविता में. मेरी कहानियों में. मेरी पेंटिंग्स में. मेरे रियाज़ में. मेरे घर के टूटे पलस्तर. मेरी नल के टपकते पानी और छत से टपकते पानी में. कि तुम पानी में बचे रहोगे. जब तक मेरे चेहरे में पानी होगा. मेरी आँखों में पानी होगा. तुम बचे रहोगे. तुम्हें अंजुरी में लिए लिए हिन्द महासागर तक चली जाउंगी और रख आउंगी सबसे ऊंची लहर की गुंथी हुयी चोटी में.

आखिरी रोज़. बाकी दिनों की तरह ही था. आदतन हम एक दूसरे की पीठ का सहारा लिए अपनी अपनी पसंद की किताब पढ़ते रहे. तुम मुझे ग़ालिब सुनाते और मैं तुम्हें नेरुदा. बहुत देर में थक गयी थी तो धूप की चादर ओढ़े सो गयी थी. नींद में भी मुझे लग रहा था तुम्हारी आँखें मुझे देख रही हैं. कैफे वाला हमें देख कर एक मीठी मुस्कान मुस्काया था. सेम ओल्ड सेम ओल्ड. हॉट चॉकलेट विथ जिंजरब्रेड सॉस. ब्लैक कॉफ़ी, नो मिल्क, नो शुगर. अपनी अपनी ड्रिंक पीते हुए हम देर तक एक दूसरे की आँखों में देखते रहे थे. दिल के धड़कन तब भी तेज़ हो गई थी मगर इस दर्द में मिठास थी.

मुझे लगता है तुम्हें विदा कहने का सलीका मालूम है. तुम लोगों को बड़े तबियत और इत्मीनान से ऐसे मोड़ पर छोड़ आते हो जहाँ से वे तुम्हारे बगैर जीने का सलीका जान जायें. मुझे मालूम होता कि हम आखिरी बार मिल रहे हैं तब भी मैं तुम्हें इन्हें पंक्तियों से विदा करती...लव इज सो शोर्ट...फॉरगेटिंग इज सो लॉन्ग.

तुम्हें मालूम होता हम आखिरी बार मिल रहे हैं तो तुम मुझे क्या पढ़ कर सुनाते? 

23 November, 2013

आधी पढ़ी किताब का सुख

हफ्ते भर की थकान ने उसे बहला फुसला कर झांसे में ले लिया था. सोते हुए उसकी उँगलियों में उलझी हुयी थी किताब और होठों पर आधी रखी हुयी थी मुस्कान. जिस दुनिया में किसी चीज़ का भरोसा नहीं था उसमें उनींदे भी ये यकीन होना कि उठने के बाद एक किताब होगी लौट कर जाने के लिए ये बहुत बड़े सुकून की बात थी. लड़की के दिल की धड़कन अक्सर काफी तेज़ चलने लगती थी...इसकी कोई ख़ास वजह नहीं होती मगर वो अक्सर डूब जाने का सामान तलाशती रहती, कि जिसमें खुद को खोया जा सके. नए घूमते हुए देशों में भी वो नक्शा लेकर नहीं भटक जाने के इरादे ले कर जाती. किताबें भी उसे ऐसी ही अच्छी लगती थीं, पगडंडियों वालीं. वो अधमुंदी आँखों से दीवार का सहारा थामे आगे बढ़ती जा रही है, पगडंडियों पर डाकुओं का डर नहीं होता.

दोपहर किताब उसे एक आश्चर्य की तरह मिली थी. वो खुश इतनी थी कि डिलीवर करने वाला शख्स घबरा गया. बबल व्रैप के सारे बुलबुले फोड़ने के दरमयान वो एक कलीग के साथ एक बेहद जरूरी प्रेजेंटेशन पर काम कर रही थी. काम ख़त्म होने पर किताब पढ़ते हुए उसने तीन तल्ले की सीढियां चढ़ीं. वो लड़की जिसे आम तौर पर भी कहीं चलते हुए टकराने और गिर जाने का खौफ बना रहता है. ऊपरी तल्ले के ऑफिस में दोपहर की बेहतरीन धूप आ रही थी. किताब की तस्वीर उतारते हुए लड़की के मन में धूप उतर कर बेसब्री का ताना बाना बुनती रही. घर के रास्ते में सब्जियां खरीदनी थीं. बहुत सालों बाद उसे ऐसी बेचैनी थी कि सब्जी बिल करवाने की लाइन में लगे लगे उसने कहानियां पढ़ीं. उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट चस्पां हो गयी थी...कुछ बेहतरीन पढ़ने की ललक जैसी...पहले प्यार के खुमार जैसी. बाईक चलाते हुए उसने सोचा लगातार मुस्कुराने से उसके गाल दर्द कर रहे हैं.

घर पर दोस्त आये हुए थे. मिठाई की दूकान वाले ने कहा कि समोसे बनने में दस मिनट लगेंगे. वहीं एक छोटी सी मेज पर बैठी वो कहानियों में डूबने उतराने लगी. उसे कहीं नहीं जाना था. कहानियों के किरदार उसे हंसाते, रुलाते....रुला रुला हंसाते. उसकी आँख भर आती और वो सोचती कि कोई देख न ले उसकी आँखों में ऐसे आंसू...जबकि उसके सामने कोई होता नहीं था. किताब ऐसी थी जैसे हाथ पकड़ कर हर छोटी सी कहानी में खींच लाती उसे. प्यास ऐसी थी कि हर कहानी को छू कर भाग जाना चाहती थी वो, जैसे छुप्पन छुपाई का खेल चल रहा हो. कितने दिलकश किरदार थे...कितने सच्चे कि उनकी सच्चाई देख कर किताब के डायरी होने का भ्रम होने लगता. इतनी छोटी कहानी में कोई इतना पूरा किरदार कैसे रच सकता है? एक घटना में जिंदगीनामा लिखने जैसा.

उसने बहुत सालों बाद ऐसी किताब पढ़ी थी...नहीं...उसने पहली बार ऐसी किताब पढ़ी थी. उसकी आज की दुनिया की किताब, उसकी जान पहचान जैसे किरदार. हर कहानी एक जादू बुनती हुयी. भीड़ में अनायास दिखे किसे चेहरे के सम्मोहन जैसी. किसी को सदियों जानने के सुख जैसी. एक ऐसी किताब जो हर किस्म के खालीपन को भर दे...उस खालीपन को भी जिसके होने का अंदाजा नहीं हो. ऐसी किताब जो आधी पढ़ी होने पर सुकून का बायस बने. ऐसी किताब जो अपनी हो जाए...धूप, हवा, पानी जैसा अधिकार हो जिसपर. इसकी समीक्षा लिखूंगी फुर्सत से...पहले लिखना जरूरी था कि एक खूबसूरत किताब पढ़ना कैसी चीज़ होती है.

पढ़ने के खोये हुए सुख को जो ऊँगली पकड़ कर लौटा लाये...ऐसी विरले लिखी जाने वाली मेरी बहुत सालों तक फेवरिट रहने वाली ये किताब 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो...' को लिखा है निधीश त्यागी ने और इसे छापा है पेंग्विन हिंदी ने. मैंने किताब ureads से खरीदी थी...ये फ्लिप्कार्ट भी भी मिल रही है. कुल १८८ पन्ने की किताब है, छोटी कहानियों वाली. इसकी आखिरी कहानी का नाम है...जिस सुखांत की तलाश है कहानी को...और ये कुछ ऐसे ख़त्म होती है...कहानी सुखान्तों की तलाश से फिर थके और धूसर पांव लौटती है. कहानी एक दिन सुखान्त की शर्त से खुद को मुक्त करती है. और पूरी होती है.

अब दिलफरेब इसको नहीं कहेंगे तो किसको कहेंगे. कुछ चीज़ें इतनी बेहतरीन होती हैं कि उन्हें बिना बांटे चैन नहीं पड़ता. आप ब्लॉग पर कुछ पढ़ने के खातिर ही भटक रहे होंगे...इस किताब को पढ़ना, पढ़ने के सुख की वापसी है. अखाड़े का उदास मुगदर नाम से जब ब्लॉग पर कहानियां आती थीं, तब भी इंतज़ार रहता था. बहुत साल की चुप्पी के बाद ये कहानियां पन्ने पर मिली हैं. शुक्रिया निड...इतनी खूबसूरत किताब लिखने के लिए. कभी इसपर आपका ऑटोग्राफ लेने जरूर आउंगी. 

21 November, 2013

खंडित ईश्वर की साधना


मेरे बिना तुम हो भी इसपर मुझे यकीन नहीं होता. खुदा होने का अहं है. मैंने तुम्हें रचा है. बूंद बूँद रक्त और सियाही से सींचा है तुम्हें. मेरे बिना तुम्हारा कोई वजूद कैसे हो सकता है. तुम्हें रचते हुए कितना कितना तो खुद को रखती गयी हूँ तुम्हारे अन्दर. अपने बागी तेवर. अपने आसमान से ऊंचे ख्वाब. अपने वो किस्से जो किसी दरख़्त की खोह में छुपा रखे थे. तुमने सारा कुछ जिया जो मैंने अपनी लिस्ट में लिख रखा था. फिर अचानक से कैसी जिद पकड़ ली तुमने कि कागज़ की नाव बन उफनती गंगा में उतर गए. इश्क ही तो हुआ था तुम्हें मुझसे...ऐसा गुनाह तो नहीं था कि जिसकी माफ़ी न हो. हुआ तो था मीरा को भी इश्क...अपने श्याम से. देखा तो था अपने इष्ट को उसने गीत के हर बोल में...जहर के प्याले में. तुम्हें डर लगता था तो मुझसे कहा होता, मैं तुम्हें एक कमरे के घर में नज़रबंद कर देती. मगर तुम्हें तो मुझसे दूर जाने की जिद थी. तुम्हें ये कौन सी दुनिया देखनी है जिसका हिस्सा मैं नहीं हूँ.

सोचती हूँ मेरे बिना तुम कैसे जीते होते. गंगा किनारे काली रेत पर बैठते हो और दूर तक खरबूजे की कतार दिखती है तो हँसते हो अब भी कि खरबूजे का रंग कैसा है. जैसे ताड़ पर चीरा लगाते हैं न, वैसे ही दिल पर चीरा लगा हुआ है तुम्हारे, जिससे ज़ख्म ज़ख्म इश्क रिसता है...उसपर गंगा मिटटी की पट्टी कर दो. शायद कुछ दिन में भर जाए. इश्क नशे की तरह चढ़ता है मेरी जान, फिर बाढ़ के आने की जरूरत नहीं होती डूबने के लिए.

तुम्हें रचने का सुख अलौकिक था. सारे किरदारों में तुम मेरे सबसे पसंदीदा हो. तुम्हारी हर चीज़ परफेक्ट करने के लिए कितनी कोशिशें की थीं, और किसी के लिए जगी मैं ब्रह्म मुहूर्त में कभी? नहीं न...वो तो सिर्फ तुम्हारी आँखों का रंग लिखना था इसलिए. लोग कहते हैं सूरज की लाली फूटने के पहले अँधेरा सबसे ज्यादा गहरा होता है. बिना खुद महसूस किये उसे उस गहरे अँधेरे को तुम्हारी आँखों में कैसे उतार सकती. अलार्म लगा कर उठी थी. सुबह ठंढ पड़ने लगी है आजकल. निंदाये हुए में एक लम्बी सी जैकेट पहनी और स्कार्फ लपेटा. अँधेरे को महसूस करने के लिए जरूरी था कि रौशनी का श्रोत पास न हो. सिर्फ उम्मीद पर जियें कि थोड़ी देर में सूरज उगेगा. अँधेरे को आत्मसात करने के लिए तन्हाई जरूरी होती है. खुले आसमान के नीचे अपनी पसंद के तारे चुनने का सोच के गयी थी मगर भूल ये गयी कि चश्मे के बिना कुछ दिखेगा नहीं. वो अँधेरा सम्पूर्ण था. उसमें कुछ दिख नहीं रहा था...सिवाए ध्रुव तारे की मद्धम और फैली रौशनी, जैसे रोने के बाद की आँखों से दिखती है दुनिया...धुली हुयी. ये बिलकुल सही रंग था तुम्हारी आँखों के लिए. बस इतनी सी ही रोशनी भी कि तुम देख सको कागज़ और कलम कि जहाँ से तुम्हारा वजूद तैयार होता था.

तुम्हारी तीखी जबान के लिए मैंने कितने उन दोस्तों से बात की जिनसे मिले ज़माने गुज़र गए थे. उन्हें आता ही नहीं था तमीज़ से बोलना. बात बात में गालियाँ, बात बात में तकलीफ पहुँचाने वाले किस्से. अपने नियमों पर किसी की जिंदगी उधेड़ के रख दें. उन्हें कितना भी समझाऊं कि मैं जिंदगी अपने हिसाब से जीती हूँ और मुझे और किसी चीज़ की जरूरत नहीं है. वे थमते नहीं, एक एक करके वाकये निकलते और मेरी गलतियों पर प्यार के बोल नहीं कटाक्ष की मिर्ची रखते. उनसे मिलना जरूरी हुआ करता लेकिन. वे अक्खड़ दोस्त ही मेरे इतने साहसी होते थे कि पाँव में लगी मरहमपट्टी खोलते. हफ्ते भर पहले धंसे कांटे को निकलने के दर्द के मारे मैं उसे घाव बन जाने देती थी. वे मेरी चीखों से बेअसर रहते और ब्लेड को धिपा कर घाव बहा देते और फिर उसमें से काँटा निकालते. उन्हें न मवाद से डर लगता, न खून से. उन्हें बस इस बात से मतलब था कि मैं कोई चुभती चीज़ दिल में लिए न घूमूं. जिन अधमरे रिश्तों को मैं सहेजे चलती थे, वे उन्हें गला घोंट कर मार डालते. इतनी हिकारत भर देते कि भूलना आसान हो जाता मेरे लिए. हाँ, उनकी दी हुयी तकलीफें ऐसी होती थीं कि उसी वक़्त मर जाने का दिल करता...मगर उनके जाने के बाद हमेशा हल्का महसूस होता. वे तीखे थे, रूखे थे मगर सच्चे थे. तुम्हारी तरह.

पूरे सफ़र में सबसे खूबसूरत पड़ाव था तुम्हारी संगीत की समझ विकसित करने वाला. तुम्हारे लिए मैंने दूर देश की यात्राएं कीं और तरह तरह का संगीत सहेजा...कुछ पन्नों में, कुछ यादों में और कुछ साउंड रिकॉर्डर में. मगर सबसे खूबसूरत संगीत सहेजा मैंने तुममें. तुम मेरी चलती फिरती डिक्शनरी बनते गए थे. योरोप के घूमे हुए गाँवों से उठाये लोकगीत हों कि इन्टरनेट पर पाए हुए अनगिन, अबूझ भाषाई गानों के कतरे. कितना नए वाद्ययंत्रों को देखा, सुना, समझा. तुम्हारे लिए सारंगी बजाने वाले को घर बुला कर एक साल रखा अपने पास. जितना तुम सीखते और डूबते जाते, उतना मैं हवा में उड़ती जाती. तुम्हारे रियाज़ से मेरी आँखें खुलतीं. मुझे लगता है यही वो वक़्त था जब तुम्हें मुझसे इश्क होता जा रहा था. तुम राधा बने श्याम के प्रेम में वृन्दावन पहुँचते और मैं होली के वक़्त टिकट बुक करा कर. अबीर और रंग के उस उल्लासोत्सव में सब भूल जाना चाहता था मन.

लौटने पर तुम्हें सुनना चाहती थी आह्लाद का वो क्षण, लिखना चाहती थी तुम्हारे हिस्से होली का एक पूरा दिन कि जब रास रचता है...कृष्ण की डायरी से चुरा कर वो होली का दिन लिखना चाहती थी तुम्हारे नाम मगर सिर्फ एक ख़त था तुम्हारा. तुम्हें मेरी आँखों से नहीं, अपनी आँखों से दुनिया देखनी थी. मेरी कलम की सियाही तुम्हारे लिए सारे रंग नहीं रच पा रही थी. उफनती गंगा में कागज़ की कश्ती लिए उतर गए. मेरा दर्प सियाही की बोतल की तरह ही चूर चूर हुआ है. इश्क के इस राग को समझने में तुम्हें वक़्त लगेगा...उम्र जब अपनी सलवटें तुम्हारे माथे पर रखेगी तब तुम्हें महसूस होगा...तुम्हें रचना तुमसे इश्क करना ही था. तुमने विरह की ये अखंड ज्योति जला दी है दिल में. तुम कच्चे हो अनुभव में. तुम्हें  मालूम नहीं, दिए की लौ में सिर्फ रौशनी नहीं होती...धाह भी होती है. तुम्हारे लौट के आने तक मेरी दुनिया का सब कुछ जल के राख हो चुका होगा.

तुम अपनी सबसे छोटी ऊँगली से मेज़ के जले हिस्से को छूना और अपनी आँखों में हल्का सा काजल छुआ लेना. मेरी आखिरी प्रार्थना है...ईश्वर तुम्हें बुरी नज़र से बचाए. 

19 November, 2013

झूलती हरियाली, नीला आसमान और बूंदों का ओपेरा

यूँ मुझे सरप्राइज होना कभी पसंद नहीं है. चीज़ों को लेकर इतनी पर्टिकुलर हूँ कि शायद ही कभी कोई मेरी पसंद का कुछ ला पाता है. बहुत कम लोग हैं जो अधिकारपूर्वक ये कह सकते हैं कि 'तुम्हें ये पसंद आएगा'. कल ऑफिस पहुंची तो पता चला हमें बेसमेंट से ऊपर शिफ्ट कर दिया गया है. ऑफिस में नया कमरा बना था कंटेंट और डिजाइन टीम के लिए, सबसे ऊपर वाले तल्ले पर. 

दरवाज़ा खोलते ही मिजाज हरा हो गया एकदम. हॉल में सफ़ेद दीवारें थीं...खुला खुला...हवादार और हर खिड़की पर झूलते हुए गमले. टेबल के पास कोई छः इंच की जगह पर छोटे छोटे फूलों वाले गमले. बहुत सारी धूप और रौशनी. ग्यारह बजे ऑफिस जाने का नतीजा ये कि सबसे अलग वाली खिड़की मिली मगर फायदा ये कि पूरी की पूरी खिड़की मेरी...किसी से शेयर करने की जरूरत नहीं. 

सीट से सामने खुला आसमान दिखता है, एकदम नीला और उसमें सफ़ेद बादल. लैपटॉप से नज़रें उठाओ और रिचार्ज हो जाओ. इन फैक्ट जगह इतनी अच्छी थी कि किसी का काम करने का मन नहीं करे...यहाँ दिन भर खयाली पुलाव पकाए और शेयर करके खाए जा सकते थे...कहानियां बुनी जा सकती थीं और खूबसूरत संगीत सुना जा सकता था. जगह इतनी अच्छी कि सुबह सुबह ऑफिस जाने का दिल करे. बाकी के ऑफिस के सारे लोग भी आ कर कह रहे थे कि ये अब वाकई क्रिएटिव रूम लगता है...कि वे भी यहाँ बैठ कर काम करना चाहते हैं. कमरे की सारी दीवारें सफ़ेद हैं सिवाए इस वाली के जिसका रंग डार्क ग्रे है...दोपहर को जब धूप गिरती है तो शेड्स बन जाते हैं और फिर बाहर के नीले आसमान को एक बेहतरीन कंट्रास्ट देते हैं. कल आइफोन से ही बहुत सी फोटो खींची...आज अपना डीएसएलआर ले कर जा रही हूँ. 

हम जिस जगह रहते हैं, उसको बेहतर किया जा सकता है कई मायनों में...इसके लिए सिर्फ सोच की जरूरत होती है. यहाँ जो गमले हैं वो नारियल रेशे की बुनी हुयी हैं, ये जोर्ज ने अपने भाई से केरला से मंगवाए थे. सन्डे को पूरा दिन वो इन गमलों की सही जगह और बाकी डेकोरेशन करता रहा. छोटी छोटी चीज़ों से कितना असर पड़ता है. थोड़ी सी हरियाली...जरा सा खुला आसमान...और क्या चाहिए? आज मैं कुछ और किताबें ले जा रही हूँ कि अब ये जगह अपनी सी लगती है, जिसे अपने हिसाब से सजाया और संवारा जा सकता है. 

ऑफिस की व्यस्ताओं के कारण लिखने का एकदम वक़्त नहीं मिला. इन फैक्ट जब से लिखना शुरू किया है, ये पहला साल है जब मैंने इतना कम लिखा है, बाकी सालों से आधा. कई बार इस चीज़ को लेकर काफी कोफ़्त होती है कि मेरे लिए जीने का मायना सिर्फ लिखने के पैमाने में नापा जा सकता है. अगर लिखती नहीं हूँ तो समझ नहीं आता कि पूरा साल गया कहाँ...किधर गायब हुआ...क्या करते बीता. यूँ बहुत सी चीज़ें की हैं प्रोफेशनली मगर उनसे जाने क्यूँ न गर्व का भाव आता है न वैसी संतुष्टि मिलती है. 

कल शाम होते होते काले बादल घिर आये और तेज़ बारिश हुयी. टप्पर की छत पर बूंदों ने ऐसी धमाचौकड़ी मचाई कि हम बगल वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को सुन नहीं सकते थे. बारिश बेहद तेज़ थी...बिजली का कड़कना दिखता और फिर जोर से बादल गरजते...ठीक बारिश के बीच बना घर जैसा कोई...एक ऐसा द्वीप जो बाकी दुनिया से कटा है. कमाल थी वो आवाज़...संगीत जैसी...ऊंचे सुर के आलाप जैसी...जहाँ कहानी का क्रेसेंडो हो. अभी जेनरेटर बैक अप नहीं है तो बिजली जाने के बाद अँधेरे में बस बिजली का चमकना...बूंदों का शोर और जाने कितनी कहानियां उमड़ती घुमड़ती हुयीं. 

शब्दों में यकीन करने वाले लोगों के लिए सब कुछ तो शब्द ही हैं...इसलिए...थैंक यू जोर्ज. 

16 November, 2013

कोहरे में सीलता. धूप में सूखता. कन्फुजियाता रे मन.

क्या करेगी रे लड़की ड्राफ्ट के इतना सारा पोस्ट का. खजाना गाड़ेगी घर के पीछे वाली मिटटी में कि संदूक में भरे अपने साथ ले जायेगी जहन्नुम? कहानी पूरा करने के लिए तुमको कोई लिख के इनवाईट भेजेगा...हैं...बताओ. दिन भर भन्नाए काहे घूमती रहती हो?

भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.

लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.

अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.

धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.

कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.

देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.

नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.

दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.

भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.

देख तो दिल कि जाँ से उठता है 
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

15 November, 2013

मुझे इश्क दिलासे देता है...मेरे दर्द बिलखने लगते हैं

तेरे जिस्म की आंच को छूते ही, मेरे सांस सुलगने लगते हैं
मुझे इश्क दिलासे देता है मेरे दर्द बिलखने लगते हैं

तू ही तू तू ही तू जीने की सारी खुशबू

तू ही तू, तू ही तू आरज़ू आरज़ू

छूती है मुझे सरगोशी से, आँखों में घुली ख़ामोशी से

मैं फर्श पे सजदे करता हूँ कुछ होश में कुछ बेहोशी से
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सतरंगी रे...मनरंगी रे
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किसी बेहद खूबसूरत चीज़ पर लौट कर आना बहुत सालों बाद. मुझे याद नहीं ठीक से ये गाना आखिरी बार देखा कब था. सुनने का सिलसिला फिर भी जारी रहता है मगर विडियो देखने की आदत नहीं है इसलिए बहुत कुछ बिसर भी जाता है. दिल से की कैसेट थी मेरे पास और दोनों साइड घिस जाने तक सुनी थी. कैसेट अटक जाती तो पेन्सिल से घुमा घुमा ठीक कर देते. धूप में रख देते. जाने किसने तो कहा था कि कैसेट अटक जाए तो धूप में रख देना...

उस दौर के कुछ बेहद पसंदीदा कैसेट्स को सुनने का एक ही तरीका था...कमरे की खिड़कियाँ बंद और सारी आवाजें कहीं और...कूलर के ऊपर मेरा टेप रिकॉर्डर बजता रहता था और मैं बेड पर औंधे मुंह पड़ी रहती थी. अँधेरे का नर्म ककून होता था जहाँ कोई पहुँच नहीं सकता था. गर्मी के लम्बे दिनों में एक ही गीत सुनते सुनते कई बार दुपहर बितायी है. इश्क के कुछ रंग ही देखे थे, उनके शेड्स चुनती रहती थी. बंद आँखों में महबूब चेहरा उभरता था...नर्म आँखें और तीखी धूप...बिछड़ते हुए रह गया कलाइयों पर उँगलियों का अहसास...

ये एकदम परफेक्ट गाना था. मुझे सिंगर्स की आवाज़ पहचान नहीं आती सिवाए सोनू निगम के...ये गीत सुना ज्यादा है देखा कम...इसलिए ख्यालों में सोनू की तस्वीर ही उभरती है...मैं उसे गाते ही देख सकती हूँ...सांस लेने का उसका अंतराल...स्टूडियो की पिन ड्राप साइलेंस वाली ख़ामोशी...और इसके शब्द. कभी जो अन्त्रक्षारी खेलते हुए ये गीत शुरू कर दिया तो समझ नहीं आता था किस लफ्ज़ पर ठहरूं. गुलज़ार की ऐसी मास्टरपीस जो एकदम नैचुरल लगती है...प्रतीक भी ऐसे कि चुभते जायें जैसे यादों में कील उगी हो कोई...

जितने खूबसूरत लफ्ज़ वैसी ही सिनेमाटोग्राफी. सोचती ये हूँ कि कोई डायरेक्टर कहाँ तक सोच में रच पाता है पत्तों के गिरने का सम्मोहन या कि संगीनों के साए में इश्क की ऐसी दास्तान जो ख़त्म होकर भी ख़त्म नहीं होती. युद्द के बैकड्राप में इश्क का नाज़ुक ताना-बाना बुनना कितना मुश्किल और खूबसूरत है. डांस के हर स्टेप में जैसे खुद को खो देने की जिद आती है...तबियत से...सुरूर से...दीवानगी से...
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ऐसा ही न था उस उम्र में इश्क...मर मिटने की दीवानगी लिए हुए. जिद बांधे हुए. सब कुछ फना कर देने और उफ़ तक न करने वाला. सब कुछ वर्थ इट लगता था. जीने का मकसद सिर्फ इश्क हो तो भी कोई शिकायत नहीं. कितनी बड़ी चीज़ लगती थी उन दिनों किसी से इस तरह दीवानगी से प्यार करना.

फिर कोई तो बात होगी कि इश्क को कटघरे में खड़ा कर बिना उसकी कोई भी फरियाद सुने 'rarest of the rare'केस मानते हुए, ऐसा कुछ फिर कभी न घटे, इश्क को सजाये मौत सुना दी है. इश्क की आँखों की बुझती आखिरी रौशनी से अपने घर का दिया जलाती लड़की सोचती है सुकून से जीना कोई ऐसी तकलीफदेह हालत नहीं. गहरी सांस लेती है. ऐसा कोई गीत मगर उम्मीद का कोई बिरवा रोप जाता है कि अगले जन्म इश्क फिर खतरनाक इरादे लेकर पैदा होगा और इस बार लड़की से बदला लेना ही उसके जीवन का उद्देश्य रहेगा. इश्क की रूह लड़की के जिस्म में कैद है...इश्क का जिस्म गंगा किनारे ख़ाक. उसकी आवाज़ मगर किसी गीत में फिर जी जाती है और लड़की के दो टुकड़े हो जाते हैं...जिंदगी और मौत के बीच सदमे में झूलती इस गीत पर थिरकती है लड़की...
कातिल होता है मंज़र. उसके घुँघरू का एक सुर भी सुन लोगे तो किसी रास्ते लौट नहीं पाओगे. इससे पहले कि इश्क का जहर साँसों में उतरे, इसे पॉज कर देना. 

13 November, 2013

थ्री डेज ऑफ़ समर

यूँ रोज़ का जीना तो हो ही जाता है तुम्हारे बगैर. तुम्हारी आदत ऐसी भी कुछ नहीं है कि बदन से सांस छीन ले जाए. हाँ एक दिल है ज़ख़्मी जो गाहे बगाहे दुखता रहता है. नसों में धड़कन की रफ़्तार थोड़ी मद्धम सही, तुम्हारे बिना कई साल और जीने का माद्दा तो है मुझमें.

कभी कभार ही ऐसे बेसाख्ता याद आती है तुम्हारी. लू के थपेड़ों में जलते बदन के ताप जैसी. माथे पर लहकी आग जैसी. जंगल में फूले पलाश जैसी. चारों ओर फिर कुछ नहीं बचता एक तुम्हारे नाम के सिवा. तुम्हारा है ही क्या मेरे पास जो जोग के रखूं मैं. ले देकर कुछ तसवीरें हैं, कुछ वादे, झूठे मूठे, कुछ कहानियों के किरदार हैं तुम्हारी तरफदारी करते हुए. तुलसी चौरा में जल ढारते हुए कभी तुमको सोच लिया था. हनुमान जी की ध्वजा पर अटका हुआ तुम्हारा इंतज़ार है...पुरवा में बहता...दस दिशाओं को एक अधूरी इश्क की दास्तान कहता. चाचियों के ताने में जहर सा घुलता. यूँ तुम्हारे बिना पहले भी जीना कोई नामुमकिन तो नहीं था, मुश्किलों में जीने की आदत गयी कहाँ थी. तुम थे तब भी तो हज़ार परेशानियाँ थी जिंदगी में.

बिट्टू की फीस भरनी थी...माँ के लिए नयी साड़ियाँ लानी थीं. बड़की दीदी के नंदोई को बेटा हुआ था. हफ्ते भर का भोज रखा था उसकी सास ने. गुड्डू के हॉस्टल में पैसे भेजने थे. रोज रोज की जिंदगी में  बारिश के झोंके की तरह ही तो आये थे तुम. यूँ तुमने कभी कोई वादा भी तो नहीं किया था कि एक तुम्हारे होने से सर पर हमेशा गुलमोहर की छाँव रहेगी...अमलतास के गीत रहेंगे...तितलियों की उड़ान रहेगी. जिंदगी होम ही तो कर दी थी मैंने घर के लिए, अपने घर के लिए. आखिर बड़ी बेटी का भी कुछ फ़र्ज़ होता है. तो क्या हुआ अगर मेरे होने पर माँ ने अनगिन ताने सुने थे...तुम बस सूखी हवा की तरह लहकाने आये थे मेरी आंच को. तुम जितने दिन रहे...कितने ताप से जलती थी मेरी अंतरात्मा.

आँखें बंद करने से रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती मगर हम अँधेरे के लिए बेहतर तैयार हो जाते हैं. मैं जानती थी तुम्हारा छल. सदियों से. जैसे कि कृष्ण को महाभारत का अंत...फिर भी अपना कर्म तो करना ही था. तुम्हारे आने पर अगर मैं बदल जाती तो तुम कितने बड़े हो जाते. जो किसी के लिए कभी न बदली, तुम्हारे लिए कोई और हो जाती तो शायद खुद से जिंदगी भर आँख न मिला पाती. अभी भी मेरा इतना अभिमान तो है कि मैंने तुम्हें अपनी तरह से चाहा. तुम्हारे आने का मौसम था...तुम्हारे जाने का मौसम है.

अच्छा सुनो, तुम सच में कह पाते थे इतना सारा झूठ? थियेटर के नामचीन कलाकार हो...शब्द, रंग, रौशनी पर तुम्हारी बेहतरीन पकड़ है ये तो मानना पड़ेगा. इतने सालों से नियत लोगों के सामने लाइव परफोर्म करते आ रहे हो. ऑडियंस का मूड समझते हो...उसके हिसाब से स्क्रिप्ट में भी वहीं बदलाव कर देते हो. मुझसे भी ऐसा ही था न प्यार तुम्हारा? तुम्हारी आवाज़ की मोड्यूलेशन ऐसी थी कि लगता था दुनिया की सारी तकलीफें ख़त्म हो गयी हैं. तुमने वो तीन शब्द अनगिनत लोगों को कई माहौल और मूड में बोले होंगे, हर बार उनकी पसंद और मूड भांपते हुए. लेकिन सुना है कि बहुत सारे किरदार जीने से एक्टर भूल जाता है कि वो वाकई में कैसा है. उसकी ओरिजिनल हंसी कैसी है...बिना मिलावट का प्यार कैसा है...अनगिन मुखौटे लगाने वाले लोगों के लिए आइना भी कारगर नहीं होता...हमेशा कोई और अक्स दिखाता है. शायद किसी के आँखों में तुम अपने आप को पा सकते. मगर तुम्हें खोना कहाँ आता है...जरा सा अपने को गिरवी नहीं रखोगे तो कैसे पाओगे कुछ भी वापसी में. लेकिन तुम्हें इसकी चाहत नहीं होगी शायद. तुम सिर्फ जायका बदलने के लिए इश्क को करते हो. झूठ को जीना तुम्हारे लिए खुशनुमा रहा है. इसलिए तुम्हारे हिस्से मेरी दुआएं नहीं हैं.

तुम यूँ ही दफन रहो शहर के बाहर की परती जमीन पर नागफनियों के साथ. मुझे जाने क्यूँ तुम्हारा क़त्ल कर देने का अफ़सोस कभी नहीं नहीं होता है. अफ़सोस यूँ तो तुमसे इश्क करने का भी कभी नहीं होता है. जबसे तुम्हें दफनाया है इत्मीनान रहता है कि किसी रात तुम अपने हिस्से का इश्क मांगने नहीं पहुँच जाओगे. मैंने तुम्हारे जैसा भिखारी कहीं नहीं देखा. गरीब से गरीब आदमी बुद्ध के लिए अपनी झोली से एक मुट्ठी अनाज दे सकता था मगर तुम ऐसे कृपण थे कि अपनी ओर से बुआई के लिए अन्न तक नहीं देते.  यूँ तुम्हारा क़त्ल अपने हाथों करने की जरूरत नहीं थी...किसी और से भी करवा सकती थी मगर सुकून नहीं आता.

ठंढ के दिन थोड़े मुश्किल होते हैं मानती हूँ मगर इतना भी नहीं कि तुम्हारी आवाज़ के अलाव के बिना रात ठिठुरते हुए मर जाए. वो दिन याद हैं जब तुम्हारी आवाज़ को ऊन की तरह उँगलियों में लपेट कर कविताओं का मफलर बुना था. नर्म पीले रंग का. उस सर्दियों में मेरा गला  कभी ख़राब नहीं हुआ. इन जाड़ों में सोच रही हूँ अपने पुराने प्यार कीट्स से फिर से इश्क कर बैठूं, सच ही कहता था न...

“I almost wish we were butterflies and liv'd but three summer days - three such days with you I could fill with more delight than fifty common years could ever contain.” 
― John Keats

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