15 October, 2014

उस लड़की की डायरी

कुछ है. सीने में अटका हुआ.
कुछ. बाकी रह जाता है, मेरे सब कुछ लिखने के बाद भी.
कुछ. मैं कहना चाहती हूँ मगर बहुत सारी बातें कहने के बाद भी कह नहीं पाती.

मैं अपनेआप को एक्सेप्ट नहीं कर पा रही जैसी मैं हूँ...और मुझे जैसे बदलाव चाहिए उनके लिए मैं कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही. जैसे कि साधारण सी बात है कि वजन ५८ हो रखा है. मैं इसमें से सिर्फ ८ किलो लूज कर लूं तो मुझे मन की शांति मिल जायेगी. टेक्निकली मैं किसी भी जिम में जाउंगी तो इंस्ट्रक्टर कहेगी कि एक महीने में २ किलो के हिसाब से ये बस चार महीने की बात है. मैं सुनूंगी, समझूँगी...मगर कर नहीं पाऊँगी. आजकल अपने वेट को लेकर बहुत ज्यादा कौन्सियस हो गयी हूँ. खूबसूरती सिर्फ वजन पर डिपेंड नहीं करती. मैं अपनाप से कहना चाहती हूँ कि खुद की आँखों में देखना चाहिए...यहाँ अब ही वैसी ही चमक मौजूद है...मुस्कराहट वैसी ही है...दोस्तों के साथ मैं वैसे ही हंसती खिलखिलाती हूँ...मगर इन सबके बावजूद एक और आँख उग गयी है मेरे अन्दर जो मुझे हमेशा ही क्रिटिकल दृष्टि से देखती रहती है और कहती रहती है कि मैं अच्छी नहीं लग रही...कि ड्रेस मुझ पर नहीं फब रही.

मैं मानसिक रूप से बीमार होती जा रही हूँ...ये जरा सा वजन जैसे मेरे दिमाग पर रखा हुआ है या जैसे मेरे सीने पर...हर समय बदहवासी सी लगती है. ऐसा नहीं है कि मैं प्रयास नहीं करती. जॉगिंग शुरू की थी तो कुछ दिनों में घुटने में दर्द होने लगा. मुझे अपाहिज हो जाने से सबसे ज्यादा डर लगता है. घर में नानी के घुटने ख़राब हो गए थे और दोनों को रिप्लेस करना पड़ा था. तब से मैं अपने घुटनों को लेकर बहुत जायदा हैरान और परेशान रहती हूँ.

स्विमिंग का कब से प्लान बना रखा है. घर के पास ही स्विमिंग पूल है. सुबह के टाइम पर ही वहां पर क्लासेज होती हैं. मैं जानती हूँ कि अगर मैंने ज्वाइन कर लिया तो मैं नियमित जाउंगी भी. मुझे तैरना अच्छा लगता है. अब मैं पानी में डूबती भी नहीं. अपने से मेहनत कर के मैंने फ्लोटिंग सीख ली है. मगर मैं रोज़ सिर्फ सोचती हूँ कि जाउंगी और जा नहीं पाती. मैं अपनी नज़र में अजीब किस्म की ख़राब दिखने लगी हूँ. चेहरा...माथा...आंखें सब. और मैं महसूस करती हूँ कि बीमार होने के लिए कोई वजह हो जरूरी नहीं...हम कभी कभी माँग कर ऐसी कोई बीमारी बुला लेते हैं. इस टेंशन के कारण मुझे खाना खाने से अरूचि हो गयी है. मैं अक्सर रात का डिनर स्किप कर देती हूँ. सुबह का नाश्ता समय पर खाती हूँ पर उसके अलावा खाना खाने में अजब सी गिल्ट फीलिंग होती है.

कल उससे बात कर रही थी तो वो बोल रहा था मैं सोचती बहुत ज्यादा हूँ. मैं भी जानती हूँ कि मैं ओवर अनलाईज करती हूँ चीज़ों को. मगर मैं किसकी आँखों से देखूं खुद को और सोचूं कि मैं अच्छी दिखती हूँ. और अच्छा दिखना कब से मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया. पहले ऐसा नहीं था क्यूंकि पहले वाकई सोचना नहीं पड़ता था. ऐसा कोई परिधान नहीं था जो मुझपर अच्छा नहीं लगता था. मैं ढीली ढाली टीशर्ट और डेनिम पहन लेती थी तो अच्छा लगता था...कुरता जींस हो या कि सलवार सूट....साड़ी पहनते हुए तो कभी सोचना ही नहीं पड़ा. ये कैसी अजीब बेईमानी है कि भागती हुयी इस कीमती जिंदगी का इतना सारा हिस्सा ये सोचने में लगाया जाए कि मैं क्या पहनूं कि मोटी ना लगूं. मैं ऐसी नहीं हुआ करती थी. आजकल मुझे साड़ी पहनने में भी टेंशन होती है. लोग कहते हैं कि ये सारा फितूर मेरे दिमाग का है...मैं अच्छी लगती हूँ...मगर मुझे फिर लगता है कि वो मुझसे बहुत प्यार करते हैं और मेरा दिल रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं.

मैं ऐसी नहीं थी. मैं चीज़ों को लेकर इतना सोच सोच के अपना दिमाग खराब नहीं करती थी. मुझे अगर कोई प्रॉब्लम होती थी तो मैं उसका सलूशन खोजती थी...सोच सोच के उसपर वक्त बर्बाद नहीं करती थी. तो मुझे क्या होता जा रहा है? आइडियल कंडीशन में...जॉब छोड़े हुए ५ महीने हो गए हैं...मैंने इतने में जिम या स्विमिंग ज्वाइन करके खुश रह सकती थी कि मैंने कोशिश की. मगर नहीं. उफ़. मैं पागल हुए जा रही हूँ. 

No comments:

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...