26 December, 2013

ये आकाशवाणी है...सबसे पहले हम सुनेंगे समाचार रात ८ बजे.

मिश्रा साहब आज रिटायर हो रहे थे...अपनी नौकरी के ३० सालों तक उन्होंने आकाशवाणी की सेवा की...सभी अधिकारी अभिभूत थे। उनके जैसा अनुभव किसी को भी नहीं था। पटना में पहला एफ एम चैनल खुला तो उन्होनें बहुत कोशिश की कि मिश्रा जी उनका औफिस ज्वायन कर लें मगर मिश्रा साहब की जिन्दगी आकाशवाणी की लाल दीवारों के नाम थी। शहर की बाकी आधिकारिक इमारतों से इतर आकाशवाणी बिल्डिंग का अपना व्यक्तित्व था, ऐसा मिश्रा जी का यकीन था।

सभी उन्हें घेर कर बैठे थे। नयी पीढ़ी के अपने सवाल थे, मिश्रा जी का बहुमूल्य अनुभव संजो कर रखने लायक था, तकनीकी पक्ष हो या कि सीनियर औफिसरों के साथ अच्छी ट्यूनिंग के रहस्य, मिश्रा जी का खजाना खुला था आज, जो जवाब चाहिये, सब मिलेंगे। जैसा कि दस्तूर था, एक टाइटन की घड़ी और प्रशस्ति पत्र के साथ एक शॉल दी गयी और प्रोग्राम खत्म । खाने पीने के शोरगुल में फिर लोग मिश्रा जी को भूल गये। किसी ने उनके चेहरे की बेचैनी नहीं पढ़ी। मिश्रा जी को बस एक बेचैनी खाये जा रही थी और वो चाहते थे कि कोई उनसे वो सवाल करे जिसका जवाब लिये वो पिछले कई सालों से घूम रहे हैं...जाने से पहले उन्हें एक प्रायश्चित्त करना था। कह देने से उनके दिल का बोझ हल्का हो जाता। वो सुनना चाहते थे कि जो उन्होनें किया वो उन्हें बाकी सबों से एक अलग पहचान देता है...वो कहीं यादों में अमर होना चाहते थे।

सवाल ये था, आप इतने सालों से अाकाशवाणी में ही क्यूं टिके हुये हैं। सवाल किसी को जरूरी नहीं लगा क्युंकि मिश्रा जी की उम्र के बाकी लोग भी अपनी अपनी संस्थाओं के प्रति ताउम्र वफादार रहे। मिश्रा जी मगर जिस उम्र की बात कर रहे थे, उसमें उड़ान थी...उनके सपनों में भी दिल्ली की बेदिली देखने की हसरतें थीं...मुम्बई के धक्के खाने का जज़्बा था..आज शायद किसी को यकीन न हो इस बात पर, मगर एक ज़माने में मिश्रा जी बड़े हंसोड़ हुआ करते थे. ये उस वक्त की बात है जब मिश्रा जी का ये नामकरण नहीं हुआ था. उस समय लोग उन्हें दिलीप बुलाया करते थे. बेहद खूबसूरत मिश्रा जी जब जन्मे थे तो दिलीप कुमार पर फ़िदा उनकी माँ ने उनका नाम दिलीप रख दिया था. स्कूल कॉलेज में दिलीप के फिल्मों में जाने के चर्चे आम थे. छोटी उम्र में सपनों को लिमिट नहीं पता होती. दिलीप को कहाँ मालूम होना था कि मजबूरी में बहन की शादी के साथ ही उनकी जीवनसंगिनी भी तय हो जायेगी.

मगर ये सब भी बहुत बाद की बात है. कहानी जहाँ से शुरू होती है, वहां दिलीप को कॉलेज के एक प्रोग्राम के सिलसिले में आल इण्डिया रेडियो जाना पड़ा था. वहां के डायरेक्टर को दिलीप भा गया. लड़के में कुछ ख़ास तो था. उस वक़्त एक नार्मल सी वेकेंसी निकली थी. छोटे दफ्तर में काम बहुत ज्यादा खाकों में बटा हुआ नहीं होता है. तो पेपर बॉय से लेकर टेलेफोन ऑपरेटर तक सब करना दिलीप का काम था. रोज चार घंटों की छोटी सी शिफ्ट होती थी. कॉलेज के बाद रोज दिलीप एआईआर चला जाता था. पैसों से छोटा मोटा जेब खर्च निकल आता था. अक्सर शाम के प्रोग्राम की कहानी भी वही लिखता था.

बहुत सारे आर्टिस्ट्स से भी मिलना जुलना होता रहता था. धीरे धीरे रेडियो के प्रति उसकी भी समझ विकसित होने लगी थी. क्या प्रोग्राम होना चाहिए, क्या लोगों को पसंद आएगा. इस बीच एक दिन उसके हाथ बहुत सी चिट्ठियां लगीं. उसे लगा क्यूँ न एक ऐसा प्रोग्राम बनाया जाए जिसमें लोग पुरानी चिट्ठियां भेजें और रेडियो एनाउंसर उसके इर्द गिर्द कहानी बना कर प्रेजेंट करे. आइडिया बेहतरीन था. लोगों को तुरंत पसंद आया. इन्टरनेट और मोबाईल के ज़माने में भी चिट्ठियों का वजूद कहीं था. उसने जो पहली चिट्ठी पर बेस्ड कहानी बनायी थी वो दरअसल उसके पिताजी की थी और इसलिए उसने घर में बहुत डान्ट भी खायी थी. मगर उस उम्र में वो चिकना घड़ा था, इधर से सुनता उधर से निकाल देता. खोजी जासूस की तरह रद्दी की दुकानों की ख़ाक छानता...पुराने ख़त तलाशता. प्रोग्राम सुपरहिट था. हर उम्र के लोग ट्यून इन करके सुनते थे. यही वो वक़्त था जब पहली बार शहर में ऍफ़एम चैनल आया था. उसने इस उभरते सितारे की तारीफ सुनी तो उसे कई प्रलोभन दिए मगर दिलीप को न जाना था न गया.

ठीक यहीं हुआ था वो छोटा सा हादसा जिसने दिलीप के पैर बरगद की तरह रोप दिए उसी जमीं पर. एक रोज़ शाम के प्रोग्राम के लिए म्यूजिक शोर्टलिस्ट कर रहा था कि फोन की घंटी बजी...उस तरफ कोई बड़ी मासूम सी आवाज़ थी.
'आप दिलीप हैं न?'
'जी, क्या मैं जान सकता हूँ मैं किससे बात कर रहा हूँ?'
'आपने कभी किसी को ख़त लिखे हैं?', आवाज़ बेहद दिलकश थी.
'नहीं'
'क्यूँ?' सवाल बेहद पेचीदा...दिलीप का पहली बार ध्यान गया कि उसके ऐसे कोई दोस्त नहीं रहे जिन्हें वो ख़त लिख सके...उसकी पूरी जिंदगी इस छोटे शहर के इर्द गिर्द ही लिपटी हुयी है. आज एक छोटे से सवाल से कितने सारे सवाल उठ खड़े हुए...बागी सवाल...जो कि भाग जाने के लिए उकसाने लगे.
'आपने मेरे खतों के अफसाने बना दिए...बहुत गलत किया. मैं आपको कभी माफ़ नहीं करुँगी'
और फोन कट गया...किसी नाज़ुक सी लड़की का दिल दुख गया ये सोच कर ही दिलीप के सीने में हूक सी उठने लगी. उस दिन पहली बार उसने सिगरेट जलाई थी. खांसते खांसते इतना दर्द हुआ कि कायदे से दिल में चुभी बात निकल जानी चाहिए थी...मगर ये तो ग़ालिब का 'तीरे-नीमकश' था. इतनी आसानी से भला कैसे निकलता.

उस रोज़ घर आया तो भयानक सर दर्द हो रखा था. उसकी इच्छा कमरे में गुलाम अली सुनते हुए सो जाने की थी. भूख तो कब की मर चुकी थी. मगर ऊपर वाले की इच्छा के बाहर किसका जोर चलता है. घर पहुंचा तो देखा कि उत्सव का माहौल है. अचानक उसे याद आया कि पिताजी बहन के रिश्ते से लौटे होंगे. जमघट लगा हुआ था. बहन की सहेलियां, बहुत से रिश्तेदार, पड़ोसी...सभी आये हुए थे. रात को जब घर थोड़ा शांत हुआ तो पिताजी ने बुलाया था उसे. लड़के वालों को बहन तो पसंद आई ही थी, दिलीप भी उन्हें भा गया था. लड़के की चचेरी बहन के साथ दिलीप का रिश्ता तय कर आये थे पिताजी. दोनों शादियाँ छः महीने बाद थीं. दिलीप इस अचानक हुए फैसले के लिए एकदम तैयार नहीं था मगर पिताजी की बात बचपन से आज तक टाली भी कब थी. जिंदगी की जद्दोजहद शुरू हो गयी.

अगले रोज फिर वही फोन आया था. आज मगर उस लड़की का बहुत सी बातें करने का मन था. वो दिलीप को उस लड़के के बारे में बताती गयी जिसे उसने चिट्ठियां लिखी थीं. दिलफरेब किस्से...उसपर आवाज़ ऐसी दिलकश कि रश्क होने लगता उस लड़के से जिसकी वो बात कर रही थी. लड़की कहती थी कि उसे इश्क भूलना नहीं आता...दिलीप ने बहुत से गायक, शायर वगैरह देखे हैं, उसे भुलाने का कोई नुस्खा जरूर मालूम होगा. दिलीप को प्यार कभी हुआ नहीं था जो उसे भूलने की आदत हो मगर वो उसके लिए उसकी पसंद के गानों का वादा कर सकता था. घर पर शादी की तैय्यारियाँ जोरों से थीं और इधर उस अनजान लड़की से बातें बढ़ती ही जा रहीं थी. दिलीप उसके बारे में कुछ भी पूछता तो वो बताती नहीं. लड़की का नशा होता जा रहा था उसे.

ऑफिस के अपने कमरे में दिलीप ने कई सारी कतरनें रखी थीं...कभी बाद में फुर्सत से अलग करने के लिए. इसी में अनगिन चिट्ठियों के साथ उसे उस लड़की की तस्वीर भी मिल गयी. अब तस्वीर के साथ किसी को तलाशना मुश्किल तो था नहीं उस छोटे से शहर में. हर कबाड़ी वाले के पास जाने का एक्स्ट्रा काम उसने अपने सर लिया. चौथे दिन उसके घर का पता मिल गया. वो सारी चिट्ठियां, उसकी तसवीरें और बहुत सा कबाड़ एक ही दिन बेचा गया था. दिलीप ने उसके घर का पता नोट किया कि एक बार मिल के देख ले उसे...तसल्ली हो जायेगी.

रात करवटों में कटी. किसी के घर जाने का सबसे सही वक़्त कौन सा होता है? बहुत सोच समझ के दिलीप ने तय किया शिफ्ट के ठीक एक घंटा पहले चला जाएगा. शाम के चार बजे की हलकी सर्दियाँ थीं. उसने अपना पसंदीदा नीली धारियों वाला सफ़ेद स्वेटर पहना और उसके घर की ओर निकल गया. उसका घर लगभग शहर के आखिरी छोर पर था. पहुँचने में बीस मिनट लग गए. दरवाजा एक बेहद उदास आँखों वाली सभ्रांत महिला ने खोला. घर में अजीब सी ख़ामोशी थी. अन्दर आने का आग्रह उससे टाला नहीं गया. पानी पीकर उसने कहा कि वो पिहू से मिलने आया है, बस थोड़ी देर में चला जाएगा. उन्होंने कुछ कहा नहीं, अपने पीछे आने का इशारा किया. एक छोटे से कमरे का दरवाजा खोला, अन्दर हलके नीले रंग का सब कुछ था...दीवारें, परदे, लाइट्स...बहुत सी फ्रेम्स में लगी तसवीरें. ये पिहू का कमरा था. नज़रें सारा मुआयना करते हुए एक तस्वीर पर ठहर गयीं...वही तो थी...पिहू...हंसती हुयी, उसके पास जो तस्वीर थी उससे अलहदा...फ्रेम पर अपराजिता के नीले फूलों की माला लटकी हुयी थी. उसे चक्कर आ गए...अचानक से पीछे हटा और दीवार का सहारा लिया. 'ये कब की बात है?'
'पिछले साल की?'
'आर यू स्योर?'
'मैं उसकी माँ हूँ'.
दिलीप ने उसकी चिट्ठियां दिखायीं...और उन्होंने कन्फर्म किया कि ये उसी की हैण्डराईटिंग है. दिलीप में हिम्मत नहीं थी कि उन्हें पूरी बात बताये...उसकी बात का यकीन करता भी कौन. वापस ऑफिस आते हुए उसे समझ नहीं आ रहा था कि आवाज़ के पीछे भागने के लिए खुद को गलियां दे या सच्चाई जान जाने के लिए खुद की पीठ ठोके. फोन लेकिन नियत समय पर आया.
'तुम कौन हो?...और फोन कैसे कर रही हो?'
'मैं खुद तुम्हें बता देती मगर बताओ सही...फिर तुम मुझसे बात करते?'
'शायद नहीं...मगर ऐसी कौन सी बात इतनी जरूरी थी'
'उसे भूलना जरूरी है मेरे लिए दिलीप वरना मैं इस दुनिया से कभी नहीं जा पाउंगी...हमेशा के लिए यहीं भटकती रह जाउंगी...प्लीज मेरी हेल्प कर दो'.
दिलीप को अचानक से लगा जैसे पूरी ईमारत बर्फ की बनी हो और ठंढ उसके दिल को बर्फ करती जा रही है. वादा मगर वादा था. वो रोज़ अपने नियत समय पर ऑफिस आता. उसकी कहानी सुनता और अपने हिसाब से उसकी मदद करता. इस बीच उसे कई और जगह जाने के ऑफर आये मगर उसका मन उसी टेलेफोन से जुड़ गया था. जब तक पिहू की आत्मा को मुक्ति नहीं मिल जाती वो कहीं नहीं जा सकता था.

शादी के दिन उसे बार बार पिहू की याद आती रही. उसके घर में टंगी उसकी तस्वीर में वो लाल जोड़े में थी...मुस्कुराता चेहरा...कितने भोले अरमान थे उसकी आँखों में. अपनी पत्नी का चेहरा उसे बेहद मासूम लगा. उसने खुद से वादा किया कि वो ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे उसकी पत्नी उससे इतना प्यार करने लगे कि मरते हुए भी उसकी आत्मा जा न सके...दुनिया और दिलीप के बीच एक अदृश्य दीवार उसी दिन खिंच गयी थी. वो लोगों को अपने करीब आने ही नहीं देता. ऑफिस में उसके चुटकुलों पर लगते ठहाके बंद हो गए थे. वो कई बार लोगों पर झुंझला जाता. धीरे धीरे उसे मालूम ही नहीं चला कब उसका नाम दिलीप की जगह मिश्रा जी हो गया और ऑफिस का हर कर्मचारी अपने सारे समस्याओं का हल उससे मांगने लगा. वो जितना लोगों से दूर जाता...लोग उतनी ही उसे अपनी जिंदगी में शामिल करते चले जाते. पिहू का फोन भी अब कम आता...कभी कभी सिर्फ ब्लैंक काल्स आते.

रिटायर्मेंट के दिन जैसे जैसे पास आ रहे थे...काल्स एकदम ही बंद हो गयी थीं. इधर तो कई महीनों से उसका कोई ब्लैंक कॉल भी नहीं आया. आकाशवाणी का दफ्तर सूना, खामोश और अकेला होता जा रहा था. घर वापस लौटते हुए चाँद, पेड़ और गंगा भी चुप रहती थी. घर पर बच्चे बड़े हो गए थे और अपने सपनों की तलाश में नए शहरों में जा के बस चुके थे.

कल उनका रिटायर्मेंट सेलेब्रेशन था. लोग उन्हें ख़ुशी ख़ुशी विदा कर रहे थे. उन्हें पूरा यकीन था कि पिहू का कॉल जरूर आएगा. रात होने को आई...सब लोग अपने अपने घर चले गए. वे बताना चाहते थे लोगों को कि कैसे कम पैसों की इस नौकरी को उन्होंने सिर्फ इसलिए बचाए रखा कि पिहू उनसे मदद मांग रही थी किसी को भूलने के लिए...रोज़ रोज़ बिना नागा किये, सिर्फ उसकी कहानी सुनने आते थे वो...कि इतने सालों बाद पिहू शायद अपने आसमान में खुश है...कि ब्लैंक काल्स पिहू नहीं करती. कि वो पिहू से प्यार नहीं करते...कि पिहू उनसे प्यार नहीं करती. वो तो बस उसे उस लड़के को भूलने में मदद कर रहे थे. उनकी कहानी किसी ने पूछी ही नहीं. मिश्रा जी ने अपना सामान पैक कर लिया था. आखिरी सादे कागज़ पर वे पहली बार ख़त लिखने बैठे थे...अपनी पिहू को...कि अपना फ़र्ज़ उन्होंने पूरा कर दिया था.


फोन बजा था...


'दिलीप'
'हाँ'
'एक ख़त लिखने में इतनी देर कर दी'

16 December, 2013

अाँख बंद करने में क्या जाता है


अगर अाप को खुद की अौकात पता न हो तो दिन में ऐसे अनगिन लोग अायेंगे जिनका अापके जीवन में होने का इकलौता उद्देश्य ये होगा कि अापको अापकी अौकात याद दिलाते रहें। यूं अपनी अौकात बड़ी पर्सनल चीज़ है, मगर इतनी पर्सनल कि सार्वजनिक, जैसे पटना के गर्ल्स स्कूल के उस लेस्बियन अफेयर का अभी याद अाना...कैसी दो लड़कियां थीं वो, साथ वैसे ही रहतीं जैसे स्कूल की बाकी लड़कियां, फिर उनके प्यार में ऐसा क्या था कि उनके चर्चे लंच की रूखी रोटी में अचार का जायका डाल देते थे? पता नहीं सच क्या था, वे नॉर्मल बेस्ट फ्रेंडस भी तो हो सकती थीं, फिर स्कूल में एन्टरटेन्मेंट की कमी को ध्यान रखते हुये सर्व सम्मति से बिल पास हुअा कि सब को उनके बारे में अफवाह फैलाने की पूरी इजाजत है, बशर्ते अफवाह में सच की कोइ मिलावट न हो। ऐसे किसी भी अफेयर के बारे में वो मेरा पहला इन्ट्रो था। फिर याद तो इस्मत की कहानी 'लिहाफ' भी अा रही है, उसका मुकदमा, मंटो के साथ की उसकी बातें भी 'तुमने एक ही तो तबियत से कहानी लिखी है'। 

अाजादी। द अायरनी अॉफ इट...किलर। हम कैसे देश में रहते हैं जहाँ का सर्वोच्च न्यायालय निर्णय लेता है कि बंद कमरे में दो वयस्क अपनी मर्जी से जो करें उनका पर्सनल नहीं सामाजिक मामला है! एक तरफ गे/लेस्बियन रिलेशन क्रिमिनल हैं लेकिन मैरिटल रेप के मामले में कोइ ठोस लॉ नहीं हैं, ना ही ये एक क्रिमिनल ओफेन्स है। जहाँ इन्वोल्व होना चाहिये वहाँ पीछे और जहाँ स्पेस देने की जरुरत है वहाँ अपना कानून चला दिये। ये कैसा इंसाफ है? 

हर कुछ दिन में चैन की साँस लेने के दिन अाते हैं तो ऐसा ही फैसला कोई भी सुना कर हमारी अौकात याद दिला दी जाती है, ठंढे पाले में चलो इंडिया गेट पर, मोमबत्ती जलाते हैं...सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेहद निराशा हुयी। मुझे एक तो समाज चलाने के नियम वैसे ही खास समझ नहीं अाते। ये क्या कम बुरा है कि LGBT को हर तरफ मजाक का विषय बनाया जाता है कि वापस इसे इलिगल भी बना दिया गया। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक जजमेंट दिया था। सोचो, एक प्यार के बीच कितने लोगों से परमिशन लेनी पड़ती है. हर तरह का कानून सही लोगों के खिलाफ अौर गलत लोगों के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। 

कोलेज में बहुत सी चीज़ें सीखीं पर जो सबसे जरुरी लेसन था वो ये कि लोगों को उनके हिस्से के निर्णय लेने की स्वतंत्रता अौर उनके फैसले का हर हद तक सम्मान...यही एक बेहतर मनुष्य की पहचान होती है। किसी के मुश्किल निर्णयों में हमेशा उसके साथ खड़े रहना, न कि खिलाफ, चाहे तुम्हें वो फैसला कितना भी गलत लगे। अपनी गलतियों से सीखना सबका बुनियादी अधिकार है। अपनी खुद की खुशियाँ तलाश करना भी। 

किसी भी तरह की माइनोरिटी होना त्रासद होता है, कम से कम इसे क्रिमिनल ना किया जाये। अपने देश के संविधान अौर न्यायपालिका पर अब भी मेरा पूरा विश्वास है...शायद ये अपने देश से प्यार के कारण ही है...उम्मीद है, हमारे नेता सिर्फ हवा में बातें ना करेंगे बल्कि कुछ कारगर करेंगे। तब तक के लिये सिर्फ प्रार्थना कि हमारे देश को थोड़ी सद्बुद्धि अाये।

मेरा नया मैक बुक प्रो

इधर बहुत दिन से अपना पर्सनल लैपटौप नहीं था पास में. पिछली बार जब सोनी वायो खरीदा था तो देखा था कि मैक में हिन्दी टाइपिंग का कोई ऐसा औप्शन नहीं था जिसे इस्तेमाल किया जा सके. मेरे लिये लैपटौप का अच्छा काम करना जितना जरुरी था उतना ही जरुरी था कि दिखने में भी अच्छा हो. लाल रंग का वायो मुझे बेहद पसंद था. उसपर कुछ बहुत पसंदीदा लिखा भी. फिर पिछले साल, बिना किसी वार्निंग के वो क्रैश कर गया. अपने साथ मेरा कितना कुछ हमेशा के लिये लेकर. हार्ड डिस्क से अाजतक भी कुछ रिकवर नहीं हुअा. इस बीच काम के लिये औफिस से नया लैपटौप मिला, डेल का...मैंने उससे बोरिंग पीसी अाजतक नहीं देखा. जहाँ मुझे कलम तक अलग रंगों में चाहिये होती है, वहाँ उस लैपटौप पर कुछ लिखने का मन ही करे. साल होने को अाया, अाखिर सोचा कि अब अौर इंतज़ार नहीं...नया लैपटौप लेना ही होगा.

दूसरी परेशानी अौफिस के काम को लेकर थी, लैपटौप बेहद स्लो है. मुझे मेरी सोच की रफ्तार से चलने वाला कुछ चाहिये था. दिन भर स्लो लैपटौप में काम करने से वक्त भी ज्यादा लगता अौर इरिटेशन अलग होती. कलम के बजाये लैपटौप पर ज्यादा लिखने की अादत भी इसलिये पड़ी कि लैपटौप फास्ट ज्यादा है. फिर से अॉप्शन देखे तो मैक के बराबरी का कुछ भी नहीं दिखा...दिक्कत सिर्फ ये थी कि मैक में लिखने के लिये सब कुछ फिर से सीखना पड़ता. इतने सालों से गूगल का ट्रान्सलिटरेट टूल इस्तेमाल करने के बाद बिना सोचे टाईप करने की अादत बन गयी है...लिखना एकदम एफर्टलेस रहा है. यहाँ हर शब्द लिखने के बाद देखना पड़ता है. रफ्तार इतनी स्लो है कि कोफ्त होती है. मगर उम्मीद पे दुनिया कायम है...मूड बना कर स्टोर गये तो देखे कि जो पसंद अा रहा है करीब ९० हज़ार का है. इतना सोच के गये नहीं थे, वापस अा गये. फिर शुरु हुअा अपने को समझाने का वही पुराना सिलसिला जो हर महँगी चीज़ की इच्छा हो जाने पर होता है...जस्टिफाय करना खुद को कि मुझे इतना महँगा सिस्टम क्यूँ चाहिये. मन कहता इतनी मेहनत करती हूँ अाइ टोटली डिजर्व इट. फिर लगे कि फिजूल खर्ची है...कहीं पर थोड़ा ऐडजस्ट कर लूँ तो कम पैसे में बेहतर चीज अा सकती है, मन कौम्प्रमाइज करना नहीं चाहे, उसे या तो सब कुछ चाहिये, या कुछ भी नहीं।

नया मैक प्रो हाल में ही अाया था। रिव्यु सारे अच्छे दिखे। अब सारी अाफत सिर्फ इस बात की थी कि नये सिरे से सब सीखना कितना मुश्किल होने वाला है। दिन भर सोचा, फिर लगा, अाज नहीं कल करना ही है, जितनी जल्दी शुरु हो जाये, सुविधा ही रहेगी। हिन्दी टाइपिंग सारी फिर से सीखनी होती...काल करे सो अाज कर...मेरे वाले प्रो में ५१२ जीबी रैम है, रेटिना डिस्पले है अौर इसका वजन सिर्फ १.५ किलो है। कैलकुलेट किया तो देखा कि इससे ज्यादा वजन तो पानी की बोतल जो लेकर चलती हूं उसका होता है। नया मौडल पुराने वाले से कहीं ज्यादा हल्का भी है अौर तेज़ भी...इसमें फ्लैश मेमोरी है, गिरने पर भी डेटा खराब नहीं होगा, काफी तेज भी है। दो हफ्ते होने को अाये इस्तेमाल करते हुये, बहुत प्यारी चीज़ है।

अगर अाफत है तो सिर्फ ये, कि इस पर अभी लिखने की अादत नहीं बनी है, थोड़ा वक्त लगेगा। दूसरी अाफत है कि इस पर हिन्दी लिखना मुश्किल है काफी...बहुत सी मात्राअों के लिये शिफ्ट दबाना पड़ता है, कुछ के लिये तो अौप्शन की अौर शिफ्ट की, दोनो दबाना पड़ता है, इसके बाद जा के तीसरा की दबाते हैं। फिलहाल लिखना दुःस्वप्न जैसा है। हर अक्षर लिखने के पहले सोचना पड़ता है, कभी कभी लगता है कि क्या अाफत मोल लिये। स्पीड भी बहुत स्लो है टाइपिंग की। कितना कुछ तो बस लिखने के अालस में नहीं लिखती हूं। पर धीरे धीरे स्थिति बेहतर हो रही है। साल खत्म होने को अाया, कुछ नया, इस साल के जाते जाते। १३ इंच का मेरे मैक मेरी रिसर्च के हिसाब से ये अभी दुनिया का सबसे अच्छा लैपटौप है :)

मुश्किलें बहुत हैं...पर सीखना जारी है। जस्टिफिकेशन भी कि मुझे यही लैपटौप क्युँ चाहिये था। वो सब चलता रहेगा। फिलहाल I am trying to prove to myself, I am worth it :) वो लोरियल के ऐड जैसा। गिल्ट है जोर से। पर बाकी खर्चे पर कंट्रोल कर लूंगी, अौर खूब सारी मेहनत से काम करूँगी इसपर वगैरह वगैरह, फिर कुणाल ने न खरीदा होता तो हम खुद से थोड़े इतना महंगा लैपटौप खरीदने जाते, ये तो गिफ्ट है...इतना क्या सोचना। हज़ार अाफतों वाली जिन्दगी में, डूबते को तिनके का सहारा है मेरा मैक। दिसंबर महीने का मेरा प्यार का कोटा फुल :) इंस्टैन्ट लव। हाय मैं सदके जावां...बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला :) :)

11 December, 2013

सवालों का बरछत्ता

मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?

कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?

मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा। 

08 December, 2013

एकांत मृत्यु


कैसा होता है...बिना खिड़की के कमरे में रहना...बिना दस्तक के इंतजार में...चुप चाप मर जाना. बिना किसी से कुछ कहे...बिना किसी से कुछ माँगे...जिन्दगी से कोई शिकवा किये बगैर. कैसे होते हैं अकेले मर जाने वाले लोग? मेरे तुम्हारे जैसे ही होते हैं कि कुछ अलग होते हैं?

अभागा क्यूँ कहती थी तुम्हें मेरी माँ? तुम्हारे किस दुख की थाती वो अपने अंदर जिये जाती थी? छीज छीज पूरा गाँव डूबने को आया, एक तुम हो कि तुम्हें किसी से मतलब ही नहीं. मुझे भी क्या कौतुक सूझा होगा कि तुमसे दिल लगा बैठी. देर रात नीलकंठ की परछाई देखी है. आँखों के समंदर में भूकंप आया है. कोई नया देश उगेगा अब, जिसमें मुझ जैसे निष्कासित लोगों के लिये जगह होगी. 

रूह एक यातना शिविर है जिसमें अतीत के दिनों को जबरन कैदी बना कर रखा गया है. ये दिन कहीं और जाना चाहते हैं मगर पहरा बहुत कड़ा है, भागने का कोई रास्ता भी मालूम नहीं. जिस्म का संतरी बड़ा सख्तजान है. उसकी नजर बचा कर एक सुरंग खोदी गयी कि दुनिया से मदद माँगी जा सके, कुछ खत बहाये गये नदी किनारे नावों पर. दुनिया मगर अंधी और बहरी होने का नाटक करती रही कि उसमें बड़ा सुकून था. सब कुछ 'सत्य' के लिये नहीं किया जा सकता, कुछ पागलपन महज स्वार्थ के लिये भी करने चाहिये. 

मैं उस अाग की तलाश में हूँ जो मुझे जला कर राख कर सके. कुछ दिनों से ऐसा ही कुछ धधक रहा है मेरे अंदर. जैसे कुछ लोगों की इच्छा होती है कि मरने के बाद उनकी अस्थियाँ समंदर में बहा दी जायें ताकि जाने के बरसों बाद भी उनका कुछ कण कण में रहे. मैं जीते जी ऐसे ही खुद को रख रही हूँ...अनगिन कहानियों में अपनी जिन्दगी का कुछ...कण कण भर.

वैराग में दर्द नहीं होना चाहिये. मन कैसे जाने फर्क? वसंत का भी रंग केसर, बैराग का भी रंग भगवा. पी की रट करता मन कैसे गाये राग मल्हार? बहेलिया समझता है चिड़ियों की भाषा...कभी कभी उसके प्राण में बस जाती है एक गूंगी चिड़िया, उसके अबोले गीत का प्रतिशोध होता है अनेक चिड़ियों का खुला अासमान. एक दिन बहेलिये के सपने में आती है वही उदास चिड़िया अौर गाती है मृत्युगीत. फुदकती हुयी अाती है पिंजरे के अन्दर अौर बंद कर लेती है साँकल. बहेलिये की अात्मा मुक्त होती है अौर उड़ती है अासमान से ऊँचा. 

दुअाअों की फसल उगाने वाला वह दुनिया का अाखिरी गाँव था. बाकी गाँवों के बाशिन्दे अगवा हो गये थे अौर गाँव उजाड़...अहसानफ़रामोश दुनिया ने न सिर्फ उनकी रोजी छीनी थी, बल्कि उनके अात्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं. गाँव की मुद्रा 'शुकराना' थी, कुबुल हुयी दुअा अपने हिस्से के शुकराने लाती थी, फिर हफ्तों दावतें चलतीं. मगर ये सब बहुत पुरानी बात है, अाजकल अालम ये है कि बच्चों की दुअाअों पर भी टैक्स लगने लगा है. फैशन में अाजकल बल्क दुअायें हैं...लम्हा लम्हा किसी के खून पसीने से सींचे गये दुअाअों की कद्र अब कहाँ. कल बुलडोजर चलाने के बाद जमीन समतल कर दी गयी. खबर बाहर गयी तो दंगे भड़क गये. हर ईश्वर उस जगह ही अपना अॉफिस खोलना चाहता है. गाँव के लोग जिस रिफ्यूजी कैम्प में बसाये गये थे वहाँ जहरीला खाना खाने के कारण पूरे गाँव की मृत्यु हो गयी. मुअावज़े की रकम के लिये दावेदारी का मुकदमा जारी है. 

खूबसूरत होना एक श्राप है. इस सलीब पर अाप उम्र भर टाँगे जायेंगे. अापकी हर चीज़ को शक के नज़रिये से देखा जायेगा...अापके ख़्वाबों पर दुनिया भर की सेन्सरशिप लगेगी. अापको अपनी खूबसूरती से डर लगेगा. ईश्क अापको बार बार ठगेगा और सारे इल्ज़ाम अापके सर होंगे. इस सब के बावजूद कहीं, कोई एक लड़की होगी जो हर रोज़ अाइना देखेगी और कहेगी, दुनिया इसी काबिल है कि ठोकरों मे रखी जाये. 

एक जिन्दगी होगी, बेहद अजीब तरीके से उलझी हुयी, मगर चाँद होगा, लॉन्ग ड्राइव्स होंगी...थोड़ा सा मर कर बहुत सा जीना होगा. कर तो लोगी ना इतना?

01 December, 2013

तितलियों का राग वसंत

टेक १: इनडोर. कमरा
वो नीले रंग में उँगलियाँ डुबाती है...एक पूरा का पूरा ओर्केस्ट्रा बज उठता है...लड़की घबरा उठती है और उँगलियों की अचानक हुयी हरकत से पेंट की शीशी नीचे गिर कर टूट जाती है...टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती. यादों का एक अंधड़ आता है और उसे किसी बेहद पुराने समय में खींच कर ले जाता है...एक महीने की बच्ची के पालने पर एक नीले रंग का खिलौना झूल रहा है. उसकी माँ नीले रंग के दुपट्टे में उसे देख रही है और एक गीत गा रही है...रिकोर्ड प्लेयर पर क्लासिक एलपी बज रहा है...ला वि एन रोज...

बहुत दिन बाद उसे ला वि एन रोज का मतलब पता चलता है...गुलाबी रंग की दुनिया या ऐसा कुछ...मगर इस गाने को सुनती है तो उसकी आँखों में एक नीला आसमान ही खुलता है...परदे दर परदे हटा कर.

उस लड़की को रंग सुनाई देते हैं...
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जिंदगी से संगीत चले जाने पर एक बेहद बड़ी जगह खाली हो गयी थी...उसके डॉक्टर ने उसे बताया कि उसे शायद खुद को एक्सप्रेस करने के लिए किसी और माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए...बचपन से उसकी पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना भी थी...तो आज वो एजल लेकर आई थी और ऐसे ही बेखयाली में नीली रंग की शीशी में हलके से ऊँगली को डुबोया था.

उसे कोई भी आवाज़ सुने महीनों बीत गए थे...उसे कभी कभी लगता था कि इतनी खामोशी है कि वो पागल हो जायेगी.

शुरुआत सिर्फ रंगों और पुरानी यादों से हुयी फिर उसे डॉक्टर ने कुछ और केसेज के बारे में बताया...जहाँ पूर्णतः या आंशिक बहरे लोग चीज़ों को छू कर सुन सकते थे...सुनना वैसे भी कंपन का एक दिमागी इन्तेर्प्रेटेशन ही होता है...

वो छू कर सुन सकती है...
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टेक २: आउटडोर, बारिश

खिड़की से बाहर बारिश हो रही है...लड़की चुपचाप देख रही है...लड़की बाहर निकलती है बारिश में...पोर्टिको से जरा सा हाथ बाहर निकाला है. गुदगुदी होती है और सरगम दौड़ जाती है पानी की बूंदों में...रे ग म प ग रे सा नी...कौन सा राग था? नी-इ-र भ-र-न कैसे जा-आ-ऊँ सखी री...डगर चलत छेड़े...श्याम सखी री...वो प्यासी पानी में खोये सुरों की तलाश में निकली थी. उसने हलके नीले रंग की टीशर्ट पहनी थी और काली चेक के शॉर्ट्स. ये उसका सबसे पसंदीदा नाईटवियर था. उसने छोटे छोटे कदम लिए और बाँहें फैला कर बारिश में खड़ी हो गयी. वो वाद्ययंत्र थी...वायलिन के तार सी खिंची हुयी...बारिश की हर बूँद एक नया सुर उत्पन्न कर रही थी उसमें. संगीत कहीं बाहर नहीं...उसके अंदर था...उसके कण कण से फूटता हुआ. वो देर तक बारिश में भीगती हुए इस नए राग को अपने अन्दर सकेरती रही.

उसे सुनने के लिए चीज़ों को छूना पड़ता इसलिए संगीत सीखना उसके लिए बेहद मुश्किल होने वाला था मगर उसकी जिद अभी भी गयी नहीं थी. उसने कई लोगों से बात कर कर फाइनली अपना टीचर पसंद किया. उसके जैसा ही था वो भी. या उससे ज्यादा सिरफिरा और पागल मगर उसकी उँगलियाँ गिटार पर ऐसे भागती थीं जितनी तेज़ तो बारिश भी नहीं होती. लड़की दिन दिन भर उसे सुनते रहती. रात रात भर प्रैक्टिस करती. उसकी दुनिया में किसी और चीज़ की जरूरत नहीं थी.

फिर एक रात उसे नीले रंग के सपने आये. पेरिस की सड़कों पर नीले गुलाब की पंखुडियां बिखरी हुयी थीं और उसके चाहने वालों को दो तरफ से पुलिस ने रोके रखा था. वो तेज़ी से सड़कों पर भागी जा रही थी. उस रात पहली बार एक कंसर्ट करने की ख्वाहिश ने उसके अन्दर जन्म लिया.

टेक ३: आउटडोर, कंसर्ट, पागल होते लोग, बहुत सा शोर और फिर...म्यूट.
घंटों बारिश होती रही थी मगर इंतज़ार करते लोग टस से मस नहीं हुए थे. उसने सब कुछ काले रंग का पहन रखा था. सिर्फ गले में एक स्कार्फ के सिवा. (फ्लैशबैक) उसे आज भी वो दिन याद है...देर रात तक वो प्रैक्टिस करती रही थी. अगली सुबह वो ऐसी बेसुध थी कि महसूस भी न कर पायी कि घर का दरवाज़ा खुला है और कोई अन्दर आया है. उँगलियाँ लहूलुहान हो गयी थीं. उसे बारिश के शोर को संगीत में उतारना था. उसने कुछ नहीं कहा...उसकी उँगलियाँ चूमीं और गले से स्कार्फ उतार कर उसके हथेली पर लपेट दिया. फिर अपने साथ खींच कर ड्राइव पर ले गया था. उसके घर पर जाने के लिए एक लकड़ी का पुल था...पुल पर दौड़ते हुए बिल्ली और कुत्ते के बच्चे. लड़की नहीं जानती थी कि वो उसे अपने घर क्यूँ ले गया था. उस स्कार्फ को गले में बांधते हुए उसे लगा था वो दुनिया में अकेली नहीं है. कंसर्ट पर जाने के पहले उसने खुद को आदमकद आईने में देखा. ऊपर से नीचे तक ब्लैक और गले में लिपटा गहरा लाल स्कार्फ...जैसे वो कान में धीरे से कह जाए...आई लव यू.

बहुत देर तक लोग उसे सांस थामे सुनते रहते...आखिरी गीत में उसने लोगों के बीच खुद को छोड़ दिया...वो हवा में थी...उसका पूरा बदन हवा में...उसके चाहने वालों ने उसे हाथों हाथ उठा रखा था. ऐसा कौन नहीं था जिसने उसे छुआ न हो...हर आत्मा का अलग शब्द था...राग था...कंसर्ट ख़त्म होते हुए वो सिम्फनी हो गयी थी.

डॉक्टर कहता था वो सुन नहीं सकती थी...दुनिया के डिफिनेशन के हिसाब से वो सुन नहीं सकती थी...मगर कहीं कोई खुदा था जिसने उसके हिस्से इतना सारा संगीत लिख रखा था कि वो बारिश सुनती थी, लहरें सुनती थी, धूप सुनती थी, पागलपन सुनती थी...मौसम सुनती थी, तितलियों का वसंत राग सुनती थी...विन्सेंट की स्टारी नाईट सुनती थी...वो इतना कुछ सुनती थी कि कोई और सुन नहीं पाता था. उसने ही एक दिन मेरी नब्ज़ सुनी और मुझे बताया कि मेरा दिल हर तीन सौ पैंसठ बार धड़कने के बाद एक चुप साधता है. दिल को कमबख्त साल और दिन में अंतर नहीं मालूम न. उसे लगता है इतनी सी धड़कनों बाद तुम्हारा फोन आएगा...वो जो तुम मेरे बर्थडे पर करते हो.

मैंने फिलहाल उसे फुसला दिया है कि उसकी भी मैथ मेरे जैसी ख़राब होगी...ऐसा कोई नहीं जिसे मैं इतना याद करूँ. अच्छा हुआ उसने नब्ज़ पर ही हाथ रखी थी...जो दिल पर रखती तो तुम्हारा नाम जान जाती. अभी अभी उसे फ्लाईट पर चढ़ा कर आई हूँ. ड्राइव करते हुए तुम्हें ही सोचती रही. रात बहुत हुयी...हिचकियों से तुम्हारी नींद खुली हो तो माफ़ करना. 

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