21 January, 2015

इश्क़ सियाही है और मेरा बदन कलम...जरा थाम अपनी उँगलियों में जानम...जरा करार की दरकार है

लिखना. पागलपन है.

मैं वो कहानियां नहीं लिखतीं जो मेरे रीडर्स सुनना चाहते हैं...नहीं...कोई नहीं जानता कि वो कैसी कहानियां सुनना चाहते हैं...मैं वो लिखती हूँ जो मैं लिखना चाहती हूँ...मैं वैसी कहानियां लिखती हूँ जो मेरे अन्दर उथल पुथल मचाये रहती हैं...वैसे किरदार जो चलते फिरते जिंदगी में दाखिल हो जाते हैं और जिद पकड़ के बैठ जाते हैं कि हमारी कहानी लिखो. मैं जब उस अजीब से ट्रांस में होती हूँ तो ना मुझे सामने कुछ दिखता है, न कुछ और सूझता है...कोई खिड़की खुलती है और मैं उस पूरे सीन में उतर जाती हूँ. वहां के रंग, धूप...खुशबुयें...सब महसूस होती हैं. मैं वैसे में फिर और कुछ नहीं कर सकती लिखने के सिवा कि अगर लिखा नहीं तो मेरा माथा फट जाएगा. 

हाँ...मुझे लगता है कि मैं इश्वर की कलम हूँ...वरना मेरे अन्दर इतना सारा कुछ लिखने को और कहने को क्यूँ है? मुझे क्यूँ हर हमेशा इतनी बात करनी होती है? मैं फोन पर बात करती हूँ...लोग जो मिलते हैं उनसे बात करती हूँ...मेरे अन्दर शब्द जैसे हमेशा ओवरफ्लो करते रहते हैं कि बहुत कुछ कह देने के बावजूद भी मुझे बहुत कुछ लिखना होता है. IIMC में एक बार पोएट्री कम्पटीशन में हिस्सा लिया था तो दोस्तों ने आश्चर्य किया था कि इतना बोलने के बाद भी तुम्हारे पास लिखने को शब्द कैसे बच जाते हैं. मैं शब्दों की बनी हूँ...पूरी की पूरी? और क्या है मेरे अन्दर...खंगालती हूँ तो कुछ नहीं मिलता. गुनगुनाहट है...गीत हैं...सीटियाँ हैं...सब कुछ कहने को...आवाजें...खिलखिलाहटें...शोर...बहुत सारा केओस. 

मैंने बहुत कम पढ़ा है...अक्सर मैं इतनी छलकी हुयी होती हूँ कि पैमाने में और कुछ डालने को जगह ही नहीं बचती. किसी और से भी बात करती हूँ तो देखती हूँ कि लोग कितना कुछ पढ़ रहे हैं...कितना कुछ गुन रहे हैं...सीख रहे हैं. मैं फिल्में फिर भी बहुत सारी देख जाती हूँ मगर वो भी मूड होने पर. मेरे लिए कुछ भी बस गुज़र जाने जैसा नहीं होता आजकल...हर कुछ बसता जाता है मेरे अन्दर. कोई सीन. कोई डायलाग. कोई बैकग्राउंड स्कोर. मैं चाहती हूँ कि पढूं...मैं चाहती हूँ कि कुछ नए शब्द, कुछ नए राइटर्स को पसंद करूँ, कुछ क्लासिक्स में तलाशूँ किसी और समय के चिन्ह...मगर हो नहीं पाता...एक तो मुझे बहुत कम चीज़ें बाँध के रख पाती हैं. मेरे अच्छे बुरे के अपने पैमाने हैं...अगर नहीं पसंद आ रही है तो मैं मेहनत करके नहीं पढ़ सकती. शायद मेरे में यही कमी है. सब कुछ नैचुरली नहीं होता. लिखना भी मेहनत का काम है. इसके लिए बैकग्राउंड वर्क करना चाहिए. अच्छे राइटर्स को पढ़ना आदत होनी चाहिए. 

अब मैं क्या करूँ. एक समय था कि बिना रात को एक किताब ख़त्म किये नींद नहीं आती थी. एक समय मैं सिर्फ तीन घंटे सोती थी लेकिन रोज़ की एक किताब का कोटा हमेशा ख़त्म करती थी. एक समय मुझे पढ़ने से ज्यादा अच्छा कुछ नहीं लगता था. एक समय मेरे लिए अच्छा दिन का मतलब होता था ख़ूब सारी धूप...भीगे हुए बाल...गले में लिपटा स्कार्फ और एक अच्छी किताब. एक समय मुझे वे लोग बहुत आकर्षित करते थे जिन्होंने बहुत पढ़ रखा हो...जो घड़ी घड़ी रेफरेंस दे सकते थे. उन दिनों मैं भी तो वैसी ही हुआ करती थी...कितने कवि...कितने सारे नोवेल्स के कोट्स याद हुआ करते थे. उन दिनों गूगल नहीं था. किसी को लवलेटर लिखना है तो याद से लिखना होता था. तभी तो मैं दोस्तों की फेवरिट हुआ करती थी चिट्ठियां लिखने के मामले में. ये और बदनसीबी रही कि कमबख्त जिंदगी में एक भी...एक भी...लव लेटर किसी को भी नहीं लिखा. इस हादसे पे साला, डूब मरने को जी चाहता है. बहरहाल...जिंदगी बाकी है. 

एक समय मेरे लिए परफेक्ट जगह सिर्फ लाइब्रेरी हुआ करती थी. मैं अपने आइडियल घर में एक ऊंची सी लाइब्रेरी बनाना चाहती थी जिस तक पहुँचने के लिए सीढ़ी हो और मैं अपने दिन किसी कम्फर्टेबल सोफे में धंसी हुयी किताबें पढ़ती रहूँ. किताबों को पढ़ना भी मजाक नहीं था...मुझे आज तक की पढ़ी हुए फेवरिट किताबों के पन्ने पन्ने फोटोग्राफ की तरह याद हैं कुछ यूँ भी कि उन्हें कहाँ पढ़ा था...किस समय पढ़ा था. लालटेन में पढ़ा था या ट्यूबलाईट में पढ़ा था. वगैरह. नयी किताब के पन्नों की खुशबू पागल कर देती थी उन दिनों. मगर अब बदल गयी हैं चीज़ें. 

अब मुझे किताबों से वैसा पागलपन वाला प्यार नहीं रहा...अब मुझे जिंदगी से प्यार है. अब मैं लाइब्रेरी में बैठ कर पढ़ना नहीं बाईक लेकर घूमना चाहती हूँ. अब मैं संगीत लाइव सुनना चाहती हूँ. अब मैं लोगों को ख़त नहीं लिखना चाहती. मिलना चाहती हूँ उनसे. गले लगाना चाहती हूँ उनको. उनके साथ शहर शहर भटकना चाहती हूँ. अब मुझे वो लोग अच्छे लगते हैं जिनकी जिंदगी किसी कहानी जैसी इंट्रेस्टिंग है. जो मुझे अपनी बातों में बाँध के रख सकते हैं. मुझे. जो मुझे चुप करा सकते हैं. जो मुझे हंसा और रुला सकते हैं. अब मुझे वे लोग अच्छे लगते हैं जो अलाव के इर्द गिर्द बैठे हुए मुझे अपनी जिंदगी के छोटे छोटे वाकये सुना सकते हैं कि सबकी जिंदगी एकदम अलग होती है. एकदम अलग. अब मेरे ख्वाबों के घर में किताबें ही नहीं बहुत सी रोड ट्रिप्स के फोटोग्राफ्स भी होते हैं. बहुत से अनजान सिंगर्स के कैसेट्स भी होते हैं. बहुत से महबूब लोगों के हाथों साइन की हुयी पर्चियां भी होती हैं. मैं जिन्दा हूँ. जिंदगी को सांस सांस खींचती हूँ अन्दर और लफ्ज़ लफ्ज़ बिखेरती हूँ बाहर. अब मैं हवाओं में चीखती हूँ उसका नाम कि मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिचकियों से उसका जीना मुहाल हो जायेगा. 

देखा जाए तो इश्क़ बहुत कुछ सिखा देता है आपको बहुत बार. बस डूबने की दरकार होनी चाहिए. तबियत से. इश्क़ हर चीज़ से होना चाहिए. कर्ट कोबेन से. गुरुदत्त से. मंटो से. शहर के मौसम से. दिलरुबा दिल्ली से. रॉयल एनफील्ड बुलेट से. हर चीज़ से इश्क़ होना चाहिए...ये क्या कि छू के गुज़र गए. मुझे जब भी होता है इश्क़ मुझे उसकी हर बात से इश्क़ होता है. उसके शहर. उसकी किताबों. उसकी कविताओं. उसकी पुरानी प्रेमिकाओं. उसकी माँ के पसंदीदा हरे रंग की साड़ी...उसकी बीवी के कानों में अटके गुलाबी बूंदे...सबसे इश्क़ हो जाता है मुझे. इस डूबने में कितना कुछ नया मिलता है. मैं जानती हूँ उसे चाय पसंद है तो जिंदगी में पहली बार चाय पीती हूँ...वो जानता है कि मुझे ब्लैक कॉफ़ी पसंद है तो वो ब्लैक कॉफ़ी पीता है. अब जनाब चाय सिर्फ एक दूध, चीनी, चायपत्ती वाली चीज़ नहीं रह जाती...चाय उस अहसास को कहते हैं कि सिप मारते हुए उसके होठों का स्वाद आये. तीखी बिना चीनी वाली ब्लैक कॉफ़ी पीते हुए कोई सोचे कि लड़की इतनी मीठी और टेस्ट इतना कड़वा...खुदा तेरी कायनात अजीब है. इश्क हो तो उसके बालों की चांदी से कान से झुमके बनवा लेना चाहे लड़की तो कभी गूगल मैप पर ज़ूम इन करके थ्री डी व्यू में देखे कि उसके शहर की जिन गलियों से वो गुज़रता है वहां के मकान किस रंग के हैं. इश्क़ होता है तो हर बार नए बिम्ब मिलते हैं...क्रॉसफेड होता है वो हर लम्हा...घुलता है रूह में...शब्द में ...सांस में.

I am my eternal muse. मुझे muse के लिए दूसरा शब्द नहीं आता. मेरे लिए हर बार इश्क़ में पड़ना खुद को उस दूसरे की नज़र से देखना और फिर से अपने ही प्यार में पड़ना है. मैं पूरी तरह सेल्फ ओब्सेस्स्ड हूँ. मुझे खुद के सिवा कुछ नहीं सूझता. मैं तेज़ कार चलाती हूँ...DDLJ के गाने सुनती हूँ. इस उदास फीकी धूप वाले शहर पर अपने मुस्कुराहटों की धूप बुरकती हूँ. आते जाते लोगों से बेखबर. खुद को देखती हूँ आईने में तो खुद पे प्यार आता है. हंसती हूँ. पागलों की तरह. सांस लेती हूँ गहरी. इतनी गहरी कि उसके हिस्से की ऑक्सीजन कम पड़ जाए और वो छटपटा कर मुझे फोन करे...जानम...मेरी सांस अटक रही है. तुम हो न कहीं आसपास. मैं फिर खिलखिलाते हुए उसके शहर में उड़ाती हूँ अपना नीला दुपट्टा और कहती हूँ उससे...तुम्हारे शहर में हूँ जानम...आ के मिल लो. मैं बुनती हूँ सुनहरी कल्पनाएँ और सतरंगी ख्वाब. मैं इश्क़ को सियाही की तरह इस्तेमाल करती हूँ. खुद को पूरा डुबो कर लिखती हूँ जिंदगी के सफ़ेद कागज़ पर एक ही महबूब का नाम. दास्तान हर बार नयी. शहर नया. सिगरेट नयी. परफ्यूम नया. ड्रिंक नयी. मिजाज़ नया. 

इश्क़. एक आदत है. बुरी आदत. मगर मेरा खुदा आसमान में नहीं, नीचे जहन्नुम में रहता है. मेरे गुनाहों की इबादत को क़ुबूल करता है. मैं जब भी इश्क़ में जान देने को उतारू हो जाती हूँ वो खुद आता है मुझे बांहों में थामने...सांस रुक जाने तक चूमता है और कहता है 'पुनः पुनर्नवा भवति:'. 

***

PS: मैं हर बार इश्वर से शुरू होकर शैतान तक कैसे पहुँच जाती हूँ मुझे नहीं मालूम. शायद मुझे दोनों से इश्क़ है.

5 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1866 में दिया गया है
    धन्यवाद

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  2. इश्क़ होता है तो हर बार नए बिम्ब मिलते हैं...क्रॉसफेड होता है वो हर लम्हा...घुलता है रूह में...शब्द में ...सांस में.

    खूबसूरत।

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  3. Every word here is a pure Puja an eternal bliss!!! :-)

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  4. दीवानगी भी है तो है .....बहुत सुंदर

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