30 November, 2015

बुकमार्क के नक्शे पर मिलते लोग

रातें खुली किताबों जैसी होतीं हैं. उसे रातें नहीं पसंद. उसे खुली किताबें भी नहीं पसंद. न वे लोग जो किताबों को बेतरतीबी से बरतते हैं. उसे पास भतेरे बुकमार्क्स होते. वो जगह जगह से बुक मार्क इकठ्ठा करते चलती. कभी कोई न भेजा हुआ पोस्टकार्ड. स्टैम्प्स के निकल जाने के बाद के खाली स्टीकर वाले खाके. कभी फूल तो कभी कोई तिनका ही कोई. कहीं से मैग्नेटिक बुकमार्क तो कहीं मेटल वाले. किसी बुकमार्क में बत्ती जलती. तो कोई रेशम के रिबन से बना होता. कुछ भी बुकमार्क हो सकता था. ट्रेन की टिकट्स. पसंदीदा कैफे का बिल. उसके क्रश के सिग्नेचर वाला कोई पेपर नैपकिन. सिगरेट की खाली डिब्बी. कुछ भी. 

जिस दुनिया में इतना सारा कुछ हो सकता है बुकमार्क्स के लिए, वहाँ खुली किताबें क्यूँ होतीं? उसे लोग कहते कि उनका जीवन खुली किताब है. वो उनसे कहना चाहती, किताब बंद कर के रख दीजिये...कोई कॉफ़ी गिरा देगा...उड़ती चिड़िया बीट कर देगी...कोई पन्नों पर किसी भी ऐरे गैरे का फोन नंबर लिख मारेगा. जिंदगी इतनी फालतू नहीं और किताबें तो खैर और भी नहीं. क्यूँ होना खुली किताब. कि जैसे रात के पहर. सब मालूम चलता था. वो कितनी रात जगी थी. व्हाट्सएप्प पर लास्ट लॉग इन कितने बजे था. उसने रात को सोने के पहले कॉफ़ी पी या ग्रीन टी, ओल्ड मौंक या नीट विस्की...सिगरेट या बीड़ी...किसी को याद किया या नहीं...कोई गाना सुना या नहीं...ग़ालिब को पढ़ रही थी या फैज़ को...सब कुछ. खुली किताब सा था. ये खुली किताब उसे बिलकुल पसंद नहीं आती थी. 

उसे किताबें लोगों जैसी लगतीं...परत दर परत खुलतीं...हर पन्ने में कुछ और लिखा होता और सब कुछ जाने लेने का सस्पेंस उसे किताब आखिरी पन्ने से पढ़ने को मजबूर कर देता कई बार...कि जैसे किसी रिश्ते को हड़बड़ी में कोई नाम दे दिया जाए, 'दोस्ती', फिर आप उम्र भर उस लेबल से चिपके रहोगे और चाह कर भी बाहर नहीं निकल पाओगे. ये तो फिर भी गनीमत है, मान लो कोई कच्ची उम्र रही और बिहार जैसे किसी प्रदेश में रहना हुआ...तब तो एक ही रिश्ता हो सकता था किताबों से या लड़कों से, रक्षा का, 'भैय्या'. कितनी बार किताबों को आग में झोंक देने का मन किया है उसका. मगर किताबों का काम था उसकी रक्षा करना...और ये काम उन्होंने उसके भाइयों से बेहतर किया...किताबें उसे ज़माने की नज़रों से बचाती थी. स्लीपर कम्पार्टमेंट में चलते हुए वह देश के सहिष्णुता भरे माहौल में गाँधी की लिखी 'सत्य के प्रयोग' में आँखें घुसाए रहती. उसके चश्मे और किताब रुपी ढाल के पार कोई निगाह उस तक नहीं पहुँच सकती. अपनी अकेली ट्रेन यात्राओं में उसने समझ लिया था कि किताबें आपकी बेस्ट फ्रेंड हो या न हों...आपकी सबसे अच्छी बॉडीगार्ड जरूर हो सकती हैं. वो अक्सर कोई बड़ी भारी, मोटी सी किताब लिए चलती. अंग्रेजी में हो तो और भी अच्छी. कभी कभी इन किताबों के अन्दर नागराज के कोमिक्स भी रख के पढ़ लेती और अपनी इस जीत पर पूरे रास्ते मुस्कुराती जाती. स्लीपर का ऊपर का कम्पार्टमेंट कभी भी दम घुटने नहीं देता. बहुत गर्मियों में उसका भुजे हुए चावल के लावा जैसा हाल हो जाता और सर्दियों में नाक एकदम टमाटर हुयी जाती. लेकिन हर बार, किताबों के पीछे वह हमेशा खुद को बहुत सुरक्षित महसूस करती.

रांची से उसके गाँव के रस्ते में बस यही एक ट्रेन का रूट पड़ता था. वो रांची स्टेशन पर चढ़ती बाकी लड़कियों को देखती. अपने जींस टी शर्ट और उसके ऊपर पहने ढीले ढाले जैकेट में वो अलग ही नज़र आतीं. सब्भ्रांत. लड़के उन्हें नज़र बचा बचा कर देखते. उसकी तरह पूरे बदन का एक्स रे नहीं करते. लड़की उनके हाथों में कई बार 'कॉस्मोपॉलिटन' जैसी अंग्रेजी मैगजीन देखती और गहरी सांस भरती. एक बार उसने बुक स्टाल पर मैगजीन उठा कर देखी भी थी मगर सौ रुपये की किताब और उसपर के गहरे मेकउप और कम कपड़ों वाली कवर फोटो की लड़की को देख कर ही उसे यकीन हो गया कि ये किताब वो हरगिज़ अपने स्लीपर कम्पार्टमेंट की किसी भी बर्थ पर नहीं पढ़ सकती है. ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए तो कमसे कम एसी थ्री टायर का टिकट कटाना ही होता. सलवार कुर्ता पहने, दुपट्टे से बदन पूरा लपेटे, एक काँधे में कैरी बैग टाँगे धक्का मुक्की में कम्पार्टमेंट में चढ़ना अपने आप में आफत थी. एक तरफ उनके हाथ में महंगे बैग्स हुआ करते थे. पहिये वाले इन बैग्स को खींचने में कहाँ की मेहनत. आराम से एक हाथ में मैगजीन, एक हाथ में बक्से का हैंडिल. कानों में हेडफोन्स लगे हुए. ट्रेन आई नहीं कि अपना बैग सरकाती आयीं और आराम से चढ़ गयीं. लड़की कल्पना करती कि कभी उसकी दिल्ली जैसे किसी शहर में नौकरी लगेगी. फिर वो अपने पैसे से एसी टू टायर का टिकेट कटाएगी और पूरे रास्ते खिड़की वाली बर्थ पर बैठे हुए कभी बाहर के नज़ारे देखेगी तो कभी कॉस्मोपॉलिटन पढ़ेगी. अगर साथ की बर्थ के लोग अच्छे हुए...या कोई खूबसूरत लड़का हुआ तो पर्दा नहीं लगाएगी वरना अपना पर्दा खींच कर चुपचाप अपने छोटे से एकांत सुख में डोलती जायेगी. बंद किताब जैसी. 

स्लीपर में तो वो खाना खुद लेकर चढ़ती. माँ की सख्त हिदायत रहती कि रास्ते का कुछ भी लेकर खाना पीना नहीं है. कभी कभी उसे चाय की बड़ी तलब लगती. मगर फिर उसे वो सारे अख़बार के कॉलम्स याद आ जाते जिनमें नशीली चाय पिला कर न केवल लोगों के सामान की लूट-पाट हुयी, बल्कि कई बार तो जान तक चली जाती रही है. उसके पड़ोस में रहने वाली सहेली की फुआ का जौध ऐसे ही कॉलेज ज्वायन करने जा रहा था. लुटेरों को शायद खबर होगी कि कॉलेज एडमिशन का टाइम है, इस वक़्त लड़के अक्सर फीस के पैसे साथ लेकर चलते हैं. उस घटना में उसी ट्रेन में साथ जाते हुए पांच लड़के एक साथ उनके चंगुल में फंसे थे. बिहिया स्टेशन से अधमरी हालत में रेलवे पुलिस बल उन्हें उठा कर लाया था. हफ़्तों इलाज चला था तब जा कर नार्मल हो पाए थे लड़के. लेकिन एसी टू टायर में तो रेलवे के आधिकारिक चाय वाले होते हैं. युनिफोर्म पहन कर चाय बेचते हैं. आज भले वो तीस रुपये की चार कप चाय पीने का सपना भी नहीं देख सकती लेकिन एक दिन तो ऐसा होगा कि पूरी ट्रेन जर्नी में वो किताब पढ़ती आएगी और जब उसका मन करेगा या जब चाय वाला गुज़रता रहेगा, एक कप चाय माँग लेगी. अगर किसी से बातचीत होने लगी तो दोनों के किये दो कप चाय बोल देगी और खुद ही बिना शिकन के पर्स से साठ रुपये निकाल कर दे भी देगी...हँस कर कहते हुए...कि अजी साठ रुपये होते भी क्या हैं...देखिये न डॉलर तक आजकल ७० रुपये होता जा रहा है. जैसे जैसे उसके फाइनल इयर के एक्जाम के दिन पास आ रहे थे उसकी कल्पनाएँ एसी टू टायर ही नहीं आगे अमरीका तक भाग रही थीं. अब जाहिर है, अमरीका तक भारतीय रेल की पटरियां तो नहीं बिछी थीं. 

अभी पिछले महीने ही तो मोहल्ले में शादी थी तो बरात आने के बाद जनवासे का मुआयना करने वह भी अपने भाइयों के साथ गयी थी. एक बार घर से बाहर निकल जाने के बाद लड़का लड़की में भेद नहीं रहता. दौड़ दौड़ कर बाहर का बहुत सा काम किया था उसने शादी में. पंडाल बुक करने से लेकर खाने के मेनू के आइटम्स में उसकी राय पूछी गयी थी. इस बार उसने चाचा से लाड़ भरे स्वर में कह दिया कि वो भंडारी बन कर कमरे में आटे तेल का हिसाब नहीं रखेगी. वह भी भाइयों के साथ जनवासा जायेगी. एक्जाम ख़त्म हो गए थे. नयी नौकरी का ज्वायनिंग लेटर उसका पसंदीदा बुकमार्क था उन दिनों. वह फिर से दोहरा कर पाश को पढ़ रही थी. सब लोग खाना खाने गए हुए थे, मैरिज हॉल के तीनों एसी कमरे लड़के वालों के लिए बुक थे जिनमें से एक की चाभी उसे भी दी गयी थी. जयमाला के फूल उसी कमरे में रखे थे. थाल सजा कर वो कमरे में रखने के लिए आई थी. इस कमरे में सिर्फ एक ही बक्सा रखा था और बाकी कमरों की तरह आईने के पास लिपस्टिक और जल्दी में फेंकी गयी बिंदियों के स्टीकर नहीं थे. ये कमरा जाहिर तौर से लड़का और उसके दोस्तों के इस्तेमाल के लिए था. उसने थाल करीने से टेबल पर रख दिया कि तभी बिस्तर के सिरहाने उसकी नज़र पड़ी. वो देखते ही पहचान गयी. नोबल पुरस्कार विजेता विस्लावा सिम्बोर्स्का की कविताओं का संकलन, 'Map' की एक प्रति वहां रखी हुयी थी. उसने पहली बार अख़बार में इस लिटरेचर में नोबल पुरस्कार से सम्मानित सिम्बोर्स्का के बारे में पढ़ा था. उनके भाषण का एक छोटा सा हिस्सा अनुवादित होकर उनकी तस्वीर और किताब के कवर के साथ छपा था. किताब ने उसे बेतरह अपनी ओर खींचा था. कुछ तो उस तस्वीर में इंतज़ार और कुछ उसके अपने खुद के सपने जिसमें दुनिया के नक़्शे के कई देश देखने थे उसे. वह रांची में अपने बुकसेलर को कितनी बार बोल चुकी थी लेकिन किताब की प्रति अभी तक नहीं आई थी. उत्सुकता में उसने किताब का पहला पन्ना खोला...लेखिका के नाम के ऊपर हरी स्याही में लिखा था, 'आई लव यू...' कुछ इस तरह से कि पूरा वाक्य बन जाता था, आई लव यू विस्लावा सिम्बोर्स्का. उसने किताब खोली कि अन्दर से फ्लाइट टिकट बाहर गिर गया. हड़बड़ में उसने टिकट की जगह थाल से उठा कर कुछ गुलाब की पंखुड़ियाँ वहाँ डाल दीं. टिकट पर किसी विराग भट्टाचार्य का नाम लिखा हुआ था. 'विराग?!' ये कैसा नाम हुआ...कौन रखता है अपने बच्चे का नाम, विराग! वहां रुकना ठीक नहीं था. किताब को देख कर उसका मन डोल रहा था. यूँ उसने आज तक कभी किसी की किताब चुराई नहीं थी, लेकिन कभी आज तक ऐसी ईमान डोला देने वाली किताब उसके हाथ लगी भी तो नहीं थी. चुपचाप कमरे से बाहर आ गयी. 

फिर तो बाकी शादी में क्या ही मन लगना था. बार बार सोचती रही कि इन सारे लड़कों में विस्लावा सिम्बोर्स्का से प्रेम करने वाला बंगाली विराग होगा कौन. हल्ले हंगामे में शादी कटी. अगले दिन दीदी की विदाई हो गयी. इसके तीन दिन बाद वहीं रिसेप्शन भी था. वो चूँकि दीदी की थोड़ी ज्यादा ही मुन्हलगी थी तो पूरे ससुराल वालों ने भी बड़े प्यार से उसे इनवाईट किया था. बड़े ऊंचे खानदान में बियाही थी दीदी. रिसेप्शन से पहले अपनी एक छुटकी ननद को भेज दिया था उसे पूरे घर को दिखाने के लिए. कमरे में किताब पर उसकी फिर से नज़र पड़ी. इस बार तो उसने तय कर लिया कि ये मिस्टर विराग जो भी हैं, फिर से किताब खरीद के पढ़ लेंगे मगर उसे अगर अभी ये किताब नहीं मिली तो शायद उसकी जान जरूर चली जायेगी. छुटकी को जरा सा भटका कर उसने किताब अपने पर्स में रख ली. रिसेप्शन में घड़ी घड़ी उसका मन उसे काट खाने को दौड़ता. कितनी सारी फिल्मों के सीन याद आते. किसी ने बैग खोल कर देख लिया तो. नतीजन उसने उस बड़े से बैग को पल भर भी खुद से अलग नहीं किया. फोटो खिंचाने तक में बैग टाँगे रही. 

सही गलत क्या होता है इसका सच सच निर्धारण बहुत मुश्किल है. उसने सोचा था किताब की फोटोस्टेट करा के अगले ही दिन दीदी के यहाँ खुद जा के रख आएगी किसी बहाने से. या किसी के हाथ भिजवा देगी. मगर सोच के दायरे में सारी संभावनाएं कहाँ आ पाती हैं. अगले दिन दीदी के नंबर पर फोन किया तो पता चला कि वो हनीमून पर सिंगापुर चली गयी है. सरप्राइज था. अकेले घर में जा कर किताब रखने की तो उसकी हिम्मत नहीं पड़ी. अब जिस किताब को लाने से सीने पर इतना बड़ा बोझ था उसे कम करने का एक ही उपाय था...किताब का सही उपयोग. उसने किताब न केवल खुद पढ़ी बल्कि जिद कर कर के लोगों को पढ़वाई. अपने हिसाब से कई कविताओं के कच्चे पक्के अनुवाद करने की इच्छा पहली बार तब ही जागी थी. पूरे गाँव में बैठ कर उसके साथ विस्लावा की कविताओं में किसी को कोई इंटरेस्ट नहीं था, किसी को इंटरेस्ट था भी तो इस बात में कि वो लड़का कौन था. बहुत मेहनत करके उसने अपनी पसंदीदा कविताओं का अनुवाद किया और किताब के पब्लिशर के पास एक चिट्ठी भेजी कि मैं इससे कोई लाभ नहीं उठाना चाहती हूँ मगर ये कवितायें यहाँ दूर तक पहुचेंगी अगर मुझे अनुवाद को यहाँ के कुछ अख़बारों और मैगजींस में छापने की अनुमति दी जाए, उसने कुछ कविताओं का अनुवाद संलग्न कर दिया था. बचपन से दोनों भाषाओं में पढ़ना काम आया था. उसके अनुवाद में कविता की आत्मा के रंग चमकते थे. पब्लिशर का जवाब हफ्ते भर में आ गया था. लिखने का सिलसिला अनुवाद से शुरू हुआ और उसकी खुद की कविताओं का रास्ता खुलता गया. बचपन से वो खुद में अहसासों की एक झील बनाती जा रही थी और इस रास्ते से झरना फूटा था. उस दिन के बाद उसने मुड़ कर नहीं देखा. 

कवितायें उसकी खासियत थीं. वो अपने सारे खाली वक़्त में अलग अलग भाषाएँ सीखती. किसी किताब के अनुवाद के पहले उस भाषा का कामचलाऊ ज्ञान हासिल करती. उसके अंग्रेजी अनुवाद को पढ़ती. उसके मूल भाषा में लिखे को पढ़ती. वहां के लोगों के जीवन के बारे में पढ़ती. वहां के लोगों से इन्टरनेट के माध्यम से जुड़ती और कविता के श्रोत को समझने की कोशिश करती. सारा लिखा आत्मसात करने के बाद जव वो अनुवाद करती तो कविता का नैसर्गिक सौंदर्य इस तरह उभरता कि समझना मुश्किल होता कि अनुवाद ज्यादा खूबसूरत है या असल कविता. उसकी मेहनत और अनुवाद के प्रति उसकी दीवानगी को देखते हुए कई सारे लेखकों और प्रकाशक उससे जुड़ते गए. जिस सफ़र की शुरुआत ही 'Map' से हो तो नक़्शे पर के शहर तो उसे देखने ही थे. देखते देखते उसने फुल टाइम कविता लिखने, उसपर बात करने और अनुवाद करने को दे दिया. पेरिस, प्राग, बर्लिन, क्राकोव...कई सारे शहर से उसके नाम आमंत्रण आते.एक दिन...क्रैकोव से उसके लिए न्योता आया. सिम्बोर्स्का के प्रकाशक ने उसे बुलाया था. एक बड़ा सेमीनार था जिसमें सिम्बोर्स्का के लेखन, उसकी शैली और उसके प्रभाव पर चर्चा थी. सारे प्रमुख अनुवादकों को बुलवाया गया था.

लड़की ने इतने सालों में कभी Map की खुद की प्रति नहीं खरीदी थी. फ्लाइट में बैठते हुए लड़की ने वही पुरानी किताब निकाली और पढ़ने लगी. याद में शादी की गंध, खुशबुयें और वो अनजान लड़का भी घूमता रहा. रास्ते में उसे हलकी सी झपकी आ गयी. नींद खुली तो देखा कि बगल वाली सीट पर का पुरुष किताब बड़े गौर से पढ़ रहा है. चौड़ा माथा. तीखी नाक. गोरा शफ्फाक रंग. खालिस पठान खूबसूरती. उसने गला खखारा लेकिन वो तो जैसे किताब में डूब ही गया था. आखिर उसने उसे काँधे पर हल्का का हाथ रख के एक्सक्यूज मी कहा. वो चौंका और एक शरारती मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा.
'माफ़ कीजिये, मेरी किताब'
'जी'
'आप मेरी किताब पढ़ रहे हैं'
वो एक ढिठाई के साथ बोला, 'अच्छा, तो आपका नाम विराग भट्टाचार्य है, देखने से तो नहीं लगता'. किसी नार्मल केस में वो हँस देती और पूरी कहानी बयान कर देती, मगर यहाँ सेमीनार में जाने वाले कई ख्याल और शादी की मिलीजुली यादों में डूब उतरा के उसका मूड कुछ खराब सा था.
'मेरा नाम विराग भट्टाचार्य नहीं है, लेकिन ये किताब मेरी है'
'अरे, ऐसे कैसे मान लूं कि आपकी है...क्या सबूत है?'
'मेरी नहीं है तो क्या आपकी है...आपके पास क्या सबूत है कि ये आपकी किताब है?'
'क्यूंकि ये किताब मैंने खुद विराग से चुराई थी'
'जी...मतलब'...वो एकदम ही अचकचा गयी थी.
'बात कोई दस साल पुरानी है...मेरा दोस्त शिकागो से बड़े शौक़ से Map लेकर आया था और हम दोनों को उसे पढ़ जाने का भूत सवार था. मुझे शादी में आना था, बस मैंने चुपचाप उसकी किताब उठा कर अपने बैग में रख ली...शादी में जूते चोरी होना तो सुना था, किताब चोरी करने वाली सालियाँ पहली बार देख रहा हूँ'
'जी!'
'जी'
'आप झूठ बोल रहे हैं' वो सिटपिटा गयी थी.
'ठीक है मैं झूठ बोल रहा हूँ तो क्या विराग भी झूठ बोल रहा है...विराग...बता जरा इनको'
और उसकी बगल वाली सीट पर मंद मंद मुस्कुराता उसका बंगाली विराग भट्टाचार्य था...जो कि शादी में आया ही नहीं था तो उसे दिखता कैसे. 
'मैडम, ये मेरी ही किताब है...शायद आपको याद हो, इसमें एक एयर इण्डिया का टिकट भी था...मैं उसे बुकमार्क की तरह इस्तेमाल कर रहा था.'
इस हालात में हँसने के सिवा कोई चारा नहीं था. तीनो ठठा कर हँस पड़े. विराग और आहिल में शर्त लगी थी. विराग का कहना था कि किसी लड़के ने किताब उड़ाई होगी, आहिल का कहना था कि लड़की ने. फिर पूरा सफ़र बड़े मज़े में बात करते करते कटा. Map से शुरू हुआ सफ़र उन्हें अनजाने पास ले आया था. और वे मिले भी तो कहाँ, क्रैकोव जाने वाले प्लेन में! बातों बातों में कब प्लेन के लैंड करने का वक़्त आ गया मालूम भी नहीं चला. अब बात थी कि किताब किसके पास जाये. आहिल ने कहा कि टेक्निकली किताब कभी उसकी थी ही नहीं फिर भी जिस किताब से इतनी कहानियां बनी हैं उसपर उसका कोई हक नहीं है. वो अलबत्ता खुश बहुत था कि उसकी मारी हुयी किताब कितने दूर तक पहुंची. तीनों फिर सेमीनार में मिलने वाले ही थे. इन फैक्ट वे एक ही होटल में ठहरे थे. विराग ने किताब वापस करते हुए कहा कि बाकी सब तो ठीक है, हाँ बुकमार्क नहीं है...आप चाहें तो मेरा बोर्डिंग पास इस्तेमाल कर सकती हैं. 

लड़की खुश थी. गुज़रते सालों के दरमयान किताबों को ढाल बनने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हाँ उनसे कहानियां जरूर निकलती थीं कई सारी. लेकिन Map के जिंदगी में आने और आज आखिरकार विराग और आहिल से मिलना कोई कहानी नहीं कविता जैसा खूबसूरत था...सिम्बोर्स्का की कविताओं जैसा. लड़की मुस्कुराते हुए उसके बोर्डिंग पास बुकमार्क को किताब में रख रही थी.

28 November, 2015

अमलतास की डाल पर खिलती दोस्तियाँ

'तुम क्या चाहती हो मेरी दोस्त?'. उसका ये पूछना मुझे मोह गया था...कि उसके पूछने में एक कोमलता थी...एक आर्दता थी...न समझ पाने की खीझ नहीं...नहीं समझे जाने का उसका आत्मानुभूत अनुभव था. प्रेम ने मुझे कई बार छला है. मित्रता के आवरण में आता है और हमेशा पीठ पर प्रेम का खंजर भोंकता है. उसे इस व्यवहार से मैं इस तरह उलझ गयी थी कि किसी भी व्यक्ति के जरा भी करीब आने में मुझे डर लगता था.

वो मुझे ऐसे ही किसी मोड़ पर मिला था. यूँ वो शहर कोई भी हो सकता था. मेरे पसंदीदा शहर दुनिया के नक़्शे में बिखरे हुए हैं. स्विट्ज़रलैंड में बर्न...अमरीका में शिकागो या कि हिंदुस्तान में कन्याकुमारी. मगर हमें किसी ऐसे शहर में मिलना नहीं लिखा था जिसकी गलियों में खुशबू हो...जिसकी हवाओं में उस शहर की शिनाख्त की जा सके. हमें ऐसे शहर में मिलना था जिसकी गलियां नामालूम हो. पोलैंड के नाज़ी यातना शिविरों में कैदियों से उनका नाम छीन लिया जाता था. हम जिस चौराहे पर मिले थे उसका परिचय भी ऐसे ही धूमिल कर दिया गया था ताकि हम कभी भी लौट कर वहाँ नहीं जा सकें. 

चौराहे पर एक डाकघर था जहाँ से मैंने टिकट खरीदे थे और वहीं सीढ़ियों पर बैठी पोस्टकार्ड लिख रही थी. जब सारे पोस्टकार्ड्स पर मेसेज और पता लिख दिया और स्टैम्प चिपका दिए तो मैं देर तक आसमान देखती रही. नीले आसमान की छोटी छोटी पुर्जियां दिख रही थीं सुनहले पेड़ के पत्तों के बीच से. हवा के झोंके में किसी पुकार का संगीत नहीं घुला था. मैं एक एक करके पोस्टकार्ड नीले डब्बे में गिरा रही थी जब मैंने उसे सामने से आते देखा. चुंकि मुझे मालूम नहीं था कि ये शहर कौन सा है तो मैं ये भी नहीं जान सकती थी कि वो इस शहर में हो सकता है. उसकी मुस्कान में एक प्रतीक्षा थी. जैसे उसे मालूम था कि इस नामालूम शहर के इसी डाकघर तक मुझे आना है. उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया...उसकी बंधी मुट्ठी में एक अमलतास का फूल था. मगर इस शहर में तो अमलतास नहीं खिलते.

'मेरा पोस्टकार्ड मुझे दे दो...यहाँ से गिराओगी तो खो जाएगा...मेरा शहर यहाँ से तेरह समंदर पार है'. मेरा दायाँ हाथ उसने थाम रखा था...हम दोनों की हथेलियों के बीच एक अमलतास का फूल साँस ले रहा था. मेरे बाँयें हाथ में उसके नाम का पोस्टकार्ड था जिसे मैं लेटर बौक्स में गिराने ही वाली थी. मगर उसे सामने सामने कैसे दे दूँ ये पोस्टकार्ड...अभी इसके मिलने का वक़्त तय नहीं हुआ है. मुझे संगीत के नोटेशंस याद आये...सम पर मिलना था उसे ये पोस्टकार्ड. अगर वो अभी मेरा लिखा पढ़ लेगा तो जिंदगी के ताल में ब्रेक आ जाएगा.

'तुम्हें समंदर गिनने आते हैं?' मैंने उसका पोस्टकार्ड करीने से अमलतास के फूल के साथ अपनी नोटबुक में रख दिया. हवा में बहुत ठंढ थी. वेदर रिपोर्ट वालों ने कहा था कि आज मौसम की पहली बर्फ गिरेगी. उसने अपनी कोट की जेब से दस्ताने निकाले और पहनने लगा. मेरे पास आधी उँगलियों वाले दस्ताने थे. इनमें उँगलियों के पोर बाहर निकले रहते हैं. मैं पूरे ढके हुए दस्ताने नहीं पहन सकती. कलम को छू न सकूँ तो मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगती है. उसने मुझसे एक दस्ताने की अदलाबदली कर ली. हम दोनों मिसमैच वाले दस्ताने पहन कर हँस रहे थे. मुझे लगा कि हमारी हँसी उजले फाहों की तरह गिर रही है मगर फिर उनकी ठंढक ने बताया कि बर्फ गिरने लगी है. हम वहाँ से बेमकसद किसी ओर चल पड़े. उसके काले कोट पर बर्फ के फाहे यूँ दिखते थे जैसे मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा हुआ है. साथ चलते हुए हमारी उँगलियों के पोर एक दूसरे को छूते हुए चल रहे थे. जैसे हमारे बीच कोई तीसरा बहुत प्यारा दोस्त है जिसने हम दोनों की हथेलियाँ थाम रखी हैं.

वो शनिवार का दिन था और शहर के लोग छुट्टियाँ बिताने गाँव की ओर निकल गए थे. अगर चाहना पर दुनिया चलती तो उस वक़्त हम दोनों एक नोटबुक, एक कलम और नए शहर बनाने की बहुत सी कल्पनाएँ चाहते थे...हम उसी वक़्त अपनी पसंद का एक शहर बना सकते थे जिसमें मेरी पसंद के फूल खिलते और उसकी पसंद का मौसम आता. मगर इस ठंढ में हमें पहले इक शांत जगह चाहिए थी जहाँ अलाव जल रहे हों और बेहतरीन विस्की या ऐसी कोई चीज़ मिल सके कि जिससे उँगलियों के पोरों में जमी ठंढ पिघल सके. सामने मेट्रो स्टेशन था. हम दोनों ने पहली मेट्रो ले ली. दिन के ग्यारह बज रहे थे, हमारे पास इतनी फुर्सत थी कि हम धरती का एक पूरा राउंड लेकर आ सकते थे. मगर हम पहले ही स्टॉप पर उतर गए. वह एक छोटा सा पहाड़ी गाँव था जिसका फ्रेंच नाम था...मेरे पसंदीदा गीत 'ला वियों रोज' की तरह कोई पोएटिक सा नाम. 

गाँव की सड़कें बहुत पुराने पत्थर की बनी थीं. इसी राह से क्रन्तिकारी और प्रेमी दोनों गुज़रे होंगे. पुरानेपन में एक कालजयी गंध थी. एक रेस्तरां से ब्रेड के बनने की मीठी खुशबू आ रही थी और टेबलों पर अलाव की छोटी डोल्चियाँ रखी थीं. दास्ताने उतारते हुए हम फिर से हँस पड़े. 'मैं तुम्हारा ये दस्ताना रख लूँ?' उसने मेरा वाला दस्ताना अपनी कोट की जेब में रख लिया था. 'एक दस्ताने का क्या करोगे, तुम्हें पसंद हैं तो जोड़ा रख लो.', मैं अपने हाथ से उतार कर उसे अपना दस्ताना देने लगी कि उसने रोक दिया. 'नहीं दोस्त, एक ही चाहिए...तुम्हें याद करने को इतना काफी है...दोनों रख लूँगा तो तुम पर शायद कोई हक जताने लगूँ.'

आर्डर लेने आई हुयी औरत की उम्र कोई चालीस साल होगी...मुस्कुराती है तो गालों में गहरे गड्ढे पड़ते हैं और उसकी आँखों में बहुत काइंडनेस दिखती है. हम दोनों एक लम्बे से नाम वाला कोई ड्रिंक आर्डर करते हैं जिसमें पड़ने वाली कोई भी सामग्री हमें समझ नहीं आती. धूप का एक तिकोना टुकड़ा हमारे ठीक बीचो बीच लकड़ी की मेज पर आराम फरमाने लगता है. हमारी ड्रिंक काली चाय थी जिसमें दालचीनी, लौंग, अदरक और जायफल की तेज़ गंध थी...साथ में अल्कोहल की तीखी गर्माहट भी थी. हम दोनों ने अपनी अपनी ड्रिंक में दो चार चम्मच शहद मिलाई...हर सिप में 'शायद' का स्वाद आता है...जैसे 'शायद ये एक सपना है', 'शायद मैं सिजोफ्रेनिक हो रही हूँ', 'शायद मैं एक नयी कहानी लिख रही हूँ'...ऐसे ही बहुत से जायकेदार शायदों की चुस्की लेते हुए हम देर तक एक दूसरे को देखते रहे. 

'अच्छा विश...अपने बारे में एक एक फैक्ट से शुरू करते हैं बातें...तुम्हारा पूरा नाम क्या है?'
'मेरा कोई नाम नहीं है...तुमने एक दोस्त की विश की थी इसलिए मैं तुम्हारे रास्ते भेज दिया गया. भगवान के कारखाने में हम जैसे लोग लिमिटेड एडिशन में बनाये जाते हैं. तुमने बड़े सच्चे दिल से मुझे माँगा है, इसलिए मैं आ गया हूँ...जब तुम्हारी ये जरूरत पूरी हो जायेगी...मैं गुम जाऊँगा और तुम्हें मेरी कोई याद भी नहीं रहेगी.'
'तो तुम मेरी चाहना के कारण आये हो?'
'हाँ मेरी दोस्त...तुम क्या चाहती हो?'
'इस वक़्त तो मैं कुछ भी नहीं चाहती विश...अगर ये सपना है तो ऐसे गहरे...मीठे और सच से लगे वाले कुछ और सपने...अगर ये एक कहानी है तो ऐसी कुछ एक और लम्बी कहानियां...जिंदगी से ज्यादा शिकायत नहीं है मुझे'
'तो मैं कभी कभी मिलने आता रहूँगा तुमसे...यूँ ही. कोई तीन एक साल में एक आध बार?'
'तीन साल थोड़े ज्यादा है...तुम साल में एक बार नहीं आ सकते?'
'दोस्त, मेरे आने का मौसम चाहिए तुम्हें?'
'अगर मैं हाँ कहूँ तो तुम मेरी बात मान लोगे?'
'चलो अगर मान लिया तो क्या नाम दोगी उस मौसम को?'
'नाम नहीं...इस मौसम के लिए एक फूल होगा...अमलतास...मुझे जिस साल तुम्हारी बहुत याद आएगी मैं तुम्हें अमलतास के फूल भेजा करूंगी लिफाफों में'
'सिर्फ फूल? ख़त नहीं भेजोगी?'
'नहीं विश...तुमसे करने को ख़त में बातें नहीं होतीं...तुमसे मिल कर जान रही हूँ कि कागज़ पर लिखे शब्दों का एक ही आयाम होता है...वे यूँ बात नहीं कर सकते. अब मुझे नहीं लगता मैं तुम्हें कभी ख़त लिख सकूंगी. अब तुम्हारी तलब लगेगी तो तुम्हें आना पड़ेगा.'
'हक की बात आ ही जाती है न मिलने से?'
'हक नहीं है...दुआएँ हैं...अमलतास जैसी...सुनहली पीली...शांत' 

मैं अपनी नोटबुक से वही अमलतास का फूल निकाल कर उसके काले कोट के बटनहोल में लगा देती हूँ. फूल गिर न जाए इसलिए अपने बालों से एक क्लिप निकाल कर उसे फिक्स कर देती हूँ. चेहरे पर एक लट बार बार झूल आ रही है. मैं नोटबुक देखती हूँ तो उसमें एक और अमलतास का फूल पाती हूँ. उसे निकाल कर टेबल पर रखती हूँ तो देखती हूँ वहाँ एक और अमलतास का फूल है...धीरे धीरे टेबल पर एक गुच्छे अमलतास के फूल जमा हो जाते हैं. विश मेरी ओर देख कर मुस्कुराता है. मैं उसकी. वो लम्हा बहुत मीठा है. अमलतास के मौसमों में जो शहद बनता है...उतना मीठा. कभी कभी महसूस होता है जिंदगी में कि सब कुछ शब्द नहीं होते...बातों से नहीं बनी होती दुनिया. मुस्कुराहटों. अमलतास के फूलों. फिर कभी मिलने की दुआओं. और विस्की की स्वाद वाली चाय की भी बनी होती है. विश. कितना प्यारा नाम है न. 

इसके कोई तीनेक साल तक अमलतास का मौसम नहीं आया. मैं कभी गुलमोहर के देश जाती तो कभी वाइल्ड आर्किड वाले पहाड़...कभी मोने की वाटर लिलीज वाले शहर...ऐसे ही किसी दिन विश का फोन आता है...वो मुझसे फोन पर पूछता है, 'दोस्त, तुमने तो इतनी दुनिया देखी है...जरा नक्शा देख कर बताओ...मेरे घर से तेरह समंदर दूर कौन सा शहर पड़ता है? मुझे जाने क्यूँ लगता है कि मैं कभी उस शहर में मिला हूँ तुमसे'. मैं गिनती हूँ तो दुनिया के तेरह समंदर पूरे होते हुए वापस उसके शहर तक ही पहुँच जाती हूँ. 'ऐसा कोई शहर दिखता तो नहीं है मगर मेरी डायरी में एक पोस्टकार्ड रखा है जिसपर तुम्हारे घर का पता है और स्टैम्प्स भी लगे हुए हैं...कितना भी याद करूँ, मुझे याद नहीं आता कि मैंने ये पोस्टकार्ड गिराया क्यूँ नहीं. उसके अगले पन्ने में एक अमलतास का सूखा फूल भी रखा है. उस पूरे साल मैं जिन देशों में रही हूँ उनमें से किसी में भी अमलतास नहीं खिलता...तुम्हें कोई अमलतास का फूल याद है?'. 

उस वक़्त हम एक दूसरे से तेरह समंदर दूर के शहरों में होते हैं लेकिन जब अपनी अपनी चाय सिप करते हैं तो बारी बारी से दालचीनी...लौंग...जायफल...सारे स्वाद आने लगते हैं. मौसम सर्द होने लगा है. मैं अपने कोट की जेब में हाथ डालती हूँ...दोनों जेबों से अलग अलग दस्ताने निकलते हैं. खिड़की से अमलतास की एक डाली अन्दर पहुँच गयी है. कोपलें हैं. अमलतास खिलने के मौसम में अभी वक़्त है शायद. एक साल. शायद बहुत साल और. मैं उसे बुलाना नहीं चाहती...वो बेतरह व्यस्त होगा...मुझे पक्का यकीन है. फोन रखने पर याद आया कि मैंने सोचा था उससे पूछूंगी, 'विश. तुम्हारे काले कोट पर लगा अमलतास का फूल ताज़ा है या सूख गया?'.

25 November, 2015

द राइटर्स डायरी: आस्था की लौ...आत्मा को रौशन करती हुयी

इस साल मैं पहली बार अमेरिका गयी हूँ. पहला शहर जो मैंने देखा वो डैलस था. हयात वाले होटल के पाँच माइल के रेडियस में कार की सर्विस देते हैं...कहीं भी आने जाने के लिए. रिचर्डसन के जिस एरिया में मैं ठहरी थी वहाँ से दो तीन चर्च दिखते थे. मैं अपने पहले दिन इत्तिफाकन उनमें से दो के पास गुजरी, सोचा कि यहाँ के चर्च भी देख लेते हैं. इसके पहले यूरोप गयी हूँ या फिर थाईलैंड...दोनों जगह क्रमशः चर्च और मंदिर हमेशा खुले हुए ही देखे हैं. यूरोप का कोई छोटे से गाँव में छोटा सा चैपल भी होता है तो भी उसके दरवाज़े खुले होते हैं. अपने देश का तो कहना ही क्या...यहाँ भी लगभग सारे मंदिर सारे वक़्त खुले ही रहते हैं. तो मैं चर्च के मेन दरवाज़े पर पहुंची. वो बंद था. फिर मुझे लगा कि शायद कहीं कोई छोटा दरवाज़ा होगा तो वो भी बंद मिला. मैंने सोचा कि ये एक चर्च बंद है...चलो कोई बात नहीं, किसी दूसरे में चले जायेंगे. अगली बार शटल से जाते हुए जो ड्राईवर थी, कैरोलिन, उससे पूछे कि यहाँ कोई चर्च है जो खुला होगा...कल मैं इस बगल वाले में गयी तो बंद था. वो पहले तो इस बात पर बहुत चकित हुयी कि मैं हिन्दू हूँ तो मुझे चर्च क्यूँ जाना है. तो उसे पूरे रास्ते मैं ये समझाती आई कि हमारे यहाँ किसी भी धर्म के पूजा स्थल पर जा सकते हैं. हम घूमते हुए चर्च भी चले जाते हैं, मज़ार भी और बौद्ध या जैन मंदिर भी. (एक मन तो किया कि उसको DDLJ दिखा दें. काजोल को देख कर अपनेआप समझ में आ जाएगा उसको.

बात परवरिश और स्कूल/कॉलेज की भी है. मेरी पढ़ाई देवघर में कान्वेंट स्कूल में हुयी. जैसी कि मेरे जान पहचान के अधिकतर लोगों की हुयी है. घर परिवार में भी, लगभग सारे बच्चे ऐसे ही इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े हैं. सेंट फ्रांसिस, डॉन बोस्को, लोयोला हाई स्कूल...मेरे स्कूल में अधिकतर टीचर्स केरल से आये थे. कुछ सिस्टर्स वगैरह थीं और कुछ लोकल टीचर्स भी. हम स्कूल असेम्बली में 'त्वमेव माता' भी गाते थे और 'देयर शैल बी शावर्स ऑफ़ ब्लेसिंग्स' भी गाते थे. 'इण्डिया इज माय कंट्री...आल इंडियंस आर माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स' वाला प्लेज भी लेते थे. इसके बाद अक्सर 'आवर फादर इन हेवेन होली बी योर नेम' पढ़ते थे...और फिर क्लास्सेस शुरू होती थीं. हमारी प्रिंसिपल पहले सिस्टर जोस्लेट और फिर सिस्टर कैरोलीन रही थीं. हमने उन्हें हमेशा सादगी से रहते और पढ़ाई के प्रति बहुत सिंसियर देखा था. हममें से अधिकतर की आइडियल हमारी प्रिंसिपल होती थीं. पटना में मेरी 12th के लिए मैं सेंट जोसफ कान्वेंट गयी. वहाँ स्कूल में एक छोटा सा चैपल था. मैं अक्सर सुबह स्कूल में क्लास आने के पहले वहां चली जाती थी. मन बहुत परेशान रहा या ऐसा कुछ. वहाँ जाते हुए एक चीज़ पर अक्सर मेरा ध्यान जाता था. हम जो हिन्दू स्टूडेंट होते थे, हमेशा अपने जूते बाहर खोल कर जाते थे...कि हमें मंदिर जैसी आदत थी...लेकिन जो क्रिश्चियन स्टूडेंट्स होती थीं, वे जूते पहन पर ही अन्दर चली जाती थीं क्यूंकि उन्हें ऐसा करने नहीं कहा गया था. हमारा क्लास शुरू होने के पहले वहां रोज़ 'आवर फादर इन हेवेन' कहना होता था. हमारी मोरल साइंस टीचर हमें मज़ाक में पूछती थी कि हम छुट्टियों में 'आवर फादर इन हेवेन' नहीं कहते, भगवान को भी छुट्टी दे देते हैं. इसपर हम सब लड़कियां खूब हँसती थीं. पटना विमेंस कॉलेज भी कैथोलिक सिस्टर्स का इंस्टिट्यूट है. पर यहाँ चूँकि हम बड़े हो गए थे तो कोई मोर्निंग असेम्बली वगैरह नहीं होती थी. यहाँ भी कोलेज के अन्दर एक छोटा सा चैपल था. वहां एक्जाम वगैरह के पहले मैं या मेरी कुछ दोस्त जाया करती थीं. कई बार हम किसी स्टेज परफॉरमेंस के पहले भी जाया करते थे. 

डैलस में मेरी कार ड्राईवर कैरोलीन ने बताया कि यहाँ चर्च हफ्ते में सिर्फ संडे को खुलते हैं. मुझे अपनी स्कूल की सिस्टर याद आ गयी, 'बहुत मजे हैं तुम्हारे भगवान के, हफ्ते में सिर्फ एक दिन काम करता है...हमारे यहाँ तो सारे भगवानों को पूरे हफ्ते काम करना होता है...त्योहारों में तो ओवरटाइम भी'. उसे मैं बहुत फनी लगी थी. जिसे आज सेकुलर कहते हैं...वो हमारे लिए हमेशा इतना साधारण रहा है कि कभी सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी. हमें बचपन से हर भगवान के सामने सर झुकाने की शिक्षा दी गयी थी. चूँकि हम बहुत घूमे हैं, तो देश में कई सारे मंदिर, बौद्ध स्तूप, मजार और मस्जिद भी गए हैं. पापा, मम्मी और भाई के साथ. बड़े होने के बाद पहली बार कश्मीर गए जब इन चीज़ों की थोड़ी बहुत समझ आने लगी थी...तो इस बात पर बहुत तकलीफ हुयी कि हज़रत बल में मस्जिद में अन्दर औरतों का जाना प्रतिबंधित है. मैं सोच रही थी कि उन्हें कितना खराब लगता होगा कि अन्दर जाने नहीं देते हैं. क्यूंकि दिल्ली में जामा मस्जिद में जाने दिया था. आगरा में भी. मुझे बचपन के और भी कई मस्जिद ऐसे ही याद थे जहाँ अन्दर जाने दिया जाता था.

घर में मम्मी कभी पूजा करने बोली नहीं...तो कभी पूजा करने मना भी नहीं की. व्रत वगैरह भी कभी कभार रख लेते थे. माँ और पापा दोनों रोज पूजा करते थे. घर के लोगों की यादों में सबसे क्लियर उनके पूजा करने का ढंग आता है. मम्मी का, दादी का, दिदिमा का, नानाजी का, पापा का...सबके अपने अपने चुने हुए मन्त्र और अपने अपने मंत्रोचार थे. देवघर चूँकि शंकर भगवान की नगरी है तो हम सब भोले बाबा के भक्त. अब उनका इम्प्रेशन ऐसा कि भूल वगैरह आराम से माफ़ कर देते हैं. तो पूजा पाठ में कोई गलती हो जाए तो ज्यादा परेशान नहीं होते थे. दिल्ली आने तक ऐसा ही बना रहा. जन्मदिन या पर्व त्यौहार में मंदिर जाना और कभी मूड हुआ तो पूजा कर लेना. भगवान में आस्था बहुत थी. मम्मी के जाने के बाद भगवान में विश्वास एकदम अचानक टूट गया. पूजा करनी बंद कर दी. घर की कुछ रस्में तो करनी पड़ती हैं...तो जहाँ जहाँ पूजा आवश्यक थी, वहां की, पर अपने मन से कभी मंदिर जाना या घर में भी पूजा करनी एकदम बंद है. शायद कभी वे दिन लौटें...मगर फ़िलहाल मन में श्रद्धा नहीं उभरती.
हमने हाल में नयी गाड़ी खरीदी है. स्कोडा ओक्टाविया. कल गाड़ी का रजिस्ट्रेशन था. उसके बाद मैं अपने एक दोस्त से मिलने गयी. अचानक ही मूड हो गया. बहुत दिन बाद गाड़ी हाथ में थी. बारिश का मौसम था. चल दिए. उसको कॉल किया कि मैं आ रही हूँ तेरे घर. वो ओडिसी और कुचिपुड़ी डांस करती है. इतना खूबसूरत कि बस. बड़ी बड़ी आँखें. उसे साधारण रूप से काम करते हुए देखती हूँ तो भी उसमें एक लय दिखती है. उसके चलने में, बोलने में, हंसने में. आंध्र की है...और बिहारी से शादी की है. iit का लड़का. उसका एक छोटा बेटा है. चार साल का लगभग. कल दरवाज़ा खोली तो देखे कि एकदम साड़ी में है, हम खुश होके बोलते हैं कि 'मेरे लिए' तो पट से जवाब आता है, 'औकात में रह'. कल कोई तो तुलसी पूजा थी, उसके लिए तैयार हुयी थी. हुयी तो पूजा के लिए ही तैयार न :) 

उनका अपना घर है. हाल में शिफ्ट हुए हैं. वहां पूजा के लिए अलग से कमरे का एक हिस्सा है. इसी में वो डांस प्रैक्टिस भी करती है. पूजा के हिस्से को अलग करने के लिए एक लकड़ी का नक्काशीदार जाली वाला पार्टीशन है. कल वहीं बैठी. वो मुझे बता रही थी कि आज दीवाली की तरह तुलसी के आसपास दिया जलाते हैं. उसका पूजाघर छोटा सा तीन स्टोरी रैक का बना हुआ था. एक ड्रावर जिसमें बहुत तरह के डिब्बे रखे थे. राम लक्ष्मण सीता की एक बड़ी तस्वीर. उसके ऊपर सुनहले रंग की छतरी. कांसे के राम, लक्ष्मण, सीता...हनुमान जी और गणेश जी. कई सारे अलग अलग साइज के दिए थे. कुछ कांसे के, कुछ चाँदी के. पंचमुखी दिया. सब अलग अलग साइज़ के दिए जोड़ों में थे. उसने दीयों को ऊंचाई के हिसाब से लाइन में रखा तो जैसे सीढ़ियाँ बन गयीं थीं. उसने मुझे बताया कि कैसे कांसे के वो राम लक्ष्मण सीता को लाने की कहानी है.

एक भजन है, नॉर्मली भजन में लिखने वाले का और जगह का नाम आता है. उसे एक भजन बहुत पसंद था और वो जानना चाहती थी कि वो कहाँ लिखा गया है. जब उसे उस ग्राम का नाम पता चला तो उसका मन था वहां जाने का. यहीं बैंगलोर के पास का एक गांव था. इत्तिफाक से वहीं पर उसका एक डांस प्रोग्राम आ गया. जब वह उस ग्राम में गयी और उस मंदिर में गयी जहाँ वो भजन लिखा गया था तो ऐसा हुआ कि पूजा के बाद पंडित और दर्शनार्थी सब चले गए और वो मंदिर में अकेली, सिर्फ भगवान के सामने थी. उस समय उसने वहाँ वो संगीत चलाया और उसपर उस छोटे से गाँव के उस छोटे से मंदिर में सिर्फ भगवान के लिए उसी भजन पर एक छोटा सा नृत्य किया. ये एक आत्मा को छूने वाली घटना थी. इसी के बाद उस शहर में एक दुकान में उसे ये भगवान की प्रतिमाएं मिली थीं. 

इधर बहुत दिन से मेरी पूजा बंद है. बाकी लोगों को भी मैं पूजा करते देखती हूँ तो वे एकाग्रचित्त नहीं होते. उनका मन कहीं और लगा होता है. पूजा एक रूटीन सी हो जाती है. मगर उसे देखना ऐसा नहीं था. उसे देखने पर मन में कोई पवित्र सी भावना जगती थी. जैसे कि वो सब कुछ प्रेम में, भक्ति में डूब कर कर रही है. उसके लिए सामने रखी मूर्तियों में प्राण थे और वो अपने इष्ट की ख़ुशी के लिए सब कर रही थी. पूजा. धूप. चन्दन. अगरबत्ती. पूजा करते हुये उसकी चूड़ियों की खनक भी सुन्दर लगती थी.

उसने कहा कि वो मुझे वो भजन सुनाएगी. एक ही पंक्ति सुन कर जैसे रोम रोम में अलग सा अहसास हुआ था. जैसे भगवान वाकई सुन रहे हो. बिना किसी वाद्ययंत्र के सिर्फ कोरी आवाज़. कुछ करने के लिए वो उठी. और जब वापस बैठ कर उसने भजन फिर गाना शुरू किया तो मुझे लगा कि ये मुझे रिकॉर्ड कर लेना चाहिए. शायद वो फिर से मेरे लिए गा दे...लेकिन अभी की उसकी आवाज़ सिर्फ राम तक पहुँचने के लिए है. मैंने चुपचाप मोबाइल से इसकी रिकॉर्डिंग कर ली. ये एक मुश्किल निर्णय था. मैं वहां डूबना चाहती थी उस आवाज़ में. मगर मैं उसे सहेजना भी चाहती थी. दिए की लौ में उसका चेहरा कितना सुन्दर दिख रहा था. मुझे बहुत साल पहले की गाँव की याद आई. तुलसी चौरा पर दिया दिखाती चाची, मम्मी, दीदी...सब एक ही जैसी लगती थी. दिव्य. 

ये एक अनुभव था. इसे मैं यहाँ इसलिए लिख रही हूँ कि बहुत साल बाद मैंने इस आवाज़ से अपने अन्दर रौशनी महसूस की है...उस भजन से जैसे भगवान खुश होकर जरा सा मेरे मन में भी बस गए हैं. ये इतनी खूबसूरत चीज़ है कि बिना बांटे रहा नहीं गया. शायद कभी मेरे मन में भी शंकर भगवान के प्रति आस्था वापस आएगी...तो मैं अपनी आवाज़ में कुछ वो भजन गा सकूंगी जो मैंने सीखे थे. धर्म ठीक ठीक मालूम नहीं क्या होता है, मेरे लिए जिस चौखट पर सर झुक जाए वहीं भगवान हैं...आस्था मन के अँधेरे को रौशन करती दिये की लौ है...जरा सी उम्मीद है...जरा सा सुकून.

मगर फिलहाल आप उसे सुनिए...

22 November, 2015

द राइटर्स डायरी: जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?

इस साल मैंने लगभग ८६००० किलोमीटर का सफ़र तय किया है. कई सारे शहर घूमे हैं. कितनी सड़कें. कितने लोग. कितने समंदर. नदियाँ. झीलें. मुझे लोगों से बात करना पसंद है. मैं उन्हें खूब कहानियां सुनाती हूँ. उनके खूब किस्से सुनती हूँ. ---
बचपन का शहर एक पेड़ होता है जिसकी जड़ें हमारे दिल के इर्द गिर्द फैलती रहती हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है हम इन जड़ों की गहराई महसूस करते हैं. इन जड़ों में जीवन होता है. हम इनसे पोषित होते हैं. 
घर. होता है. घर की जड़ें होती हैं. तुम कहाँ के रहनेवाले हो...के जवाब वालीं. हमारा गाँव दीनदयालपुर है. हम देवघर में पले-बढ़े. पटना से कॉलेज किये. दिल्ली से इश्क़ और मर जाने के लिए एक मुकम्मल शहर की तलाश में हैं. कई सारे शहर मुझ से होकर गुज़रे इन कई सालों में. मुझे सफ़र में होना पसंद है. सफ़र के दरमयान मैं अपने पूरे एलेमेंट्स में होती हूँ. बंजारामिजाजी विरासत में मिली है. पूरी दुनिया देख कर समझ आया कि एक दुनिया हमारे अन्दर भी होती है. जहाँ हर शहर अपने गाँव की कोई याद खींचे आता है. रेणु का लिखा इसलिए रुला रुला मारता है कि उसमें भागलपुरी का अंश मिलता है. इसलिए मेरे पापा मेरी पूरी किताब पढ़ते हैं तो उन्हें याद रहता है गाँव...अदरास...इसलिए जब विकिपीडिया पर पढ़ती हूँ कि अंगिका लुप्तप्राय भाषा की कैटेगरी में है तो मेरे अन्दर कोई गुलाब का पौधा मरने लगता है. अगर मेरे बच्चे हुए तो उन्हें कैसे सिखाउंगी अंगिका. उनकी पितृभाषा होगी अंगिका. मैं क्या दे सकूंगी उन्हें. हिंदी और अंग्रेजी बस. इनमें खुशबू नहीं आती. मैं कैसे बताऊँ उस छटपटाहट को कि जब कोई डायलॉग मन में तो भागलपुरी में उभरता है मगर उसको आवाज़ नहीं दे सकती कि मेरे पास शब्द नहीं हैं. कि मैं न अपनी दादी के बारे में लिख पाउंगी कभी न नानीमाय के बारे में. मैं अपना गाँव देखती हूँ जहाँ अधिकतर कच्चे घर अब पक्के होते गए हैं और उनमें बड़े बड़े ताले लटके हुए हैं. हाँ, गाँव का कुआँ अब सूखा नहीं है. बड़ा इनारा अब कोई जाता नहीं पानी लेने के लिए. सबके घर में बिजलरी की बोतल आ गयी है. दूर शहर में रह कर गाँव के लिए रोना बेईमानी है. मगर याद आता है तो क्या करूँ. जितना सहेजना चाहती हूँ न सहेजूँ? पापा को बोलते हुए सुनती हूँ तो कितने मुहावरे, रामायण की चौपाइयां, मैथ के इक्वेशन सब एक साथ कह जाते हैं...रौ में...उनकी भाषा में कितने शब्द हैं. मैंने ये शब्द कैसे नहीं उठाये...कहाँ से तलाशूँ. कहाँ पाऊँ इन्हें.
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किसी को एक कहानी सुना रही थी, 'हूक' पर अटक गयी. हूक किसे कहते हैं. मैं मुट्ठी भर अंग्रेजी के शब्दों में उसे कैसे बताऊँ कि हूक किसे कहते हैं. ये शब्द नहीं है. अहसास है. उसने किया होगा कभी इतनी शिद्दत से प्रेम कि समझ पाए हूक को?
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तुम्हारी किसी कविता को पढ़ कर जो 'मौसिम' विलगता है मन में...'विपथगा' का मतलब भूलती हूँ मैं...और माँ के हाथ के खाने के स्वाद को कहते हैं हूक. कहाँ से समझाऊं मैं उसे. मुझसे फोन पर बात कर रहा होता है और पीछे कहीं से उसकी माँ पुकार रही होती है उसको, 'आबैछियो', चीखता है वो...मैं हँसती हूँ इस पार. जाओ. जाओ. किसी बेरात दुःख या ख़ुशी पर माँ की याद चुभती है. सीने में. शब्द है 'माय गे...कुच्छु छै ऐखनी घरौ मैं...बड्डी भूख लग्लौ छौ'. हूक. चूड़ा दही का स्वाद है. भात खाते हुए आधे पेट उठना है कि माँ के सिवा किसी को मालूम नहीं कि हमको कितने भात का भूख है.
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हम जिस शहर लौट कर जाना चाहते हैं, वहाँ जा नहीं सकते...क्यूंकि वो शहर नहीं, साल होता है. सन १९९९. फरवरी.
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हूक तुमसे कभी न मिलने का फैसला है. इश्क़ से की गयी वादाखिलाफी है. तुम्हारी हथेली में उगता एक पौधा है...कि जिसकी जड़ों की निशानी हैं रेखाएं...जिनमें न मेरा नाम लिखा है न चेहरा.
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तुमसे मिले बिना मर जाने की मन्नत है. बदनसीबी है. दिल के पैमाने से छलकता मोह है.
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तुम्हें दफ्न करने के बाद कितने शहर दफन किये उस मिट्टी में. कितने समन्दरों से सींचा दिल का बंजर कोना मगर उसे भी रेगिस्तान बनने की जिद है. कितना कुछ समेटती रहती हूँ शहरों से. क्राकोव में एक कब्रिस्तान देखा था. वहाँ लोग छोटे छोटे पत्थर ला के रख जाते थे कब्रों पर. उनकी याद की यही निशानी होती थी. गरीबी के अपने उपाय होते हैं. तुम्हारी कब्र पर याद का ऐसा ही कोई भारी पत्थर है. शहरों से पूछती हूँ तुम्हारा पता. बेहद ठंढी होती हैं दुनिया की सारी नदियाँ. उनपर बने कैनाल्स पर के लोहे के पुल दो टुकड़ों में बंटते हैं...बीचो बीच ताकि स्टीमर आ जा सके. मैं बर्फीले पानी में अपनी उँगलियाँ डुबोये बैठी हूँ. सारा का सारा फिरोजी रंग बह जाए. सुन्न हो जाएँ उँगलियाँ. फिर शायद तुम्हें पोस्टकार्ड लिखने की जिद नहीं बांधेंगी. 
काश तुम्हें भूल जाना भी लिखना भूल जाने जितना आसान होता.
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तुम मेरी जड़ों तक पहुँचते हो. मुझे मालूम नहीं कैसे. तुम्हारे शब्दों को चख कर गाँव के किसी भोज का स्वाद याद आता है. पेट्रोमैक्स और किरासन तेल की गंध महसूस होती है उँगलियों में. अगर नाम कोई बीज होता तो कितने शहरों में तुम्हारी याद के दरख़्त खड़े हो चुके होते.
तुम्हें पढ़ती हूँ तो हूक सी उठती है. और मैं साँस नहीं ले पाती. 
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तुम्हारी सिगरेट के पैकेट में दो ही बची रह गयी हैं. जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?
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इधर बहुत दिनों से किसी चीज़ की फुर्सत नहीं मिली है. सोचने भर की नहीं. आज जरा इत्मीनान है. जाने क्यूँ मौत के बारे में सोच रही हूँ.
कि मैं किताबें पढ़ते हुए मर जाना चाहूंगी.

20 November, 2015

हमारी एक ही रकीब है...मौत

'ब्रितानी साम्राज्य के बारे में तो पढ़े हो ना बाबू, कि ब्रितानी साम्राज्य में कभी सूरज डूबता ही नहीं था...वैसा ही है हमारे शहज़ादे की सल्तनत...दिन या रात का कोई भी लम्हा ले लो...दुनिया के किसी छोर पर उनके सल्तनत का कोई बाशिंदा, उनके इश्क में गिरफ्तार...उनकी याद में शब्दों के बिरवे रोप रहा होगा...'
'ये आपको कैसे पता मैडम जी?'
'अरे मत पूछो बाबू...बहुत झोल है इस कारोबार में...हम पहले जानते तो ये इश्क की दुकानी न करते...खेत में हल चला लेते, छेनी हथौड़ी उठा लोहार बन जाते...आटा चक्की भी चला लेना इससे बेहतर है...ये इश्क मुहब्बत के कारोबार में घाटा ही घाटा है...आज तक कभी धेले भर कि कमाई भी नहीं हुयी है. दुनिया भर में रकीब भरे हुए हैं सो अलग.'
'जो मान लो आपको धोखा हुआ हो तो?'
'ना रे बाबू...ई रूह की इकाई है...इसके नाप में कोई घपला नहीं है. रकीबों के कविता में मीटर होता है न...मीटर समझते हो?'
'वही जो ग़ज़ल में होता है...वैसा ही कुछ न?'
'हाँ बाबु...वही...तो जब भी हमारा कोई रकीब कविता लिखता है...तो हमारा दिल उसी मीटर से धड़कने लगता है...१-२-१-२ या कभी छोटी बहर हुयी तो बस २-२ २-२.'
'छोटी बहर?'
'मुन्नी बेगम को सुना है?
अहले दैरो हरम रह गये | तेरे दीवाने कम रह गए
बेतकल्लुफ वो गैरों से हैं | नाज़ उठाने को हम रह गए'
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उस दिन के पहले कभी उन्हें गाते नहीं सुना था. तेरह चाँद की रात थी. मैडम जी कहती थीं कि तेरह नंबर बार बार उनकी जिंदगी में लौट कर आता है. चाँद को पूरा होने में कुछ दिन बाकी थे. उनके गाने में उदासी भरी खनक थी. जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाले लोग खुल कर उदास भी कहाँ हो पाते हैं. मैं सोचता था कि मैडम जी के कैलेण्डर में अमावस्या कभी आती भी होगी कि नहीं. उनकी हँसी में इक जरा सी फीकी उदासी का शेड हुआ करता था और उनकी गहरी उदासी में भी मुस्कुराहटों का नाईट बल्ब जलता था...ज़ीरो वाट का...उससे रौशनी नहीं आती...रौशनी का अहसास होता है.

मैडम जी बहुत खुले दिल की हैं. उनके सारे मातहत बहुत खुश रहते हैं. यूं समझ लो, लौटरी ही निकलती है उनके साथ काम करने की...कभी किसी से ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की है. पूरे डिपार्टमेंट में किसी ने उन्हें चिल्लाते नहीं सुना है. अभी पिछले साल फिर से उन्हें जिले को बेस्ट एडमिनिस्ट्रेटेड डिस्ट्रिक्ट का अवार्ड मिला है. इतनी कम उम्र में, औरत हो कर भी ऐसा मुकाम कि बड़े बड़े सोचते रह जायें. जिस इलाके में जाती हैं लोग उनके कायल हो जाते हैं. हर जगह फब जाती हैं...हर जगह घुल जाती हैं. हमारी मैडम जी, क्या बताएं शक्कर ही हैं...मीठी एकदम. उनके रहते किसी चीज़ की चिंता की जरूरत नहीं. अभी पिछले महीने बहन के बेटे के कॉलेज की फीस देनी थी...जब जगह से इंतज़ाम करने के बाद भी दस हज़ार रुपये कम पड़ रहे थे. आखिरी दिन था. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. बेखयाली में सुबह से काम गलत सलत हुए जा रहे थे. कभी फाइल में गड़बड़ कर देता कभी लंचबौक्स किसी और जगह भूल आता. मैडम जी ने खाना खाने के बाद बुलाया और खुद पूछा कि बात क्या है. पैसों का सुन कर थोड़ा सा हँसी...मगर ये मज़ाक उड़ाने वाली हँसी नहीं थी कि चुभ जाती...ये बचपने वाली हँसी थी...जैसे बचपन में माँ को हँसते हुए सुना था कभी कभी.

'तुम गज़ब बकलोल हो रे...दुनिया में इतना बड़ा बड़ा आफत सब है और तुम ई जरा सा दस हज़ार से लिए सुबह से बौरा रहे हो...इस मुसीबत का तो सबसे आसान उपाय है न. पैसे दे देंगे तो कोई दिक्कत नहीं होगी ना? हमको जब बेमौसम ताड़ का कोआ खाने का मन होता है तो तुमको मालूम होता है न कि कौन जगह जा के मिलेगा जाते सीजन में...हम बोलते हैं तुमको तो ला के देते हो कि नहीं? तो तुमको कुछ चाहिए तो हम हैं न तुम्हारे लिए. तुमको का लगता है जी...खाली सैलरी के लिए तुम काम करते हो कि हमारे लिए काम करते हो?'

एक बार जो मैडम जी के साथ काम कर लिया हो उसका फिर किसी के साथ काम करना मुश्किल ही होता था. डिपार्टमेंट के बाकी बाबूसाहब लोग बंधुआ मजदूर की तरह ट्रीट करते थे. हमारा भी जी है ऐसा कहाँ सोचा होगा कोई. उनके लिए तो बस अर्दली हैं हम. उनके हिसाब से सोना-जागना-खाना-पीना सब. यही सब काम हम मैडम जी के लिए भी करते थे लेकिन प्यार का दो बोल में बहुत अंतर हो जाता है. सरकार सैलरी देती थी लेकिन हमारे लिए तो सरकार मैडम जी ही...और कोई सरकार हम कभी जाने नहीं.

एक दिन ऐसे ही इवनिंग कॉलेज के फॉर्म्स ले आयीं कि तुम एडमिशन ले लो. पढ़ाई में हम तुम्हारा हेल्प कर देंगे. बारवीं पास के लिए दुनिया बहुत छोटी है. ग्रेजुएट हो जाओगे तो बहुत दूर तक जा सकोगे. होशियार तो तुम बहुत हो, हमको दिखता है साफ़. जिन्दगी भर यही चौथी ग्रेड का काम थोड़े करोगे...कल को शादी होगा...बच्चे होंगे...जरा आगे बढ़ जाओगे तो समाज में इज्जत बढ़ेगा, उसपर लड़की अच्छी मिलेगी सो अलग. हमको उस समय तो पढ़ना आफत ही लग रहा था...लेकिन मैडम जी कभी दिक्कत होने नहीं दीं. मेरा क्लास शुरू होते ही खुद से ड्राइव करके घर जाने लगी थीं. डिपार्टमेंट में बहुत बार लोग दबे मुंह बोला भी कि रात बेरात समय ठीक नहीं है...कोई दुर्घटना हो गया तो कौन जिम्मेदारी लेगा. मैडम जी को लेकिन मुंह पर बोलने का हिम्मत तो दुनिया में किसी को था नहीं. मैडम जी अपने लिए एक लाइसेंसी रिवोल्वर खरीद लायीं. रात को प्रैक्टिस करतीं तो पूरा मोहल्ला गूंजा करता. बड़े बाबू एक बार मैडम को समझा रहे थे कि अकेले रात को ड्राइव करना सुरक्षित नहीं है अकेली औरत के लिए. मैडम जी बोलीं कुछ नहीं. रिवोल्वर निकाल कर डेस्क पर रख दिहिस कि ई हम्मर पार्टनर है...'कोल्ट...सिंगल एक्शन आर्मी', इससे ज्यादा केपेबल कोई आदमी है आपके पास तो बतलाइये...हम उसको साथ लेकर चला करेंगे. अब जेम्स बौंड ही आ जाए लड़ने तो पहले शायद उसको घर बिठा के ग़ज़ल सुनवाना पड़ेगा...लेकिन उसके अलावा हम सब कुछ हैंडल कर सकते हैं'.

मैडम जी में खाली टशन नहीं था. मर्द का कलेजा था उनका. बिना आवाज़ ऊंची किये अपनी बात दमदार तरीके से रखना हम उनसे सीखे हैं. कभी उनको लगा ही नहीं कि औरत होना कोई कमजोरी भी है. और लगता भी क्यूँ. उनके पिताजी आर्मी में कर्नल थे. शेरदिली उनको विरासत में मिली थी. बाकी मार्शल आर्ट्स ट्रेनिंग तो थी ही...उसपर रही सही कसर रिवोल्वर ने पूरी कर दी...उनसे जो भिड़ने आये भगवान् ही बचा सकता है उसको. 

देखते देखते दिन निकल गए. एक्जाम में हम डिस्टिंक्शन से पास हो गए. रिजल्ट लेकर मैडम जी के पास आये तो बोलती हैं अगले महीने प्रोमोशन के लिए अप्लाई कर दो अब से जान धुन कर पढ़ो. एक्जाम के पहले एक महीना का छुट्टी हम सैंक्शन कर देंगे. अफसर बनने का ख्वाब पहली बार मैडम जी ही रोपीं थीं आँख में. उन दिनों तो बस गाँव भर में में एक आध ही लोग बन पाए थे अफसर. मैं दिन दिन भर ऑफिस में खटता और फिर शाम होते ही मैडम जी लालटेन साफ़ करवा कर बैठकी में मेरी किताबें जमा करवा देतीं. ऐसी पर्सनल कोचिंग किसी को भी क्या मिली होगी. उनपर जैसे धुन सवार थी. किसको जाने क्या प्रूव करना था. 

साल में लगभग तीन चार बार उनके नाम किसी अस्पताल से ख़त आते. हमेशा गहरे नीले लिफ़ाफ़े में. जब भी ये ख़त आते मैडम जी जरा उदास रंगों के कपड़े पहनने लगतीं. घर में गज़लें बजतीं. फीका खाना बनवातीं. न मसाला. न हल्दी. बड़े मनहूस ख़त होते थे. उन दिनों मैडम जी सिर्फ ओल्ड मौंक पिया करती थीं. देर रात जागती रहतीं और सिगरेट के डिब्बे खाली होते रहते. उन्हीं दिनों मैंने उन्हें पहली बार बौक्सिंग प्रैक्टिस करते भी देखा था. अजीब जूनून चढ़ता था उनपर. आँखों में खून उतर आता. फिर एक दिन अचानक से देखता कि सुबह सुबह उन्होंने कोई सुर्ख गुलाबी साड़ी पहनी है. सूजी हुयी आँखों पर काला चश्मा चढ़ा लिया है. मैं जान जाता था कि मौसम बदल दिए गए हैं. अब अगली नीली चिट्ठी तक सब ठीक चलेगा. 

उस दिन एक्जाम देकर लौटा था. मूड अच्छा था. महीने भर से पागलों की तरह पढ़ रहा था. लौटते हुए मैडम जी के लिए रजनीगंधा के बहुत से फूल ले लिए. मैडम जी को खुशबूदार फूल बहुत पसंद थे. बहुत सी उनके पसंद की सब्जियां भी खरीद लीं...कि आज तो दो तीन आइटम बनायेंगे. ठेके पर से विस्की का अद्धा लिया कि आज तो मूड अच्छा ही होगा मैडम जी का...आराम से विस्की पियेंगी और खाना खायेंगी. पेपर अच्छा हुआ था तो लग रहा था कि शायद अफसर बन ही जाऊं. ख़ुशी ख़ुशी उनके घर का गेट खोल कर अन्दर घुसने को था कि पोर्टिको में गाड़ी लगी देखी. मैडम जी जल्दी घर आ गयीं थीं. घर की ओर आ ही रहा था कि मुन्नी बेगम की आवाज़ कानों में पड़ी, 'हम से पी कर उठा न गया, लड़खड़ाते कदम रह गए'. सत्यानाश! नीले लिफाफे को आज ही आना था. मनहूस. 

कॉल बेल पर ऊँगली रखते ही मैडम जी का ठहाका गूंजा और मैं जान गया कि टेप नहीं बज रहा...मैडम जी खुद गा रही थीं. दरवाजा किसी लड़के ने खोला. कोई पंद्रह साल उम्र रही होगी उसकी. मैडम जी ने बताया कि ये छोटे शाहज़ादे साहब हैं. दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं. बड़े होकर एस्ट्रोनॉट बनेंगे. फिलहाल किसी तरह मैनेज कर रहे हैं इस दुनिया को...जल्दी ही इनके पास इनका अपना स्पेसशिप होगा...इन्होने प्रॉमिस किया है कि हर प्लैनेट पर एक पोस्टऑफिस खोलेंगे और मुझे बहुत सारे पोस्टकार्ड भेजेंगे. मैंने उतना टेस्टी खाना अपनी जिंदगी में फिर कभी नहीं खाया है. रात को हँसी ठहाके गूंजते रहे. छोटे शाहज़ादे साहब अपने नानाजी के किस्से सुना रहे थे...अपनी मम्मा के किस्से सुना रहे थे और बस पूरी रात किस्सों-कहानियों में गुज़र गयी. मैंने चैन की साँस ली कि मैं फालतू घबरा रहा था.

मगर ये तूफ़ान से पहले की शांति थी.

इस बार कई कई कई दिनों तक घर में मुन्नी बेगम गाती रहीं. ग़ज़ल का एक एक शेर...एक एक शब्द याद हो गया था मुझे...गाना शुरू होने के पहले का संगीत...बीच का संगीत...सब कुछ...मैडम जी ने शायद खाना खाना कम कर दिया था. कुक रोज झिकझिक करती थी...कुछ तो खाया करो दीदी...ऐसे जान चला जाएगा. मैं अपनी आँखों के सामने उनको टूटते देख रहा था. वो आजकल बात भी कम किया करती थीं. ऑफिस का काम ख़त्म और मैं अपने घर वापस. रिजल्ट आने में अभी एक हफ्ता बाकी था. उस दिन बहुत खोज कर ताड़ का कोआ लेते आया कि मैडम जी शौक़ से कुछ तो खायेंगी. के जो भी बात उन्हें अंदर अन्दर खाए जा रही थी...अब उसके असर बाहर भी दिखने लगे थे.

'तो नीले लिफाफों में क्या आता है मैडम जी?'
'लिफाफों में उनकी कवितायें, गजलें, नज्में, कहानियां...जो कुछ भी उन्होंने लिखा होता है नया वो आता है. हर बार एक नए रकीब का चेहरा आता है...शाहज़ादे की मुहब्बत कुबूलनामा आता है इनमें'
'मगर वो आपको क्यूँ भेजते हैं ये सब...उन्हें मालूम नहीं होता कि आपको तकलीफ होती है'
'अरे बाबू, शाहज़ादे को इतनी फुर्सत कहाँ...इतनी फिकर कब...ये तो मैंने एक जासूस बिठा रखा है...वही भेजता रहता है मुझे ये सब...मर जाने का सामान'
'लेकिन मैडम जी, शहजादे को कभी आपसे इश्क था न?'
'अरे न रे पगले...कभी सुना है कि चाँद को इश्क़ हुआ है किसी से?, उनकी चांदनी में भीगे हुए खुद का अक्स देखा था आईने में एक बार...खुद से ही इश्क़ हुआ था उन दिनों...बस उतना ही था...सुन रहे हो, मुन्नी बेगम हमारे दिल का हाल गा रही हैं, 'देख कर उनकी तस्वीर को, आइना बन के हम रह गए'.

डॉक्टर कहते हैं उस रात उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा था. हॉस्पिटल में एडमिट कर के हफ्ते भर ऑब्जरवेशन कह दिया डॉक्टर ने. मेरा जोइनिंग लेटर भी मैडम जी के पते पर ही आया. लेटर बौक्स में एक नीला लिफाफा भी पड़ा था. दिल तो किया कि उसे वहीं आग लगा दूं. यूं ही कम आफत पड़ी है मैडम जी पर जो ये नीला लिफाफा और दे दूं उनको. कहीं कुछ हो गया तो क्या कह के खुद को माफ़ करेंगे.

हॉस्पिटल में उन्हें देखा तो वो करीबन खुश लग रही थीं. चेहरे की चमक लौट आई थी. नर्सेस से छेड़खानी कर रही थीं. मेरा ज्वायनिंग लेटर देख कर वो ख़ुशी से पगला गयीं...डॉक्टर्स तो घबरा गए कि उन्हें ख़ुशी के मारे हार्ट अटैक न आ जाए. मगर फिर उन्होंने नीला लिफाफा देखा और ख़ुशी जैसे फिर से हॉस्पिटल के उदास पर्दों के पीछे कहीं दुबक गयी. इस बार मैडम जी ने लिफाफा खुद नहीं खोला...मुझे दे दिया कि खोल कर पढ़ो. ख़त में दिल तोड़ने वाली इक नज़्म लिखी थी...कि अब लौट आओ...तुम्हारे बिना यहाँ जी नहीं लगता. ख़त पर तारीख साल २००५ की थी. मैंने कहा कि आपके शाहज़ादे इतनी बेख्याली में लिखते है कि दस साल पहले की तारीख डाल देते हैं. मैडम जी हमारी बात पर मुस्कुरा रही थीं...वही मुस्कराहट जिसमें एक छटांक भर ज़ख्म झलक जाता है...
'बाबु, हमारी एक ही रकीब हो सकती थी, वही एक रही है. मौत. किसी और की औकात जो हमारे होते शहज़ादे को अपने ख्यालों में भी सोच ले...कसम से सपनों में घुस के मारते'
'और शहजादे?'
'को गए हुए पंद्रह साल होने को आये, जीने के लिए कुछ खुशफहमियां चाहिए होती हैं. उन दिनों डिलीवरी होने वाली थी...और मेरी हालत देख कर डॉक्टर्स ने मुझे डिनायल में रहने दिया...मैंने उनकी डेड बॉडी तक नहीं देखी...शायद इसलिए आज तक कभी यकीन भी नहीं हुआ कि वो नहीं है इस दुनिया में...हम खुद को दिलासे देते रहते हैं कि वो किसी और के पहलू में हैं...कभी उठ कर हमारी चौखट पर दुबारा आयेंगे'
'तो शहजादे को आपसे इश्क था?'
'बेइंतेहा'
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ग़ज़ल ख़त्म होने को थी...लूप में फिर से प्ले होने के पहले...मुन्नी बेगम गा रही थीं...मुकम्मल...'पास मंजिल के मौत आ गयी, जब सिर्फ दो कदम रह गए'.
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16 November, 2015

मुराकामी, मोने और जरा मनमर्जियाँ

मेरे गूगल मैप्स में एक दिन की हिस्ट्री उभर आई. मेरी करेंट लोकेशन से तुम तक पहुँचने में बहुत से देश...बहुत सा समंदर...बहुत से रास्ते लांघने पड़ते...गूगल कह रहा था...नो डायरेक्ट रूट फाउंड...सही ही तो है न. तुम तक पहुँचने का कोई सीधा रास्ता तो है नहीं.
बहुत से दुःख. बहुत सी उलझन. बहुत सी खुशफहमियों को छू कर गुज़रता है तुम तक पहुँचने का रास्ता. इसमें अवसाद के नीले दिन भी आते हैं...चुप्पी की गहरी खाई भी आती है...नमक भरा आँसुओं का समंदर भी आता है...हिचकियों के ऊंचे पहाड़ भी आते हैं...मगर बात है कि इन सब हादसों से गुज़र कर भी तुम्हारे पास जाने का कोई पक्का रास्ता मिलता नहीं. सोचना ये भी है न कि तुमसे मिल ही लेंगे...फिर? 
हर बार वही इंतज़ार के इंधन को जमा करते रहेंगे...जब बहुत सा इंतज़ार हो जाएगा...इतना कि तुम तक पहुंचा जा सके...फिर तुम्हारे शहर आने का रास्ता तलाशेंगे...
गूगल फिर कहेगा...नो डायरेक्ट रूट फाउंड. इस बार हम गूगल की बात मान लेंगे और तुम्हें तलाशने की इस हिस्ट्री को हमेशा के लिए डिलीट कर देंगे.
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मैंने एक मुराकामी की नावेल पढ़ी. फिर. मुराकामी आजकल मेरे पसंदीदा लेखक हैं. किताब का नाम है स्पुतनिक स्वीटहार्ट. इसमें एक लड़का है जो एक दिन एक लड़की को अपना घर शिफ्ट करने में मदद करता है. लड़का एक स्कूल में टीचर है. बच्चों को पढ़ाता है. लड़की उसे अक्सर रात बेरात फोन करती है. वो उनींदा बात करता है उससे, लड़की कहती है कि वो जानती है कि उसकी बातों का कोई सर पैर नहीं है...मगर लड़के को एक बार उस लड़के के हिस्से का भी सोचना चाहिए...वो इतनी देर रात नींद और ठंढ में चल कर इस फोन बूथ तक आई है...और सिक्के वाले इस फोन बूथ से उसे फोन कर रही है...लड़के का भी कोई फ़र्ज़ है उसकी बातें सुने. लड़का उसकी सारी बातें सुनता रहता है. कितने कितने दिन. इस पूरी दुनिया में एक उस लड़की के साथ ही उसे नजदीकी महसूस होती है. इक रोज उसे अचानक से पता चलता है कि लड़की गुम हो गयी है, 'डिसअपीयर्ड इन थिन एयर'. वो उस ग्रीक द्वीप पर जाता है जहां से वह गायब हुयी है. उसका कोई पता नहीं चलता. वो जानता है कि लड़की मरी नहीं है कहीं...उसे कैसे तो लगता है वो किसी अँधेरे कुँए में गिर गयी है. पुलिस और डिटेक्टिव लगे होते हैं मगर उसका कोई पता नहीं चलता. लड़का जानता है कि लड़की किसी दूसरी दुनिया में चली गयी है. जैसे आईने के दूसरी तरफ वाली. उसे इंतज़ार रहता है कि लड़की फोन करेगी. 

फोन की घंटी बजती है. लड़की उससे कह रही है, 'सुनो तुम्हें मुझे यहाँ आ कर मुझे यहाँ से ले जाना होगा...मैं एक फोन बूथ में हूँ जो मालूम नहीं किधर है...मगर तुम यहाँ आ कर मुझे ले जाना...अच्छा मैं फोन रख रही हूँ, मेरे पास सिक्के ख़त्म हो रहे हैं'.
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मुराकामी की दूसरी नावेल, नार्वेजियन वुड भी ऐसे ही कहीं ख़त्म होती है. मुझे दोनों बार ये किरदार बड़े अपने से लगे हैं. बड़े तुम्हारे से भी. तुमने अगर मुराकामी को नहीं पढ़ा है तो तुम्हें जरूर पढ़ना चाहिए. मेरा मुराकामी को ट्रांसलेट करने का भी मन कर रहा है. हिंदी में. इतनी खूबसूरत चीज़ें अपनी भाषा में नहीं होंगी तो भाषा गरीब ही रहेगी.
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आजकल मेरे दिन बहुत उलझन भरे बीत रहे हैं. इतना सारा कुछ हो जा रहा है लिखने को और फुरसत धेले भर की भी नहीं है. इसी चक्कर में सच और कल्पना का घालमेल हो जाता है. मुझे ध्यान नहीं रहता कि कितनी बातें सच में हुयी हैं और कितनी बातें सोची हुयी भर हैं.
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मैं एटलांटा में म्यूजियम गयी थी. वहां मैंने मोने(Monet) की पेंटिंग देखी. यूं इसके पहले भी मैंने मोने को देखा है मगर या तो मैं किसी और मूड में रही होउंगी कि ध्यान नहीं गया. हम कभी कभी एक खास मूड में होते हैं कि जब आर्टिस्ट को देख कर हैरत से भर जाते हैं. रेजोनेंस होता है...कि हम भी वही कुछ सोच रहे होते हैं कि जो आर्टिस्ट सोच रहा होता होगा. मोने की पेंटिंग में एक कोहरे में डूबी बिल्डिंग है. इस एक्जिबिट में पेटिंग के आगे शीशे की परत नहीं लगाई गयी थी कि जैसा अक्सर बाकी पेंटिंग्स में होता है. पेंटिंग की अपनी एनेर्जी होती है. अपना औरा. कि जो इस पेंटिंग में था. मैं बहुत देर तक उस पेंटिंग के सामने खड़ी उसे एक्टुक देखती रही. गुलाबी, बैगनी और लैवेंडर रंग की पेंटिंग इतनी जीवंत थी कि वाकई लगता था कोहरे के पीछे की बिल्डिंग दिख रही है. कोहरे की परतें थीं...और जैसे सब कुछ चलायमान था...वो पेटिंग न केवल जीवंत थी बल्कि मुखर भी थी...उसे देखते हुए मेरी आँखें भर आई थीं. कि दुनिया में कितनी खूबसूरती है. और कि हम कहाँ जा रहे हैं ऐसे भाग भाग के. उसके ठीक बगल में एक और पेंटिंग थी जिसमें वसंत ऋतु के पेड़ एक झील में रिफ्लेक्ट होते हैं...हरा, सुनहला, पीला गुलाबी...कई रंग थे. ये पेंटिंग मोने ने अपने नाव से बनायी थी. उसने एक नाव को स्टूडियो में कन्वर्ट कर दिया था. उस मौसम, उस धूप को मोने ने हमेशा के लिए पेंटिंग में कैप्चर कर दिया था.

आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. उनका लिखा कहीं हमारे मर्म को छूता है. it touches a raw nerve. कुछ टहकता है अन्दर. इसलिए महान आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. कर्ट कोबेन को पहली बार डिस्कवर किया था तो ऐसे ही लगा था कि जैसे रूह तक पहुँच रही हो उसकी आवाज़. मोने को देखती हूँ तो यूं ही उसके पेंटब्रश के स्ट्रोक्स...इतना रियल है सब...इतना सच. मैं आभासी दुनिया में कैद थी और जैसे अचानक ही इस दुनिया में पहुँच गयी हूँ जहाँ रंग ऐसे कच्चे हैं कि उँगलियों में लगे रह जाते हैं. 

किसी पेंटिंग की फोटो देखने और असल पेंटिंग देखने में कितना अंतर होता है ये भी पहली बार महसूस किया. कि कला को उसके असल रूप में देखने की जरूरत होती है. हम जो कॉन्सर्ट या ओपेरा की रिकोर्डिंग सुनते हैं और जो असल में लाइव ओपेरा होता है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर होता है. मैंने पहली बार जब वियेना में ओपेरा सुना था तो इसी तरह सीने में अटका कुछ महसूस हुआ था. रूह को छूने वाला कुछ. 

और फिर मुझे लगता है कि इस दौर में शायद लोग आभासी के पीछे रियल का अनुभव भूलते जा रहे हैं. कितने लोग पेंटिंग्स देखना चाहते हैं. मेरे कुछ दोस्त अभी भी चकित होते हैं कि मुझे म्यूजियम में क्या देखना होता है. कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें पेंटिंग समझ नहीं आती है. मुझे भी पहले पेंटिंग समझ नहीं आती थी. लगता था कि क्या है कि लोग जान दिए रहते हैं पेंटिंग को लेकर. अब पहली बार महसूस किया है. ऐसी चीज़ जादू ही होती है. उसमें कैद एक लम्हा फॉरएवर के लिए वैसा ही रहेगा. हमेशा. तुम जब भी उस पेंटिंग के पास खड़े होगे तुम उस शहर, उस मौसम, उस फीलिंग तक पहुँच जाओगे. पहली बार महसूस हुआ कि काश मोने की एक पेंटिंग खरीद सकने लायक पैसे होते तो मैं भी एक पेंटिंग अपने घर में रखती. छोटी सी ही सही. मगर ऐसा जादू कि उफ़. 

विन्सेंट वैन गौग की आत्मकथा, लस्ट फॉर लाइफ एक जगह विन्सेंट करुणा से कहता है, 'कितनी दुःख की बात है कि गरीब आदमी के पास कला के लिए पैसे नहीं है. वो एक टुकड़ा कैनवस भी अपने घर पर नहीं रख सकता. उसे कला की सही समझ है. उसे पेंटिंग के भाव समझ आयेंगे. मगर अमीर आदमी कला खरीद सकता है जबकि उसे कला की कुछ भी समझ नहीं है और वह सिर्फ नाम के लिए ख्यात पेंटिंग्स खरीदता है कि अपने ड्राइंग रूम में टांग दे और अपने दोस्तों के सामने कह सके, ये पेंटिंग में इतने पैसों में खरीदी है.'.

मैंने शायद बहुत किताबें नहीं पढ़ी हैं. अपनी किताब को लेकर अभी भी संशय में रहती हूँ जब कि छपने के पांच महीने में 'तीन रोज़ इश्क़' का पहला एडिशन सोल्ड आउट हो गया, बिना किसी अतिरिक्त प्रचार प्रसार के...मुझे समझ नहीं आता कि मैं लोगों से क्या बात करूंगी. मैं किसी महान आर्टिस्ट के बारे में बात भी करूंगी तो उसकी टेक्निक या उसकी खासियत के बारे में नहीं...बल्कि उसे देखकर मुझे जो महसूस होता है उसके बारे में बात करूंगी. मुझे बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आतीं. मॉडर्न आर्ट तो कई बार वाकई बदसूरत होता है. जैसे एटलांटा में एक एक्जीबिशन था फैशन पर. वहां एकक एक ड्रेस के पीछे आधे आधे घंटे की फिलोसफी थी. और ड्रेस न दिखने में खूबसूरत, न पहनने में प्रैक्टिकल. डिजाईन या फिर विसुअल आर्ट्स के बारे में मेरा मानना ये है कि डिजाईन को एक्प्लेनेशन की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए. अगर पढ़ कर समझना पड़े तो वो मेरे हिसाब की चीज़ नहीं.
कला भी इश्क़ जैसी होती है. यहाँ कोई चीज़ रूह तक पहुँचती है. लम्हे भर में और ताउम्र गिरफ्त में लेती है. यहाँ लॉजिक काम नहीं करता कि आको ये आर्टिस्ट पसंद आना चाहिए. मुझे पिकासो की पेंटिंग कमाल लगी थी. बेसिरपैर, लेकिन कमाल. उसके सिम्बोलिज्म को पढ़ कर उसको समझने से पहले भी पेंटिंग में कुछ था जो अपनी ओर खींचता था.
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और फिर जानती हूँ कि वोंग कार वाई को एक बार मिलने की ख्वाहिश कितनी जरूरी है. अंगकोर वात जाना क्यों रूह के लिए है...दिमाग और लॉजिक के लिए नहीं.
और इतना भी कि कहना किसी को...मैं एक बार आपकी उँगलियाँ चूमना चाहती हूँ...जिंदगी का एक मकसद कैसे हो सकता है. क्यूंकि कला समझने की नहीं, महसूसने की चीज़ है.
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लिखते हुए शिकागो में दिन उग आया है. कमरे की खिड़की से बेतरह खूबसूरत सुबह दिख रही है. आज मोने को देखने जाउंगी शिकागो म्यूजियम में. आज कुछ तसवीरें. मेरी आँखों से ऐसी दिखती है दुनिया.


01 November, 2015

इश्क़ तिलिस्म


'आप गज़ब हैं मैडम जी. भोरे भोर कोई ओल्ड मौंक खोजता है का? अभी तो ठेका खुलबे नै किया होगा नै तो हम ला देते आपके लिए.'
'अरे न बाबू, क्या कहें. पीने का नहीं, चखने का मन हो रहा है. जुबान पर घुलता है उसका स्वाद. किसी पुरानी मीठी याद की तरह. एक ठो दोस्त हुआ करता था मेरा. बहुत साल पहले की बात है. बुलेट चलता था. तुम कभी मोटरसाइकिल चलाये हो?
'हाँ मैडम जी, राजदूत था हमरे बाबूजी के पास'
'अरे वाह. हम भी राजदूत ही चलाना सीखे थे पहली बार...तो रिजर्व का तो फंडा पता ही होगा तुमको.'
'हाँ मैडम जी, पेट्रोल ख़त्म होने पर भी जरा सा एक्स्ट्रा टंकी में जो रहता है...वोही न'
'हाँ हाँ...वोही...तो ऊ दोस्त हमरा रिजर्व में रहता था...माने...बहुत गम हो रहा...दिल टूटा हुआ है...किसी से बतियाने का मन कर रहा है...वैसेही...उसके लिए इश्क़ बॉर्डरलाइन पर हुआ करता था. हम ज़ब्त करके रखते थे खुद को...सब से इश्क़ ही हो जाएगा तो रोयेंगे कहाँ जा कर?'
'ऊ तो बात है...लेकिन आपका लड़की लोगन से कहियो दोस्ती नै था क्या?'
'उहूँ...लड़की लोग बहुत फीकी होती है...पनछेछर...बूझते हो न...हमसे बात करने में माथा ख़राब हो जाता है सबका...किसी को गुस्से में हरामी बोल दिए तो बस मुंह फुला के बैठ गयी. लड़का लोग बेहतर है न...और वैसे भी चूँकि हम लड़की हैं तो माँ...बहन का गाली हमको लगता नहीं है न...बुझे न...'
'गाली देना तो बहुत मुस्किल है मैडम जी...हमरी पिछली गर्लफ्रेंड हमको एही गाली के चलते छोड़ कर चली गयी थी...एक दिन साला गुस्से में उसके बाबूजी को कुछ बोल दिए थे'
'सब का अपना अपना कमजोरी होता है बाबू, हमरा भी था.'
'अच्छा आपको भी कौनो चीज़ का चस्का लगा था का मैडम जी?'
'अरे. गज़ब चस्का था. दिन रात खुमार में बीतता था. अब तो हम सुधर गए हैं. नै तो हमपर भी चढ़ता था नशा. कि ओह.'
'कौंची का आदत था मैडम जी?'
'अरे बाबू, इशक...का...इश्क का...इश्श्श्श्क ...आह वे दिन...वो लोग...वो जुबान पे चाशनी सा नाम उनका...शहज़ादे...'
'कहाँ के शहज़ादे थे हुज़ूर?'
'इश्क़ तिलिस्म के'
'हम तो कभी नाम नै सुने इसका'
'था एक तिलिस्म बाबू...हमने भी अपने तिलिस्म में कई शहज़ादे बंद करके रखे थे.'
'कहाँ मैडम जी...दरभंगा इस्टेट में का?'
'धत पगले, सब तिलिस्म ईट पत्थर का नहीं बना होता है...एक तिलिस्म रूह का भी होता है.'
'कभी कभी आपका बात हमको एकदम्मे नै समझ में आता है मैडम जी. ई रूह माने आत्मा ही ना...रूह का कैसन तिलिस्म होता है?'
'का बताएं बाबू...कैसन तिलिस्म होता था...अब तो सब बात ख़तम हो गया है...हम अपना खाली दिल लिए दुनियादारी में झोंक दिए खुद को. एक ज़माने में इश्क़ तिलिस्म हुआ करता था.'
'और कुछ बताइये न मैडम जी तिलिस्म के बारे में'
'तिस्लिम...हाँ...रूह का तिलिस्म था. देखो, कुछ लोगों के लिए इस दुनिया का इश्क़ काफी नहीं पड़ता...उन्हें इश्क़ और गहरा चाहिए होता है...इश्क के कई रंग होते हैं...गुलाबी से शुरू होते हुए गहरा नीला...तुमने आग की लौ देखी है न...वैसे ही होता जाता है इश्क...सबसे ऊंचाई पर पहुँचता है तो गहरा नीला हो जाता है. खुदा कुछ ख़ास लोगों को चुनता है ऐसे इश्क़ के लिए. उनका सुख और दुःख रूह तक पहुँचता है. सब लोग इस इश्क़ को बर्दाश्त नहीं कर पाते कि ये इश्क़ जब टूटता है तो रूह का एक हिस्सा हमेशा के लिए लापता हो जाता है. मैंने इस इस इश्क़ के इर्द गिर्द सीमा रेखा बना दी...कि ऐसे टूटे हुए लोग यूं भी दुनिया के लिए गुम चुके होते हैं. ये मेरी सल्तनत थी...जिसका नाम था 'इश्क़ तिलिस्म'.
'सच में था, ऐसा जगह कहीं पर?'
'हाँ. पता नहीं ये कौन दीवाने थे जिन्होंने मेरी आँखों में इस तिलिस्म का रास्ता देख लिया था...वे इश्क़ में डूबते तो बस बाशिंदे हो जाते तिलिस्म के...तिलिस्म सबकी रूहों के हिस्से से बनता जाता था और खूबसूरत...खुशरंग...और मायावी.'
'फिर तिलिस्म टूटा कैसे?'
'तिलिस्म में एक शहज़ादा था...मेरा सबसे फेवरिट...मुंहलगा एकदम...शेरो शायरी का शौक़ था हम दोनों को...एक दिन फैज़ का शेर सुनाते हुए कहता है, "और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा"...हम शेर का बाकी हिस्सा सुनाये उसको, "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग"...तो बोलता है पहली सी मुहब्बत नहीं चाहिए...चाबी चाहिए...हमको तिलिस्म का चाबी दे दो...हम ई दिन रात यहाँ तुमरे तिलिस्म में बंधे बंधे नहीं बिता सकते हैं...हमरा दम घुटता है. हम बाहर भी हवा खाने जायेंगे...बाकी लड़की लोग को भी ताड़ेंगे...'
'फिर? नहीं दिए न चाभी उसको...गज़ब बोका नियन बोल रहा था...ई कोई शेयर्ड अपार्टमेंट थोड़े है कि सब्बे को एक एक ठो चाबी चाहिए'
'नहीं बाबू...दे दिए उसको चाबी...बहुत प्यारा था हमको...उसका एक्को बात टाल नै सकते थे हम'
'ऊ लौट के नहीं आया न?'
'अरे नहीं. लौट के नहीं आता तो ठीक था. वो महीनों, सालों गायब रहता...उसके इंतज़ार में तिलिस्म पर उदासी का मौसम गहराने लगता. तिलिस्म के बाशिंदे आत्महत्या करना चाहते. हर कुछ दिनों में कोई कलाई काट के मर जाता. कोई नदी में कूद कर जान दे देता'
'अरे बाबा रे...खतरनाक ही था एकदम'
'हाँ रे बाबू...मगर शहज़ादे को कोई फर्क नहीं पड़ता...वो सालों बाद भी ऐसे लौटता जैसे सारी सल्तनत उसकी ही है...और होती भी. वो पांच मिनट भी रुकता तो तिलिस्म में रहमतों की बारिश होती. सारे ज़ख्म भर जाते.'
'और कुछ बताइए न मैडम जी...कैसा दिखता था शहज़ादा?'
'सांवला सा था. सुनहली आँखें. लम्बा. छरहरा. उम्र जैसे उस तक आ कर ठहर गयी थी. लम्बे काँधे तक के हल्के घुंघराले बाल. उसके मुस्कुरा भर देने से दुआओं की नदी लबालब भर जाती थी. सारी बुरी आदतें भरी थीं उसमें. चेन स्मोकर था और शौकिया बीड़ी पीता था...जहन्नुम के आर्किटेक्चर पर काम कर रहा था. गज़ब प्यास का बना था वो. उसकी बांहों में होती थी तो और कुछ नहीं याद रहता. जिस्म से सांस. रूह से इश्क. दिल से सारे पुराने आशिकों के नाम. सब गुमशुदा हो जाते थे. डिस्क फॉर्मेट हो जाती थी पूरी की पूरी'
'फिर?'
'फिर. उससे मिलना जितना खूबसूरत था उसके जाने के बाद का खालीपन उतना ही खूंख्वार. उसके जाने के बाद इश्क़ तिलिस्म में बेतरतीब लोग भरते चले जाते. मैं इस बात का भी ख्याल रखना भूल जाती कि तिलिस्म में भटकते लोगों का कोई और ठौर नहीं है. मेरे मूड के हिसाब से वहां का माहौल बदलता...कभी वीराना...कभी रेगिस्तान...कभी समंदर. तिलिस्म के बाशिंदे कितना भी खुद को ढालने की कोशिश करते पर उन्हें करार नहीं आता. हम एक व्यूह का हिस्सा होते जा रहे थे...जहाँ से वापस लौटना हमें नहीं आता था'
'आप बचाने का कोसिस नै किये तिलिस्म को?'
'रूह का धागा यूं तो बहुत मज़बूत होता है लेकिन उसकी भी सीमा होती है. इश्क़ तिलिस्म की सबसे खूबसूरत बात थी कि यहाँ वक़्त ठहर गया था. हम अपने सबसे खूबसूरत लम्हों को बार बार जी सकते थे. दोहराव भी जानलेवा हो सकता है मुझे ये बात पहली सुसाइड से ही समझ लेनी चाहिए थी. मगर उसी दिन शहज़ादा लौटा था तिलिस्म में तो मैं सब छोड़ कर उसके पास भागती चली गयी थी. फिर साल दर साल मौतें होती रहीं और मैं उनसे कतरा के निकलती रही...डर इतना ज्यादा बढ़ गया था कि हिम्मत ही नहीं होती कि आंकड़ों को देखना कहाँ से शुरू करूँ. अपनी पसंदीदा यादों को लूप पर चलाते हुए लोग पागल होने लगे थे. इस पागलपन में उन्हें जिंदगी और मौत का अंतर समझ नहीं आने लगा था. मुझे उन दिनों जिंदगी का कोई मकसद नहीं दिखता था...जिस रोज़ मेरी रूह ने पहली बार मौत को छू लेने की ख्वाहिश की, मौत को तिलिस्म में आने को हलकी दरार मिल गयी...बस फिर उसने दबे पाँव अपना सम्मोहन फैलाया और तिलिस्म के सारे बाशिंदे दुआओं की नदी में डूब गए...मैंने उनमें से हर एक की लाश को खुद बाहर निकाला. उनकी कब्रें खोदीं...चिताएं जलायीं...और देर तक मौत की गंध में डूबी बैठी रही. तिलिस्म अब जानलेवा हो गया था. मैंने सोचा कि ताला बदल दूं मगर फिर जाने क्यों शहज़ादे का ख्याल आ गया..तो बस एक ख़त लिख कर रख दिया...फिर लौट कर इतने सालों में नहीं गयी हूँ'
'शहज़ादा लौटा क्या?'
'मालूम नहीं...एक बीड़ी पिलाओगे?'
'आप बीड़ी भी पीती हैं मैडम जी?'
'नहीं बाबू...शहज़ादे की एक यही चीज़ बाकी रह गयी है...उसके तो नहीं हो सके...बीड़ी के हो के रह गए हैं'.
'बस इतना.'
'बस इतना.' 
'देखो कहानी कहानी में बहुत वक़्त निकल गया. ठेका से एक ठो ओल्ड मौंक ला दो.'
'आप गज़ब हैं मैडम जी...ओल्ड मौंक, बीड़ी...आपको देखकर हरगिज़ नै लगता है कि आपको ई सब भी शौख होगा...अपने ऊ दोस्त को फोन कर लीजिये'
'अभी नहीं. चार पैग के बाद. कोक भी लेते आना साथ में'
'मैडम जी, चार पैग तो हो गए...अब?'
'एक और बना दो'
'ओके मैडम जी'
'क्या हुआ...ग्लास अब तक भरा क्यूँ नहीं?'
'भरा तो है मैडम जी...आइस भी डाली है...'
'नहीं बाबू...ग्लास खाली है...बीड़ी भी ख़त्म हो गयी...तुमको खम्बा लाने बोले थे न ओल्ड मौंक का...ये पव्वा काहे लेकर आये हो?'
'मैडम जी...आप काहे गुस्सा हो रही है....पूरा पैग बना दिए...और पव्वा कहाँ है...खम्बा ही तो है ओल्ड मौंक का...और ये दो ठो बण्डल रखा है न बीड़ी का...क्या हो गया मैडम जी?'
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दोपहर की कड़ी धूप का रंग बदलने लगा था...बुलेट की आवाज़ दिल की धड़कनों पर हावी हो रही थी. दोस्त ने आज किस जनम का बदला लिया था मालूम नहीं जो अपने साथ शहज़ादे को उठा लाया था बुलेट पर. सारी ओल्ड मौंक उतर गयी कमबख्तों को देख कर. शहज़ादे की मुस्कराहट से तिलिस्म ज़िंदा होने लगा था. मैंने शहज़ादे को झुक कर सलाम किया, बीड़ी का आखिरी गहरा कश मारा...हाई हील की सैंडिल तले चिंगारी बुझाई और एक उदास आखिरी लाइन कही उनसे 'गुस्ताखी माफ़ हो शहज़ादे' . दोस्त के साथ बुलेट पर बैठी...काँधे पर हाथ रखा, चुपके से उसके कान में कहा...'जान, मुझे यहाँ से दूर ले चलो...बहुत बहुत बहुत दूर'. बुलेट की पिकअप के दीवाने यूं ही नहीं थे हम. एक्सीलेरेटर पर उसका हाथ घूमा. उसने जोर का ठहाका मारा...जिसमें मेरी हँसने की आवाज़ मिलती गयी...हमारी साझी हँसी बुलेट की आवाज़ से भी ज्यादा ऊंची थी.

उस दिन इश्क़ तिलिस्म बस बंद हुआ था. ख़त्म आज होता है.

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