18 March, 2014

सदा आनंद रहे एही द्वारे मोहन खेले होली

कब है होली?
बंगलोर में रह कर भूलने लगे थे होली कैसी होती है। हमारे लिये होली एक बाल्टी पानी में मन जाती थी। चार लोग आये, छत पर गये और दस मिनट में होली खत्म। छत पर कोई नल नहीं था इसलिये पानी का कोई इंतजाम नहीं। बाल्टी उठा कर किसी पर डाल नहीं सकते कि फिर एक तल्ला नीचे जा कर पानी कौन लायेगा। भागने, भगा कर रंग लगाने की भी जगह नहीं। अड़ोसी पड़ोसी कोई ऐसे नहीं कि जिनके साथ खेला जाये। विद औल ड्यू रिस्पेक्ट टु साऊथ इंडियन्स, बड़े खड़ूस लोग हैं यहां, कोई खेलना ही नहीं चाहता। हम तो यहाँ तक डेस्पेरेट थे कि पानी से खेल लो, चलो रंग भी और्गैनिक लगा देंगे। बिल्डिंग में पाँच तल्ले हैं, खेलने वाले किसी में नहीं। बहरहाल...रोना रोने में पूरी पोस्ट लग जायेगी, मुद्दे पर आते है।

इस साल मोहित और नितिका इलेक्ट्रौिनक सिटी में एक अच्छे से सोसाईटी में शिफ्ट हुये थे। होली के पहले उनके असोसियेशन का मेल आया कि होली खेलने का पूरा इंतजाम है। दोनों ने हमें इनवाईट किया। होलिका दहन का भी प्रोग्राम था, हमने सोचा वो भी देख लेंगे। तो फुल जनता वहां एक दिन पहले ही पहुँच गयी। जनता बोले तो, हम, कुणाल, उसकी मम्मी, साकिब कीर्ति, रमन, कुंदन, चंदन, नितिका की एक दोस्त भी आयी। खाने के लिये दही बड़ा हम यहां से बना कर ले गये थे। शाम को ही अबीर खेल लिये। जबकि पुराने कपड़े भी नहीं पहने थे, हम तो होलिका दहन के लिये अच्छे कपड़े पहन कर निकले थे कि त्योहार का मौसम है। बस यही है कि बचपन का एक्सपीरियंस से यही सीखे हैं कि होली के टाईम पर हफ्ता भर से नया कपड़ा पहनना आपका खुद का बेवकूफी है, इसमें आप के उपर रंग डालने वाले का कोई दोष नहीं है। कल शाम को पिचकारी खरेदते वक्त ये गन खरीदी थी। पीले रंग की। हम तमीजदार लोग हैं(कभी कभी खुद को ऐसा कुछ यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं हम। अनसक्सेसफुली) तो गन में सादा पानी भरा था। इस पिद्दी सी गन से कितना कोहराम मचाया जा सकता है ये हमारे हाथों में आने के पहले गन को भी पता नहीं होगा। देर रात तक खुराफात चलती रही। हौल में दो डबल बेड गद्दे लगा कर ८ लोग फिट हो गये। कुंदन घर चला गया था, रात के डेढ़ बजे चंदन पहुँच रहा था मलेशिया से। जस्ट इन टाईम फौर होली। पहले तो हौरर फिल्म देखा सब, हम तो पिक्चर शुरू होते ही सो गये। हमसे हौरर देखा नहीं जाता। वैसे ही चारो तरफ भूत दिखते हैं हमें। 

अगली सुबह हम साढ़े सात बजे उठ कर तैयार। बाकी सब लोग सोये हुये। ऐसा लग रहा था कि जैसे शादी में आये हुये हैं। भोले भाले मासूम लोगों पर पिचकारी से भोरे भोर पानी डालना शुरू। सब हमको गरियाना शुरू। लेकिन फिर सब उठा। अब बात था कि चाय कौन बनायेगा। डेट औफ बर्थ से पता चला कि सब में रमन सबसे छोटा है, तो जैसा कि दस्तूर है, रमन चाय बनाया। तब तक हम पुआ के इंतजाम में जुट गये। क्या है कि हमसे खाली पेट होली नहीं खेली जाती। जब तक दु चार ठो पुआ अंदर नहीं जाये, होली का माहौल नहीं बनता। होली का इंतजाम सामने के फुटबौल फील्ड में था। नौ बजे से प्रोग्राम चालू होगा ऐसा मेल आया था। नौ बजे वहाँ कबूतर तक नहीं दिख रहा था। लोग तैयार होके औफिस निकल रहे थे। कुछ लोग वहाँ प्राणायाम कर रहे थे। हम लोग सोचे कि बस हमीं लोग होंगे खेलने वाले। साकिब कीर्ति दोनों मिल कर गुब्बारा में रंग भरना शुरु किया। हम सबसे पहले तो काला, जंगली वाला रंग लगा दिये कुणाल को, उसको होली में कोई और रंग लगा दे हमसे पहले तो हमारा मूड खराब हो जाता है। पजेसिव हो गये हैं हम भी आजकल। अब रंग लगा तो दिये ई चक्कर में भूल गये कि पुआ बनाना है। फिर बहुत्ते मेहनत से रगड़ रगड़ कर रंग छुड़ाये। पहला राउंड पुआ बनाते बनाते फील्ड में लोग आने चालू, लाउड स्पीकर पे गाने भी बजने लगे। कीर्ति ने चौथे फ्लोर की बालकनी से गुब्बारे फेंक कर टेस्टिंग भी कर ली थी कि सारे हथियार रेडी हैं। 
असली होली
हमारे पास कुल मिला के दो बंदूक, तीन बड़ी पिचकारी और बहुत सारा रंग था। कमीने लोगों ने मेरे पक्के वाले जंगली रंग छुपा दिये थे कि और्गैनिक होली खेलेंगे। शुरुआत तो फील्ड में दौड़ा दौड़ा के रंग लगाने से हुयी। कुछ बच्चे थे छोटे छोटे, अपनी फुली लोडेड पिचकारी के साथ दौड़ रहे थे। रंग वंग एक राउंड होने के बाद सब रेन डांस करने पहुंच गये। म्युजिक रद्दी था पर बीट्स अच्छे थे, और लोग डांस करने के मूड में हों तो म्युजिक कौन देखता है। धीरे धीरे लोगों का जमवाड़ा होते गया। कुंदन और चंदन भी पहुंच गये तब तक। उनको लपेटा गया अच्छे से। अब गौर करने की बात ये है कि रेन डांस के कारण चबूतरे से इतर जो जमीन थी वहां कीचड़ बनना शुरु हो गया था। थोड़ी ही देर में सबके रंग भी खत्म हो गये। बस, लोगों को कीचड़ में पटका जाना शुरु हुआ। फिर क्या था बाल्टियां लायी गयी और बाल्टी बाल्टी कीचड़ फेंका गया। चुंकी पानी के फव्वारे चल रहे थे और कीचड़ भी विशुद्ध पानी और मिट्टी का था इसमें नाली जैसे किसी हानिकारक तत्व की मिलावट नहीं थी मजा बहुत आ रहा था। 

हम और चंदन- सबसे डेडली कौम्बो
अब मैंने नोटिस किया कि लड़कियों को पटकने की कोशिश तो की जा रही है पर वे भाग निकलती हैं, कयुंकि किसी को सिर्फ कंधे से पकड़ कर कीचड़ में लपेटा नहीं जा सकता है, जरूरी है कि कोई पैर जमीन से खींचे। तो हमने माहौल की नाजुकी को देखते हुये लीडरी रोल अपनाया और पैर पकड़ के उठाओ का कामयाब नारा दिया। बहुत सारे उदाहरण भी दिखाये जिसमें ऐसी ऐसी लड़कियों का नंबर आया जिन्होनें हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा था। लेकिन हम होली में हुये किसी भी भेदभाव के सख्त खिलाफ हैं। फिर तो एकदम माहौल बन गया, लोग दूर दूर से पकड़ कर लाये जाते और कीचड़ मे डबकाये जाते। उस छोटी सी जगह में हम पूरा ध्यान देते कि कहीं भी मैनपावर की कमी हो, जैसे कि मोटे लोग ज्यादा उछलकूद कर रहे हैं तो आसपास के लोगों को, अपने भाईयों को भेजती कि मदद करो...आगे बढ़ो। इसके अलावा जब कोई कीचड़ में फेंका जा रहा होता तो हम वहीं खड़े होकर पैर से पानी फेंकते, एकदम सटीक निशाना लगा कर। अब रंग खत्म थे, पिचकारियां थी खाली। पानी के इकलौते नल पर बहुत सी बाल्टियां, बस हमने वहीं कीचड़ से पिचकारियां भरने का जुगाड़ निकाला। उफ़ कितना...कितना तो मजा आया। 

काला रे सैंया काला रे
फव्वारों के नीचे खड़े हम चंदन से बतिया रहे थे, कि बेट्टा आज जितने लोग को कीचड़ में लपेटा है, अच्छा है कि रंग लगा है, नहीं तो ये लोग कहीं पहचान लेते हमको तो बाद में बहुत्ते धुलाई होता हमारा। नये लोगों का आना जारी रहा, हम साइक्लिक तरीके से कीचड़, पिचकारी, बाल्टी का इस्तेमाल करते रहे। सरगत तो कब्बे हो गये थे लेकिन मौसम गर्म था तो ठंढ नहीं लगी। लास्ट राउंड आते आते वहां सब हमें चीन्ह गये थे। लोगों ने श्रद्धा से हमें बाल्टी वगैरह खुद ही देनी शुरू कर दी थी। पानी में लगातार खेलने के कारण रंग धुल गया था तो एक भले इंसान ने रंग भी दिये। पक्के रंग। खेल के बाद एक राउंड डांस भी किये। ये सारे कांड हमने नौ बजे से लेकर दुपहर देढ़ बजे तक लगातार किये। 

फिर कुछ लोगों को औफिस जाना था तो जल्दी से नहा धोकर तैयार हो गये। एक राउंड पुआ और बनाये और पैक अप। इस बार सालों बाद ऐसी होली खेले थे। एकदम मन आत्मा तक तर होकर। दिल से बहुत सारा आशीर्वाद सब के लिये निकला। सदा आनंद रहे एही द्वारे, मोहन खेले होली। 

पूरी टोली
घर आये तो बुझाया कि पिछले छह साल में जो होली नहीं खेले हैं ऐसा उ साल में उमर भी बढ़ गया है। पूरा देह ऐसा दुखा रहा था। और कुणाल चोट्टा उतने चिढ़ाये। फिर हम जो कभी दवाई नहीं खाते हैं बिचारे कौम्बिफ्लाम खाये तब जाके आराम आया। चिल्लाने के कारण गले का बत्ती लगा हुआ था अलग। हमारी मेहनत से छीले गये कटहल की सब्जी बनाने का टाईम ही नहीं मिला था। उसपर नितिका के यहां ही फ्रिज में रखे थे तो लाना भी भूल गये। शाम को कुंदन चंदन अबीर खेलने आया। फिर रात को हमने बिल्कुल नौन होली स्टाईल में पिज्जा मंगाया। खुद को हिदायत दी कि कल से कुछ एक्सरसाईज करेंगे रेगुलर। आधी पोस्ट रात को लिखी थी फिर सौलिड नींद आ रही थी तो सो गये। 

आज उठे हैं तो वापस सब कुछ दुखा रहा है। एक्जैक्टली कौन ज्वाईंट किधर है पता चल रहा है। होर्लिक्स पी रहे हैं और सोच रहे हैं...उफ़ क्या कमबख्त कातिलाना होली खेले थे। ओह गरदा!

10 March, 2014

फिल्म के बाद की डायरी

दिल की सुनें तो दिल बहुत कुछ चाहता है। कभी बेसिरपैर का भी, कभी समझदार सा।
इत्तिफाक है कि हाल की देखी हुयी दो फिल्मों में सफर एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा है...किरदार क्युंकि सफर बहुत तरह के होते हैं, खुद को खो देने वाले और खुद को तलाश लेने वाले। हाईवे और क्वीन, दोनों फिल्में सफर के बारे में हैं। अपनी जड़ों से इतर कहीं भटकना एक अलग तरह की बेफिक्री देता है, बिल्कुल अलग आजादी...सिर्फ ये बात कि यहाँ मेरे हर चीज को जज करने वाला कोई नहीं है, हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं...और ठीक यही चीज हमें सबसे बेहतर डिफाइन करती है, जब हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं तो हम क्या करते है। बहुत समय ऐसा होता है कि हमसे हमारी मर्जी ही नहीं पूछी जाती, बाकी लोगों को बेहतर पता होता है कि हमारे लिये सही क्या है...ये लोग कभी पेरेंट्स होते हैं, कभी टीचर तो कभी भाई या कई बार बौयफ्रेंड या पति। कुछ कारणों से ये तय हो गया है कि बाकी लोग बेहतर जानते है और हमारे जीवन के निर्णय वही लेंगे। कई बार हम इस बात पर सवाल तक नहीं उठाते। इन्हीं सवालों का धीरे धीरे खुलता जवाब है क्वीन, और इसी भटकन को जस का जस दिखा दिया है हाईवे में, बिना किसी जवाब के। मैं रिव्यू नहीं लिख रही यहां, बस वो लिख रही हूं जो फिल्म देखते हुये मन में उगता है। क्वीन बहुत अच्छी लगी मुझे...ऐसी कहानी जिसकी हीरो एक लड़की है, उसका सफर है।

कई सारे लोग जमीनी होते हैं, मिट्टी से जुड़े हुये...उनके ख्वाब, उनकी कल्पनाएं, सब एक घर और उसकी बेहतरी से जुड़ी हुयी होती हैं...लेकिन ऐसे लोग होते हैं जो हमेशा कहीं भाग जाना चाहते हैं, उनका बस चले तो कभी घर ना बसाएं...बंजारामिजाजी कभी विरासत में मिलती है तो कभी रूह में...ऐसे लोग सफर में खुद को पाते हैं। कल फिल्म देखते हुये देर तक सोचती रही कि मैं क्या करना चाहती हूं...जैसा कि हमेशा होता है, मुझे मेरी मंजिल तो दिखती है पर रास्ते पर चलने का हौसला नहीं दिखता। मगर फिर भी, कभी कभी अपनी लिखने से चीजें ज्यादा सच लगने लगती हैं...हमारे यहां कहावत है कि चौबीस घंटे में एक बार सरस्वती जीभ पर बैठती हैं, तो हमेशा अच्छा कहा करो।

मुझे लोगों का सियाह पक्ष बहुत अट्रैक्ट करता है। लिखने में, फिल्मों में...हमेशा एक अल्टरनेट कहानी चलती रहती है...जैसे हाइवे और क्वीन, दोनों फिल्मों में इन्हें सिर्फ अच्छे लोग मिले हैं, चाहे वो अजनबी लड़की या फिर किडनैपर...मैं सोच रही थी कि क्या ही होता ऐसे किसी सफर में सिर्फ बुरे लोग मिलते...जिसने कभी किसी तरह की परेशानियां नहीं देखी हैं, वो किस तरह से मुश्किलों से लड़ती फिर...ये शायद उनके स्ट्रौंग होने का बेहतर रास्ता होता। मेरा क्या मन करता है कि एक ऐसी फिल्म बनाऊं जिसमें चुन चुन के खराब लोग मिलें...सिर्फ धमकी देने वाले नहीं सच में कुछ बुरा कर देने वाले लोग...सफर का इतना रूमानी चित्रण पच नहीं रहा। फिर लड़की डेंटी डार्लिंग नहीं मेरे जैसी कोई हो...मुसीबतों में स्थिर दिमाग रखने वाली...जिसे डर ना लगता हो। अजब अजब कीड़े कुलबुला रहे हैं...ये लिखना, वो लिखना टाईप...ब्रोमांस पर फिल्में बनती हैं तो बहनापे पर क्युं नहीं? कोई दो लड़कियाँ हों, जिन्हें ना शेडी होटल्स से डर लगता है ना पुलिस स्टेशन से...देश में घूमने निकलें...कहानी में थोड़ा और ट्विस्ट डालते हैं कि बाईक से घूमने निकली हैं कि देश आखिर कितना बुरा है...हमेशा कहा जाता है, खुद का अनुभव भी है कि सेफ नहीं है लड़कियों का अकेले सफर करना...फिर...सबसे बुरा क्या हो सकता है? रेप ऐंड मर्डर? और सबसे अच्छा क्या हो सकता है? इन दोनों के बीच का संतुलन कहां है?

So, when you come back, you may have a broken body...but a totally...absolutely...invincible soul...now if that is not worth the journey, I don't know what is!

मुझे हमेशा लगता था मुझसे फुल टाईम औफिस नहीं होगा...हर औफिस में कुछ ना कुछ होता ही है जो स्पिल कर जाता है अगले दिन में...ऐसे में खुद के लिये वक्त कहां निकालें! लिखने का पढ़ने का...फिर भी कुछ ना कुछ पढ़ना हो रहा है...आखिरी इत्मीनान से किताब पढ़ी थी IQ84, फिर मुराकामी का ही पढ़ रही हूं...किताबें पढ़ना भाग जाने जैसा लगता है, जैसे कुछ करना है, वो न करके भाग रही हूं...परसों बहुत दिन बाद दोस्त से मिली...श्रीविद्या...एक बच्चे को संभालने, ओडिसी और कुचीपुड़ी के रिहर्सल के दौरान कितना कुछ मैनेज कर लेती है...उसके चेहरे पर कमाल का ग्लो दिखता है...अपनी पसंद का जरा सा भी कुछ मिल जाता है तो दुनिया जीने लायक लगती है...दो तरह की औरतें होती हैं, एक जिनके लिये उनके होने का मकसद एक अच्छा परिवार है बसाना और बच्चे बड़ा करना है...जो कि बहुत जरूरी है...मगर हमारे जैसे कुछ लोग होते हैं, जिन्हें इन सब के साथ ही कुछ और भी चाहिये होता है जहां हम खुद को संजो सकें...मेरे लिये लिखना है, उसके लिये डांस...इसके लिये कुर्बानियां देते हुये हम जार जार रोते हैं मगर जी भी नहीं सकते अगर इतना जरा सा कुछ ना मिल सके।

हम डिनर पर गये थे, फिर बहुत देर बातें भी कीं...थ्री कोर्स डिनर के बाद भी बातें बाकी थीं तो ड्राईव पर निकल गये...पहले कोरमंगला तक फिर दूर माराथल्ली ब्रिज से भी बहुत दूर आगे। कल से सोच रही हूं, लड़कियों के साथ का टूर होता तो कितना अच्छा होता...मेरी बकेट लिस्ट में हमेशा से है...अनु दी, नेहा, अंशु, शिंजिनी...ये कुछ वैसे लोग हैं जिनके साथ कोई वक्त बुरा नहीं हो सकता। कोई हम्पी जैसी जगह हो...देखने को बहुत से पुराने खंडहर...नदी किनारे टेंट। बहुत से किस्से...बहुत सी तस्वीरें। जाने क्या क्या।

बहरहाल, सुबह हुयी है और हम अपने सपने से बाहर ही नहीं आये हैं...चाह कितना सारा कुछ...फिल्में, किताबें...घूमना...सब होगा, धीरे धीरे...फिलहाल कहानियों को ठोकना पीटना जारी है। फिल्म भी आयेगी कभी। औफिस में आजकल सब अच्छा चल रहा है, इसलिये लगता है कि जाने का सबसे सही वक्त आ गया है। यहां डेढ़ साल से उपर हुये, इतना देर मैं आज तक कहीं नहीं टिकी, अब बढ़ना जरूरी है वरना जड़ें उगने लगेंगी। फ्रेंच क्लासेस शुरू हैं, अगले महीने...सारे प्लान्स हैं...वन ऐट अ टाईम। 

04 March, 2014

डाकिये से कहना, घर में कोई नहीं रहता

खत जो आते हैं तेरे
लगाते हैं कागज़ को गुदगुदी
तेरी उँगलियों की खुशबू में लिपटे
आफ्टर शेव, हाँ क्या?

खत जो आते हैं तेरे
बताते हैं मेरे शहर में तेरे मौसम का हाल
खुल के गिरते हैं लिफाफे से सूखे पत्ते कई
मैं भटक जाती हूं तुम्हारे ख्वाबों से अपने घर का रास्ता

मुझे रोकने को तुम पकड़ते हो हाथ
ठीक वहीं से सूखने लगती है रुह की सारी नदियां
लहरें दम तोड़ती हैं तुम्हारी आंखों के आईने में
तुम्हारे शहर में प्यास बहुत है

तुम्हारे इंतजार में मैं उलीचती हूं
समंदर का सारा पानी
फिर पड़ता है सौ बरस अकाल
मेरी आंखों से गिरता है एक बूंद आँसू

तुम लगाते हो भींच कर गले
कि जैसे कुबूल करने हों दुनिया के सारे गुनाह
अनामिका उंगली में चुभती है निब
गहरे लाल से मैं लिखती हूं सजाये मौत

हम सो जाते हैं गलबहियां डाले
हमारी पहली पूरी नींद
दुनिया के नाम लिख कर
एक ही, आखिरी सुसाईड नोट


*Pic: Kurt's suicide note. Last part. Photoshopped. 

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