30 January, 2016

खोये हुये लोग सपने में मिलते हैं

कभी कभी सपने इतने सच से होते हैं कि जागने पर भी उनकी खुशबू उँगलियों से महसूस होती है. अभी भोर का सपना था. तुम और मैं कहीं से वापस लौट रहे हैं. साथ में एक दोस्त और है मगर उसकी सीट कहीं आगे पर है. ट्रेन का सफ़र है. कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे राजस्थान ट्रिप पर लगा था. ट्रेन की खिड़की से बाहर छोटे छोटे पेड़ और बालू दिख रही है. ट्रेन जोधपुर से गुजरती है. मालूम नहीं क्यूँ. मैंने यूं जोधपुर का स्टेशन देखा भी नहीं है और जोधपुर से होकर जाने वाली किसी जगह हमें नहीं जाना है. सपने में ऐसा लग रहा है कि ये सपना है. तुम्हारे साथ इतना वक़्त कभी मिल जाए ऐसा हो तो नहीं सकता किसी सच में. इतना जरूर है कि तुम्हारे साथ किसी ट्रेन के सफ़र पर जाने का मन बहुत है मेरा. मुझे याद नहीं है कि हम बातें क्या कर रहे हैं. मैंने सीट पर एक किताब रखी तो है लेकिन मेरा पढ़ने का मन जरा भी नहीं है. कम्पार्टमेंट लगभग खाली है. पूरी बोगी में मुश्किल से पांच लोग होंगे. और जनरल डिब्बा है तो खिड़की से हवा आ रही है. मुझे सिगरेट की तलब होती है. मैं पूछती हूँ तुमसे, सिगरेट होगी तुम्हारे पास? तुम्हारे पास क्लासिक अल्ट्रा माइल्ड्स है.  

तुम्हारे पास एक बहुत सुन्दर गुड़िया है. तुम कह रहे हो कि घर पर कोई छोटी बच्ची है उसके लिए तुमने ख़रीदा है. गुड़िया के बहुत लम्बे सुनहले बाल हैं और उसने राजकुमारियों वाली ड्रेस पहनी हुयी है. मगर हम अचानक देखते हैं कि उसकी ड्रेस में एक कट है. तुम बहुत दुखी होते हो. तुमने बड़े शौक़ से गुड़िया खरीदी थी. 

फिर कोई एक स्टेशन है. तुम जाने क्या करने उतरे हो कि ट्रेन खुल गयी है. मैं देखती हूँ तुम्हें और ट्रेन तेजी से आगे बढ़ती जाती है. मैं देखती हूँ कि गुड़िया ऊपर वाली बर्थ पर रह गयी है. मैं बहुत उदास हो कर अपनी दोस्त से कहती हूँ कि तुम्हारी गुड़िया छूट गयी है. गुड़िया का केप हटा हुआ है और वो वाकई अजीब लग रही है, लम्बी गर्दन और बेडौल हाथ पैरों वाली. हम ढूंढ कर उसका फटा हुआ केप उसे पहनाते हैं. वो ठीक ठाक दिखती है. 

दिल में तकलीफ होती है. मैंने अपना सफ़र कुछ देर और साथ समझा था. आगे एक रेलवे का फाटक है. कुछ लोग वहां से ट्रेन में चढ़े हैं. मेरी दोस्त मुझसे कहती है कि उसने तुम्हें ट्रेन पर देखा है. मैं तेजी पीछे की ओर के डिब्बों में जाती हूँ. तुम पीछे की एक सीट पर करवट सोये हो. तुम्हारा चेहरा पसीने में डूबा है. मैं तुमसे थोड़ा सा अलग हट कर बैठती हूँ और बहुत डरते हुए एक बार तुम्हारे बालों में उंगलियाँ फेरती हूँ और हल्के थपकी देती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें बहुत सालों से जानती हूँ और हमने साथ में कई शहर देखे हैं.

तुम थोड़ी देर में उठते हो और कहते हो कि तुम किसी एक से ज्यादा देर बात नहीं कर सकते. बोर हो जाते हो. तुम क्लियर ये नहीं कहते कि मुझसे बोर हो गए हो मगर तुम आगे चले जाते हो. किसी और से बात करने. मैं देखती हूँ तुम्हें. दूर से. तुम किसी लड़के को कोई किस्सा सुना रहे हो. किसी गाँव के मास्टर साहब भी हैं बस में. वो बड़े खुश होकर तुमसे बात कर रहे हैं. अभी तक जो ट्रेन था, वो बस हो गयी है और अचानक से मेरे घर के सामने रुकी है. मैं बहुत दुखी होती हूँ. मेरा तुमसे पहले उतरने का हरगिज मन नहीं था. तुमसे गले लग कर विदा कहती हूँ. मम्मी भी बस में अन्दर आ जाती है. तुमसे मिलाती हूँ. दोस्त है मेरा. वो खुश होती है तुम्हें देख कर. तुम नीचे उतरते हो. मैं तुम्हें उत्साह से अपना घर दिखाती हूँ. देखो, वहां मैं बैठ कर पढ़ती हूँ. वो छत है. गुलमोहर का पेड़. तुम बहुत उत्साह से मेरा घर देखते हो. जैसे वाकई घर सच न होके कोई जादू हो. मैं अपने बचपन में हूँ. मेरी उम्र कोई बीस साल की है. तुम भी किसी कच्ची उम्र में हो. 
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कहते हैं कि सपने ब्लैक एंड वाइट में आते हैं. उनमें रंग नहीं होते. मगर मेरे सपने में बहुत से रंग थे. गुलमोहर का लाल. गुड़िया के बालों का सुनहरा. तुम्हारी शर्ट का कच्चा हरा, सेब के रंग का. बस तुम्हारा चेहरा याद नहीं आ रहा. लग रहा है किसी बहुत अपने के साथ थी मगर ठीक ठीक कौन ये याद नहीं. सपने में भी एक अजनबियत थी. इतना जरूर याद है कि वो बहुत खूबसूरत था. इतना कि भागते दृश्य में उसका चेहरा चस्पां हो रहा था. लम्बा सा था. मगर गोरा या सांवला ये याद नहीं है. आँखों के रंग में भी कन्फ्यूजन है. या तो एकदम सुनहली थीं या गहरी कालीं. जब जगी थी तब याद था. अब भूल रही हूँ. हाँ चमक याद है आँखों की. उनका गहरा सम्मोहन भी. 

सब खोये हुए लोग थे सपने में. माँ. वो दोस्त. और तुम. मुझे याद नहीं कि कौन. मगर ये मालूम है उस वक़्त भी कि जो भी था साथ में उसका होना किसी सपने में ही मुमकिन था. मैं अपने दोस्तों की फेरहिस्त में लोगों को अलग करना चाहती हूँ जो खूबसूरत और लम्बे हैं तो हँसी आ जाती है...कि मेरे दोस्तों में अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं. रास्ता से भी कुछ मालूम करना मुश्किल है. जबसे राजस्थान गयी हूँ रेगिस्तान बहुत आता है सपने में. पहले समंदर ऐसे ही आता था. अक्सर. अब रेत आती है. रेत के धोरे पर की रेत. शांत. चमकीली. स्थिर. 

उँगलियों में जैसे खुशबू सी है...अब कहाँ शिनाख्त करायें कि सपने से एक खुशबू उँगलियों में चली आई है...सुनहली रेत की...

25 January, 2016

एक था इमलोज


उसका नाम लोरी था. ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ. मगर इक शाम काफिया उसके साथ पहाड़ो पर चाँद की शूट पर गया था तो महसूस होता था...उसके साथ का हर लम्हा किसी स्वप्न की मानिंद होता था. जाग के किसी लम्हे उसके भागते दुपट्टे का कोर भी हाथ नहीं आ सकता. उसके साथ होते ही सपनों के चमकीले रंग खुलते थे. जो कहीं नहीं हो सकता था, वो होता था.

लोरी को बचपन में किसी ने मज़ाक में कह दिया कि आँगन के इस शम्मी के पेड़ से तुम्हारी शादी हो गयी है. अब ये पेड़ तुम्हारा जीवनसाथी है. बच्ची ने भोलेपन में पूछा जीवनसाथी मने? तो उससे जरा ही बड़ी फागुन दी ने बताया कि बेस्ट फ्रेंड. उस दिन के बाद से लोरी की किसी से गहरी दोस्ती नहीं हुयी. उसके सारे दोस्त उसका मजाक उड़ाते थे कि लोरी का बेस्ट फ्रेंड एक पेड़ है. लोरी छोटी थी तब से स्कूल में बहुत से दोस्त होते थे उसके...ये अचानक से सबका रूठ जाना उसे बिलकुल रास नहीं आया. वो रोज़ घर आ कर शम्मी को सब कुछ सुनाती. शम्मी मगर उसके किसी सवाल का जवाब नहीं देता. हाँ सुनने का धैर्य उसमें असीमित था. वो सब कुछ सुन लेता था. घर की बातें भी. माँ का डर कि अगर पिताजी घर नहीं लौटे तो इस महीने का खर्चा कहाँ से आएगा...लोरी के लिए इस बार नयी स्कूल ड्रेस नहीं आ पाएगी या कि ये भी कि स्कर्ट को रात भर में सुखाने के लिए चूल्हे के ऊपर गरमाया जाता है और इसमें कोयले ख़त्म हो जाते हैं तो उसे ठंढा दूध ही पीना पड़ेगा रात में. लोरी ये सब समझती थी. और साथ में शम्मी का पेड़ भी.

धीरे धीरे लोरी बड़ी होती गयी और साथ में शम्मी का पेड़ भी. देखते देखते पेड़ की सबसे मोटी शाख पर एक बड़ा सा झूला लग गया. लोरी को बिलकुल अच्छा नहीं लगता कि उसके पेड़ पर मोहल्ले भर के बच्चे झूलें, आंटियां अपनी सासों की बुराई करें. मगर लोरी को समझाया गया कि वो भले ही सिर्फ शम्मी के पेड़ की है पूरी की पूरी और उसे इमानदारी से पेड़ के प्रति अपना प्रेम बिना बांटे बरकरार रखना है लेकिन शम्मी का पेड़ सिर्फ उसका नहीं है. उसपर बाकी लोगों का भी हक बनता है और उसे एक समझदार लड़की की तरह ये बात समझनी चाहिए और इस पर कोई हल्ला हंगामा खड़ा नहीं करना चाहिए. आखिर पेड़ ने तो कभी हामी नहीं भरी थी कि वो पूरा का पूरा लोरी का ही है और उससे किसी का कुछ भी जुड़ नहीं सकता. फिर ये भी तो बात थी कि पेड़ पर झूला पड़ जाने से लोरी को कोई दिक्कत तो नहीं थी. ऐसा थोड़े है कि उसके हिस्से का छीन कर किसी के हवाले किया जा रहा था. इतने बड़े पेड़ को वो अपने स्कूल बैग में लिए थोड़े न घूम सकेगी. लोरी बहुत समझदार बच्ची थी. सब समझ गयी. अब उसकी अपने शम्मी से अकेले में मुलाकातें काफी कम हो गयीं थीं. सिर्फ कभी कभी जब पूरनमासी की रात होती तो वह शम्मी के पास आ जाती और झूले पर हौले हौले झूलती रहती. या कभी कभी ऐसा दिन होता कि किसी ने उसको स्कूल में बहुत चिढ़ाया होता तो वो उसकी शिकायत करने शम्मी के पास आ जाती.

शम्मी का पेड़ उसकी जिंदगी में कम शामिल हो गया हो ऐसा नहीं हुआ कभी. लोरी की दुनिया में अब भी सब कुछ शम्मी के इर्द गिर्द ही घूमता था. जैसे जैसे उसकी उम्र सोलह के पास जा रही थी लोरी के सपनों का रंग बदलता जा रहा था. उसने शम्मी के पेड़ का नाम रखा था. दुनिया में उसके हिसाब से आदर्श प्रेमी...इमरोज़...आखिर शम्मी भी तो उसे अपनी सारी बातें करने देता था. कभी जलता नहीं था. कभी मना नहीं करता था. लोरी के दिन रात में अलग अलग चीज़ें घुलने लगी थीं. वो अक्सर अपने बैग में शम्मी के पत्ते लिए घूमती थी. उसे लगता था कि उसकी उँगलियों से एक ख़ास खुशबू आती है...इमरोज़ की. लोग उसे समझाते थे कि शम्मी के पत्तों में गंध नहीं होती और दुनिया में किसी भी इत्र का नाम इमरोज़ नहीं है. लोरी की उम्र में लेकिन खुदा पर भी यकीन नहीं होता और हवा में उड़ती आयतें भी दिखती हैं.

उसकी सारी दोस्तों के महबूब होने लगे थे. लोरी ने एक दिन देखा कि उसकी ही छोटी बहन धानी ने शम्मी के पेड़ पर अपने नाम पहला अक्षर प्रकार से खोद खोद कर लिख दिया. प्रकार की तीखी नोक लोरी के दिल को बेधती निकली थी. वो कितना ही अपनी बहन पर चीखी चिल्लाई मगर पेड़ पर लिखा अंग्रेजी का कैपिटल D और उसके इर्द गिर्द बना हुआ आधा दिल उसके सपनों में रात रात चुभता रहता. उसके लाख चाहने पर पेड़ पर खोदा हुआ कुछ गायब नहीं किया जा सकता था. उसे मिटाने के लिए उस पूरे हिस्से की छाल को हटाना होता. इससे इमरोज़ का दिल दुखता. लोरी को हिम्मत नहीं हो पायी कि वो तीखी ब्लेड से छील कर छाल का वो हिस्सा अलग कर दे. इमरोज़ शायद कहना चाहता होगा उससे कि वो सिर्फ एक पेड़ है, कुछ भी नहीं कर सकता अगर कोई उसपर अपना नाम लिख देना चाहे तो. इमरोज़ लेकिन जाने क्या कहना चाहता था. लोरी को कभी मालूम नहीं चल पाता. अब वो बचपन के दिन नहीं थे कि उसे रोज़ पानी देना होता था और अगली सुबह पत्तों के रंग से इमरोज़ की ख़ुशी या गम का पता चल जाता. लोरी हमेशा कहती थी कि जिस सुबह वो शम्मी में जल डालती है शम्मी के पत्तों का रंग ज्यादा चमकीला होता है. लोरी को जानने वाले उसकी किसी भी बात का यकीन करते थे...तो इस बात को मानने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी. लोरी ने चाहा कि उस जगह पर आर्किड के पौधे लगा दे. बेल के नीचे शायद वो एक अक्षर छिप जाएगा और उसे चैन से नींद आ सकेगी. कुछ छलावे भी जीवन में जरूरी होते हैं ये उसने पहली बार जाना था.

इकतरफे प्रेम के बहुत रंग होते हैं. लोरी की सहेलियों ने महसूस किया था कि लड़के दिल तोड़ने की कला एक ही स्कूल से सीख कर आते हैं. इस स्कूल में लड़कियों की एंट्री बंद थी. लोरी अपने इमरोज़ को रोज़ एक नए टूटे हुए दिल की दास्तान सुनाती और इमरोज़ अपनी पूरी पेशेंस के साथ सुनता. लोरी अब इमरोज़ से निशान मांगने लगी थी कि उसने लोरी की बात ठीक से सुनी कि नहीं. बातें सिंपल होती थीं कि जैसे अगर इमरोज़ को लगता है कि फलाना ने उस लड़के का प्रपोजल ठुकरा के ठीक किया तो कल सुबह जब लोरी उसके पास आएगी तो उसकी शाख पर एक तोता बैठा हुआ होना चाहिए. लोरी बहुत ख्याल रखती थी इमरोज़ का...कभी कोई उलटी सीधी माँग नहीं रख देती थी कि जैसे अगर उसकी बात सच है तो कल इमरोज़ की शाख पर फुलवारी चचा की भैंस चढ़ी हुयी मिले तब ही सबूत पर यकीन करेगी. इमरोज़ भी उसके सवालों के हिसाब से जवाब देता था. जैसे जैसे लोरी की उम्र बढ़ रही थी, उसकी खूबसूरती भी बढ़ती जा रही थी. ऐसे में इमरोज़ भी अक्सर उसे इश्क़ को बचाए रखने के लिए अपनी तरफ से कोशिशें कर लेता था. जब लोरी की सहेलियां उसे बहुत चिढ़ातीं तो लोरी को शक होने लगता कि उसकी और इमरोज़ की मुहब्बत सिर्फ उसके अपने दिमाग की उपज है. मगर फिर वो बायोलोजी की किताबें पढ़ती, कि जब जगदीश चन्द्र बोस ने कहा था कि पौधों में भी जान होती है. वो इमरोज़ की संगीत की समझ बचपन से विकसित कर रही थी. अब तो इमरोज़ जैज़ सुनकर झूमने ही लगता था. कभी कभी तो इमरोज़ तितलियों को अपनी ओर मिला लेता. उन दिनों लोरी को किसी न किसी कोटर में कभी फूल मिलते तो कभी कच्चे अमरुद और टिकोले. उसकी किसी सहेली के बॉयफ्रेंड को नहीं पता था कि लड़कियां चमकदार गोटे में लगी चीज़ें देख कर खुश भले हो जाएँ उनका दिल कच्ची अमिया और खट्टे अमरूदों में लगता है. ये बात इमरोज़ के सिवा किसी को मालूम ही नहीं होती थी. इमरोज़ किसी लड़के को ये सब बताता भी तो नहीं था.

लोरी के इमरोज़ की बराबरी किसी लड़के से हो ही नहीं सकती थी. यूं उसकी सारी सहेलियां भी अपने अपने महबूब को लेकर आसमान तक कल्पनाएँ करती थीं मगर लोरी की कविता की एक पंक्ति के आगे किसी की बात नहीं ठहरती थी. चाँद के साथ रोज खिड़की से झाँकने वाला महबूब किसी की किस्मत में कहाँ लिखा होता है. फिर इमरोज़ की जड़ें लोरी के घर में थी...वहां से उसे कौन निकाल सकता है. हर मुहब्बत की उम्र लेकिन आसमानों में तय होती है...और इमरोज़ कितना भी ऊंचा लगता हो लोरी की छोटी सी दुनिया में मगर खुदा के दरबार तक तो न उसकी कोई डाली पहुँचती थी न लोरी की कोई दुआ. घर वालों को जाने किस दिन लगा कि लोरी इमरोज़ के इश्क़ में कुछ ज्यादा ही दीवानी हो रही है. वे उसका नाम किसी गुमशुदा कॉलेज में लिखवा आये. दुनिया के दूसरे छोर पर खुले उस कॉलेज की जलवायु एकदम अलग थी. वहां शम्मी के पेड़ नहीं होते थे. लोरी गुलमोहर की नन्ही पत्तियां देखती और उसका नन्हा सा दिल दहकते गुलमोहरों की तरह जल उठता. बेरहम दुनिया ने इश्क़ के किसी रंग को कब समझा था जो लोरी की उदास आँखों और गीले खतों के कागज़ से जान जाए कि इमरोज़ को किसी दूसरे शहर भेजना कितना नामुमकिन है. 

ये वोही दिन थे जब लोरी चुप होती जा रही थी. उसके इर्द गिर्द शोर बढ़ता जा रहा था मगर उसका दिल उसकी आँखों की तरह शांत हो रहा था. ऐसी किसी चुप्पी शाम लोरी गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठी इमरोज़ को ख़त लिख रही थी कि सामने एक बेहद खूबसूरत लड़के को देख कर हड़बड़ा गयी. वो उसकी नोटबुक देख रहा था. उसने हरे रंग का हल्का कुरता पहन रखा था. लोरी के चेहरे पर अनायास मुस्कान आ गयी. ये वैसा ही रंग था जब बचपन में इमरोज़ को पानी देती थी तो शाम उतरते वो इतराने लगता था. मुहब्बत का रंग. शांत हरा. लड़के का नाम काफिया था. इस गुलमोहर के नीचे वो अक्सर सिगरेट पीने आता था. इधर कुछ दिन से चूँकि यहाँ लोरी स्केच किया करती थी वो कहीं और जा के कश मार लेता था. मगर जगहों की आदत भी लोगों से कम बुरी नहीं होती. पूरे दो हफ्ते तक लोरी रोज़ इसी गुलमोहर के नीचे इसी वक़्त दिखती थी. आज काफिया का दिल नहीं माना तो वो भी इधर ही चला आया. लोरी मुस्कुरा कर ख़त लिखती रही. काफिया अनमना सा सिगरेट फूंकता रहा. काफिया ने नोटिस किया कि जिस दिन वो हरे रंग का कुर्ता पहनता है लड़की के चेहरे पर मुस्कराहट खेलती रहती है. आखिर एक दिन उससे रहा नहीं गया तो उसने लोरी को टोक ही दिया...'मेरा नाम काफिया है, आपको हरा रंग बहुत पसंद है न?'...लोरी ने आँखें ऊपर उठायीं तो काफिया को लगा कि उसकी आँखें हरी हैं...सिर्फ इसलिए कि वो उसके रंग में रंग जाना चाहती है...लोरी ने कहा, 'मेरा नाम लोरी है'...'लेकिन लोरी में तो काफिया नहीं मिलता'...'जी?!' काफिया भी हड़बड़ा गया...जाने क्यूँ घबरा गया था वो...ऐसा कुछ कहने का इरादा तो नहीं था. पर उस दिन के बाद दोनों अक्सर बातें करने लगे थे. लोरी ने बहुत दिनों बाद किसी को पाया था जो उसकी बातें सिर्फ सुनता ही नहीं था, बल्कि वापस बातें भी करता था. हालाँकि लोरी ने कभी उसका हाथ नहीं पकड़ा था लेकिन उसकी ख्वाहिश होती थी कि वो जाने कि सिगरेट पीने से उँगलियाँ कैसी महकती हैं...इक रोज़ ऐसे ही गुलमोहर के नीचे पड़े सिगरेट के टुकड़े को लेकर सूंघ रही थी कि काफिया वहां आ गया. वो बुरी तरह झेंप गयी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी थी.

लोरी ने अब तक अपनी ओर से बनायी हुयी दुनिया के रंग ही देखे थे. इमरोज़ का सारा इश्क़ उसके बनाए रंगों में घुलता था. ये सारे शुद्ध रंग होते थे. लाल. पीला. नीला. काफिया के साथ होने से रंगों में मिलावट होने लगी थी. एक दिन उसके लिए रजनीगंधा के फूल लेता आया तो शाम का रंग गुलाबी हो गया. एक दिन डार्क चोकलेट ले आया तो रातें नीली सियाह हो गयीं कि तारे और भी तेज़ चमकते महसूस होते थे और चाँद के किनारे इतने तीखे थे कि सपनों के कट जाने का डर लगता था. लोरी ने डर जाना नहीं था कि उसका दिल कभी टूटा नहीं था. मगर उसने कभी लौटती आवाज़ भी नहीं जानी थी. उसे मालूम नहीं था कि इश्क़ में किसी का एक नज़र भर देख लेना अपने पूरे वजूद को सुकून से भर लेना हो सकता है. इक रोज़ काफिया और लोरी ट्रेक करके पहाड़ों पर बर्फ की शूट पर गए थे. चाँद के स्वप्निल रंगों में सब जादू था. उसकी चुप्पी में बहुत सी जगह थी. मगर काफिया मिलना चाहता था...लोरी में बंधना चाहता था. काफिया की आवाज़ बहुत गहरी थी. रूह के किसी वाद्ययंत्र से निकलती. रात की ठंढ में कॉफ़ी का मग लोरी को देते हुए उसके कानों में गुनगुनाया...हवा की शरारत भरी सरगोशी के साथ. 'इश्क़. तुमसे. जानां.' लोरी ने पहली बार इस कदर ठंढ और थरथराहट महसूस की कि अचानक किसी की बाँहों में सिमटने को जी चाहा. उसे मालूम नहीं था किसी की बांहों में सिमटना क्या होता है मगर जब काफिया उसके इर्द गिर्द बंधा तो लोरी ने पहली बार खुद को मुकम्मल महसूस किया.

लोरी लौटी तो काफिया की हो चुकी थी. इक आवाज़ पर उसने अपनी जिंदगी के सारे पन्ने लिख दिए थे. जवाब देना कुछ लोगों के लिए कितना जरूरी हो जाता है. लोरी यूं हवा में घुल जाती और रह जाती यादों में सिर्फ एक प्रतिध्वनि की तरह और उसे अफ़सोस नहीं होता. मगर अब कोई था जो उसे हर लम्हा गुनगुनाता रहता था. हर बार अलग अलग सुर में, अलग अलग शब्दों में. शादी के बाद लोरी पेरिस चली गयी. अब उसे जगदीश चन्द्र बोस की किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं मिलता था जो उसे कहे कि पेड़ों को भी अलविदा कहना चाहिए. शादी के एक दिन पहले रात को चुपचाप शम्मी के पेड़ के नीचे गयी. 'इमरोज़. अब कौन पुकारेगा तुम्हें इस नाम से...मेरी यादों में जैसे तुम गुम हो रहे हो...तुम्हारी यादों से वैसे ही मैं भी गुम हो जाउंगी न?' विदाई में सबके सीने लग के रोई और इमरोज़ की ओर बस एक नज़र भर देखा. इतने लोगों के सामने कैसे विदा कहती. उसका और इमरोज़ का रिश्ता तो बस उसकी दिल की धड़कनों तक था. इमरोज़ तक हवाएं उसकी महक बहुत दूर से तलाश कर लाती रहीं. कई बारिशों तक. मगर उस दिन के बाद लोरी ने इमरोज़ का नाम कभी नहीं लिया.
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इसके बहुत साल बाद कोई साल. 

हर माँ बेटे के अपने खेल होते हैं. सीक्रेट वाले. जो पूरे घर से छुपा कर खेले जाते हैं. धानी ने घर वालों के सामने एक ही शर्त रखी थी कि उसके लिए लड़का उसी शहर में ढूँढा जाये. वो अपने मायके के आसपास रहना चाहती है. यूं भी लोरी की शादी इतने सात समंदर पार हुयी थी कि घर वाले चाहते भी थे कि छोटी कमसे कम पास रहे. बेटियों के बिना घर सूना लगता है. धानी का दूल्हा बड़ा खूबसूरत बांका नौजवान था. शादी के साल होते ही घर में बेटे की किलकारियां गूंजने लगी. चूँकि उसका मायका इतना पास था तो रिवाज़ के हिसाब से धानी साल दो साल मायके में ही रहती थी. इन्ही दिनों उसके बेटे ने बोलना सीखा था. दोनों माँ बेटा गरमी की दुपहरों में पूरे घर से भाग कर शम्मी के पेड़ के नीचे चादर डाल कर पिकनिक मना रहे होते तो कभी झूला झूल रहे होते थे. तीखी गर्मियों में शम्मी का पेड़ पूरी तरह फ़ैल जाना चाहता कि धूप का कोई टुकड़ा उन्हें झुलसा न सके. धानी उन्हीं दिनों अपने बेटे को शब्द सिखा रही थी. 

शाम ढल आई थी...आम के बौर के मौसम थे...धानी झूले पर हल्के हल्के झूल रही थी और लाड़ में बेटे से पूछ रही थी, 'अच्छा, बताओ, मम्मा प्यारा बेटा को क्या बुलाती है जो कोई नहीं जानता?' फूल से खिलते उस बच्चे ने अपनी तोतली बोली में कहा 'इमलोज'...धानी उसे ठीक से समझा रही थी, 'इमलोज नहीं बेटा, फिर से बोलो...इम रो ज़'...बच्चा अपनी तुतलाहट को पूरे हिसाब से बाँध कर कहता है, 'इमरोज'. धानी खिलखिला उठती है. बेटे को गोदी में भर कर गोल गोल नाचती है और झूले में पींग दिए जाती है...ऊंची...ऊंची और ऊंची...

शम्मी के पेड़ की भाषा कोई नहीं जानता लोरी के सिवा. उसकी शाखों पर रोज़ तोतई रंगों का कोलाज होता है. उनकी सुर्ख लाल चोंच इश्क़ के रंग सी होती है. लाल. शम्मी की रुलाई को हरसिंगार थामे रहता है. जमीन के बहुत नीचे उनकी जड़ें आपस में गुंथ गयी हैं. जब इमरोज़ बहुत उदास होता है तो रात रात भर हरसिंगार के गले लग कर रोता है. अगली सुबह हरसिंगार के सफ़ेद फूलों की चादर बिछी होती है. लोग कहते हैं हरसिंगार के फूलों का मौसम साल में एक बार आता है. इमरोज़ को नहीं पता कि याद का मौसम कितने बार आता है. मगर जब भी धानी का नन्हा बेटा उसके इर्द गिर्द घूमता हुआ अपनी तोतली जुबान में कहता है, इमलोज, तो शम्मी के पेड़ के सारे पत्ते उड़ते उड़ते किसी दूर समंदर में गिर के मर जाना चाहते हैं...उस रात बेमौसम भी हरसिंगार के नीचे बहुत बहुत बहुत से फूल गिर जाते हैं...और कोई नहीं जानता कि याद का मौसम बेमौसम भी आता है. इश्क़ की तरह.

धीरे धीरे धानी का बेटा बड़ा हो रहा था. उसने बड़े प्यार से उसका नाम विधान रखा था. उसका घर और मायका इतना पास था कि अक्सर आती जाती रहती. लोग भूल ही गए थे कि शम्मी के उस पेड़ को कभी इमरोज़ कह कर पुकारता था कोई. कि लोरी ने उसका नाम इमरोज़ के नाम पर रखा था. धानी के बेटे ने उसे इमलोज क्या कहना शुरू किया पूरा घर उसे इमलोज कहने लगा. बात यहाँ तक हुयी कि विधान कोई बदमाशी करता तो लोग उसे 'इमलोज का बच्चा' कह कर मारने को दौड़ते. लेकिन वो नन्हा सा विधान अब उतना छोटा नहीं रहा था. भाग कर बिल्ली की तरह अपने इमलोज की घनी शाखों पर छुप जाता. यूं हर किसी को उसके कांटे चुभते मगर जाने विधान और इमलोज की ये कैसी यारी थी कि आज तक बच्चे को एक खरोंच तक नहीं आई थी. मुहब्बत के दिन थे कि जब लोरी का वापस लौटना हुआ. बिना किसी को बताये वो अचानक पहुँच गयी थी कि सबको सरप्राइज देगी. घर के गेट से अन्दर घुसी तो देखती है कि माँ, बाबा, बड़ी मम्मी सब लोग उसके इमरोज़ को घेर कर खड़े हैं और प्यार मनुहार से एक एक करके बात कर रहे हैं. ये क्या अजूबा हरकत है सोचती वो दरवाज़े पर ही खड़ी थी कि धानी साड़ी का लपेटा लिए उधर से आई 'इमलोज के बच्चे, नीचे उतर वरना तेरे साथ साथ तेरे इमलोज की भी डाली तोड़ दूँगी'. 'नहीं...मम्मी...सॉरी...सॉरी'...प्लीज इमलोज को कुछ मत करना', इसके साथ ही धम्म से कोई पांच साल का बच्चा नीचे कूदा और सीधे हरसिंगार की ओर भागता आया और लोरी के पीछे छुप गया. जहाँ लोरी को देख कर घर वाले ख़ुशी से पागल हो जाते...यहाँ सब ऐसे घबराए जैसे उसके पीछे उन्होंने लोरी की जमीन हड़प ली हो. 'वो दीदी, कुछ नहीं ये तुम्हारा विधान का किया धरा है...इसी ने तुम्हारे इमरोज़ का नाम बिगाड़ा है'. लोरी को शायद खुद से उतना सदमा नहीं लगता लेकिन धानी के सफाई देने से बरसों पुराना बचपन का किस्सा याद आ गया कि जब उसने इमरोज़ पर अपने नाम का पहला अक्षर खोद दिया था.
रात भर लोरी को नींद नहीं आई. पैर पटकती कमरे में चहलकदमी करती सोचती रही कि ऐसा कौन सा अकाट्य तर्क हो कि जिसके सामने लोग शम्मी के पेड़ को काटने को राजी हो जाएँ. प्रेम का अधिकार भाव जब अपनी पूरी तीक्ष्णता के साथ मुखर होता है तो उसमें किसी तरह की करुणा नहीं रहती. लोरी कोई रियायत नहीं बरतना चाहती थी. आखिर उसे एक ऐसा कारण मिल ही गया जिसके आगे सब हार जाते.
'मम्मा, मैं इस बार एक बहुत ख़ास काम से आई हूँ...लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हो पायेगा'.
'अरे लोरी, ऐसा क्या हो गया...बता मुझे क्या मुश्किल है?'
'वो मम्मा, तुम तो जानती हो, शादी के सात साल होने को आये, कोई बाल बच्चा नहीं है. हम सब जगह दिखा के हार गए लेकिन डॉक्टर्स के हिसाब से कहीं कोई दिक्कत नहीं है. एक दिन पेरिस में एक बहुत पहुंचे हुए बाबा मिले. उन्हें मेरे बारे में सब पता था. ये भी कि घर में एक शम्मी का पेड़ है जिसका मैंने कोई नाम रखा है.'
'सच्ची. तब तो वाकई बहुत पहुंचे हुए बाबा थे...क्या कहा बाबा ने?'
'वो माँ...अब तो नहीं लगता है कि उनका कहा सच हो पायेगा. उन्होंने कहा है कि इसी शम्मी के पेड़ को काट कर उसके तने के भीतरतम हिस्से से एक लड्डू गोपाल की मूर्ति बनवा कर गंगा में विसर्जित करनी होगी. पेड़ शापित है. उसके कारण ही घर में संतान का अभाव है. अब तुम ही बताओ माँ, विधान और धानी के रहते कैसे पेड़ कटवा दूं मैं'
माँ आखिर माँ थी. इस वजह के आगे तो कोई तर्क वाजिब नहीं ठहरता. सबने निश्चय किया कि धानी और विधान को इस बारे में कुछ नहीं बताएँगे और जल्द से जल्द पेड़ कटवा देंगे ताकि लोरी वक़्त पर घर लौट सके और उसे टिकट पोस्टपोन नहीं करना पड़े. लोरी ने खुद से फोन करके बिजली से चलने वाली आरी का इन्तेजाम किया.

उधर धानी और विधान दोपहर को मीठी नींद सो रहे थे कि अचानक एक ही सपने से दोनों की आँख खुली और वे इमलोज को लेकर भयानक घबराहट में घिर गए. धानी ने एक सेकंड तो सोचा कि मन का वहम है मगर फिर कुछ था जो उसे तेजी से घर की ओर खींच रहा था. उसने मन को समझाया कि इसी बहाने लोरी से भी मुलाक़ात हो जायेगी. फटाफट तैयार होकर दोनों माँ बेटा चल दिए. घर की गली के मोड़ पर ही धानी का दिल आशंका से डोलने लगा. दरवाजे जैसे ही पहुंची वैसे ही इमलोज धराशायी हुआ. उसकी चीख इतनी गहरी थी कि इमलोज की जड़ें तक सिहर गयीं. लोरी का चेहरा सपाट चट्टान बना हुआ था जिसपर कुछ भी पढ़ना नामुमकिन था. इमलोज के सीने में दफ्न राज़ तो लेकिन और भी गहरे थे. हर पेड़ के तने में वर्तुल बने होते हैं जिससे पेड़ की उम्र पता चलती है. शम्मी के पेड़ के सबसे छोटे वलयों में स्पष्ट रूप से अंग्रेजी का L दिख रहा था. भीतरतम के वलय जो कि सबसे पुराने होते हैं. पेड़ के बचपन के. इसी अक्षर की अनुकृति थे मगर जैसे जैसे बाहरी वलय बन रहे थे, उनका कोण बदलता गया था और वो अंग्रेजी के V जैसे होते गए थे. विधान और लोरी दोनों ही चुप थे. शम्मी का पेड़ अपने दिल में इतने गहरे राज़ लिए जी रहा था कि उसके जीते जी किसी को नहीं मालूम चलता. ये कैसा इश्क़ था. ये कैसी चुप्पी थी.

उस साल के बाद हरसिंगार में कभी फूल नहीं आये. जाने क्यूँ धानी को ऐसा लगता था कि ये बात सिर्फ उसे मालूम है. घर में तो और किसी को अब ये भी याद नहीं कि कभी यहाँ एक शम्मी का पेड़ था...जिसका नाम था इमलोज.

24 January, 2016

कविताओं का जीवन में लौट आना

मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो नहीं है कि मैंने पहले कवितायें नहीं पढ़ीं. या शायद नहीं पढ़ीं. बचपन में या कॉलेज के लड़कपन में पढ़ी होंगी. होश में ध्यान नहीं है कि आखिरी कौन सी कविता पढ़ी थी कि जिसे पढ़ कर लगे कि रूह को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है. कलेजे में हूक सी उठ जाए कि जैसे प्रेम में होता है...या कि विरह में. 

मैं बहुत दिन बाद कागज़ की कवितायें पढ़ रही हूँ. किताब को हाथ में लिए हुए उसके धागों को अपनी आत्मा के धागों से मिलता हुआ महसूस करती हूँ. पन्ना पलटते हुए शब्द मेरी ऊँगली की पोरों में घुलते घुलते लगते हैं. जैसे बरसों की प्यासी मैं और अब मुझे शब्द मिले हैं और मैं ओक ओक पी रही हूँ. समझती हूँ जरा जरा कि मुझे प्रेम की उत्कंठा नहीं थी जितनी किताबों की थी. मेरा मन पूरी दुनिया तज कर इस कमरे की ओर भागता है जहाँ मेरी इस बार की लायी किताबें सजी हुयी हैं. मुझे मोह हो रहा है. इन पर मेरा अपार स्नेह उमड़ता है. मन शब्दों में पगा पगा दीवानावार चलता है. 

सुबह को लगभग सात बजे उठ जाने की आदत सी है. उस वक़्त घर में सब सोये रहते हैं. शहर भी उनींदा रहता है और कोई आवाजें मेरा ध्यान भंग नहीं करतीं. खिड़की से रौशनी नहीं आती बस एक फीका उजास रहता है. ज़मीन पर पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. दीवार की ओर एक पतला सा सिंगल गद्दा है जिसपर सफ़ेद चादर है जिसमें पीले और गुलाबी फूल बने हैं. कल मैं दो कुशन खरीद के लायी. मद्धम रंग के खूबसूरत कुशन कि जिन्हें देख कर आँखों को ठंढक मिले. आजकल कमोबेश रोज ही उठते हुए मेरा कुछ लिखने को दिल करता है. मगर आज जाने क्यूँ लिखने का मन नहीं था. 

कमलेश की किताब 'बसाव' को पढ़ने का मन किया. ये किताब अनुराग ने दिल्ली पुस्तक मेले में अपनी तरफ से गिफ्ट की है...कि तुम्हें कमलेश को पढ़ना चाहिए. किताब अँधेरे में खुलती है और जैसे जैसे कवितायें पढ़ती जाती हूँ ये किताब मन में किसी पौधे की तरह उगती है. बारिश के बाद की गीली, भुरभुरी मिट्टी...गहरी भूरी...और नए पत्तों की कोमल हरीतिमा. किताब मन में उगती है. जड़ें जमाती हुयी. मुझे याद नहीं मैंने ऐसी आखिरी किताब कब पढ़ी थी. अगला पन्ना पलटते हुए आँखों में होता है एक भोला इंतज़ार. बचपन के इतवारों की तरह कि जब घर की छत पर से देखा करते थे दूर का चौराहा कि आज कौन मेहमान आएगा. कौन से दोस्त. कौन वाले अंकल. झूले पर कौन झूलेगा साथ. ये कवितायें मुझे भर देती हैं एक सोंधी गंध से. गाँव में चूल्हा लगाती हुयी दादी याद आती है. लकड़ी से उठता धुआं और कोयले. लडुआ बनाने की तैय्यारी और गीला गुड़. मेरी नानी और मेरी माँ. शमशानों को पढ़ते हुए मुझे याद आते हैं वो पितर जो कहीं दूर आसमानों में हैं.

ऐसी भी होती है कोई किताब क्या...ऐसा होता है कवि और ऐसी होती हैं कवितायें...मन में साध जागती है कि हाँ...ऐसा ही होता है जीवन...और इसलिए जीना चाहिए. कि हम भर सकें खुद को. कि किताबें मुझे और वाचाल बनाती हैं. 

मैं पृष्ठ संख्या ७७ पर ठहरती हूँ. एक आधी तस्वीर खींचती हूँ. खिड़की से धूप उतर आई है. चौखुट धूप और किताब पर रखी है महीन होके. इस शहर में धूप कितनी दुर्लभ है. किताब पढ़ने के पहले फिर शब्द उतरते हैं मन पर. अपनी बोली में. वे शब्द जिन्हें भूले अरसा हुआ. दातुन. खजूर का पेड़. कुच्ची. कुइय्या. दिदिया. हरसिंगार. मौलश्री. तुलसी चौरा. एन्गना. भागलपुरी नहीं बोल पाने की कसक चुभती है. मन करता है कि चिट्ठियां लिखूं. अपने गुरुजनों को. कि जिन्होंने भाषा सिखाई. जिन्होंने लिखना सिखाया. जिन्होंने जीना सिखाया. और फिर मित्रों को. स्नेह भीगी चिट्ठियां. भरी भरी चिट्ठियां. 

मैं पढ़ती हूँ आगे, कुछ कहानियों जैसा है...प्राक्कथन. कविता के पीछे की कहानी. कैसे बसते हैं बसाव. इंद्र का सिंहासन डोलता है. दानवान, यज्ञवान, सत्यवान पौत्र अपने अपने हिस्से का पुण्य देते हैं. कहाँ चले गए थे ये किरदार. मेरे जीवन ही नहीं मेरी कहानियों से भी लुप्त हो गए थे. मैं सोचती हूँ कि कितनी चीज़ों से बने होते हैं हम. क्या क्या खो जाता है हर एक इंसान के जाने के साथ ही. अपने शहर से अलग होने के कारण हमसे छिन जाते हैं वो सारे वार्तालाप भी जो चौक चौराहों तक इतने सरल और सहज थे जैसे कि वो उम्र और वो जीवन. कि प्रेम कितना आसान था उन दिनों. मैं अपनी नोटबुक में लिखे कुछ शब्दों को उकेरा हुआ देखती हूँ और सहेजती हूँ जितना सा जीवन बाकी है. इस सब में ही मैं इस किताब की आखिरी कविता तक आती हूँ...और जैसे सारा का सारा जीवन ही एक कविता में रह जाता है. मुझ में. मेरे होने में. मेरी सांस में. 

उजाड़ 
माँ ने कहा था:
अमुक 'राम' ने डीह का मंदिर बनवाया था -
शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई थी 
पुजारी नियुक्त किया था. 

अब सब परदेस चले गए.
जो लोग जल चढ़ा सकते थे वे नहीं रहे 
शिवालय खण्डहर हो गया.

माँ रोज सुबह नहा कर मंदिर में 
जल चढ़ाती रहती थी 
फिर वहाँ कुछ भी नहीं रहा शेष,
मंदिर के ईंट पत्थर भी धीरे-धीरे 
राह में लगने लगे. 

माँ ने पूछा: क्या मेरे कर्मों में है 
मंदिर बनवाना,
क्या मेरे बेटों के कर्मों में है 
मंदिर बनवाना!

पौत्र अभी गर्भ में नहीं आये
कौन माँ उन्हें डीह पर जनेगी.

माँ उनका प्रारब्ध पूछती है,
माँ की आँखों में अनेक प्रश्न हैं
अनुत्तरित,
प्रश्नों में ही कहीं उत्तर छिपा हुआ है.

डीह शिवरात्रि को उजाड़ रहा है
मंदिर में जल चढ़ाने को 
कोई नहीं बचा. 

- कमलेश

21 January, 2016

आँखों के आखिरी यातना शिविर

स्टैंडिंग सेल्स
२ बाय २ बाय ६ फुट के टेलेफोन बूथ नुमा कमरे थे जिन्हें स्टैंडिंग सेल्स कहा जाता था. यहाँ कैदी बमुश्किल खड़े हो सकते थे. इन में प्रवेश करने के लिए नीचे की ओर एक छोटा सा दो फुट बाय दो फुट का लोहे की सलाखों वाला दरवाज़ा होता था. हवा के आने जाने को भी बस इतनी ही जगह होती थी. इन में बैठ कर घुसना होता था और फिर खड़े हो जाना होता था. कई बार इन सेल्स में चार कैदी तक भर दिए जाते थे. इन में न सांस लेने भर हवा होती थी न रौशनी भर उम्मीद. सबसे ज्यादा आत्महत्याएं इन स्टैंडिंग सेल्स वाले कैदी ही करते थे.
--//--
तुमने उसकी आँखें देखीं? उसकी आँखों में यही स्टैंडिंग सेल्स हैं. उसकी आँखों को न देखो तो उसके पूरे वजूद में पनाह जैसा महसूस होता है. उसकी हंसी, उसका रेशम का स्कार्फ...उसकी ऊँगली में चमकती गहरे लाल पत्थर की अंगूठी...और उसकी बातों का सम्मोहन...मगर उसके करीब मत जाना. उसकी आँखें टूरिस्म के लिए नहीं हैं. वहां कैद हो गए तो बस मौत ही तुम्हें मुक्ति देगी.

तुमसे बात करते हुए अगर वह दूर, किसी बिना पत्तियों वाले पेड़ को देख रही है तो खुदा का शुक्र मनाओ कि वह तुम पर मेहरबान है. शायद उसे तुम्हारी मुस्कराहट बहुत नाज़ुक लगी हो और वह अपने श्रम शिविर से तुम्हें बचाना चाहती हो. उससे ज्यादा देर बातें न करो. उसका मूल स्वाभाव इस तरह क्रूर हो चूका है कि वह खून करने के पहले सोचती भी नहीं. She kills on autopilot. But isn't that how all mercenaries are? All, but women. तुम्हें कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े पता हैं? After a point of time it should stop hurting. But it doesn't.

स्टैंडिंग सेल्स की दीवारों पर जंग लगे ताले हैं. गुमी हुयी चाभियाँ हैं. भूल गए जेलर्स हैं. भूख, प्यास और विरक्ति है. नाज़ी अमानवीय यातनाएं दे कर यहूदियों को जानवर बना देना चाहते थे मगर उन्होंने बचाए रक्खी जरा सी रंगीन चौक...बत्तखें, खरगोश और अपने अजन्मे, मृत और मृत्पाय बच्चों की किलकारी.

लड़की कह नहीं सकती किसी से...इस आँखों के श्रम शिविर को बंद करो. गिराओ बमवर्षक विमानों से ठीक जगह बम. जला दो फाइलें. मैं भूल जाना चाहती हूँ अपने गुनाह. किसी न्यूरेमबर्ग कोर्ट में लगवाओ मेरा मुकदमा भी या कि सड़क पर ही पास करो फैसला मेरे अपराधी होने का.

प्रेम उसकी दुनिया का अक्षम्य और सबसे जघन्य अपराध है. 
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लाइन से खड़े हैं लोग दीवार की ओर मुंह कर कर. मेरे साथ और भी कई लोगों को फायरिंग स्क्वाड से उड़ाने का फैसला सुनाया गया. हवा में एक अजीब, निविड़ स्तब्धता ठहरी हुयी है. कोई सांस नहीं लेता यहाँ. मुझे अपने पहले जन्मदिन पर लाया केक और फूँक मार कर मोमबत्तियां बुझाना याद आ रहा है. हर बार बन्दूक चलती है और बारूद का धुआं उड़ता है.  आखिरी ख्वाहिश पूछने का रूमान बहुत पहले की दुनिया से छूट चूका है. मुझे कोई पूछे भी तो शायद मैं कोई इस तरह की ख्वाहिश बता नहीं पाऊँगी. मुझे जाने क्यूँ इक स्कूल के बच्चे याद आ रहे हैं. मैं वहां गयी नहीं हूँ शायद पर उस इकलौते स्कूल के बारे में पढ़ा है. नाजियों ने वहां मौजूद हर बच्चे को गोली मार दी थी. न उनका दोष पूछा गया था न उनकी आखिरी इच्छा. क्या ही होगी उन बच्चों की आखिरी इच्छा. कोई ख़ास फ्लेवर का आइसक्रीम...या चोकलेट...या शायद किसी दोस्त से किये गए झगड़े का समापन...मगर मेरी किताबें कहती हैं बच्चों को कमतर नहीं आंकना चाहिए. हो सकता है उनमें से किसी की ख्वाहिश देश का प्रधानमंत्री बनने की हो. 

कायदे से मुझे अपने इन अंतिम क्षणों में जीवन एक फिल्म रील की तरह चलता हुआ दिखाई पड़ना चाहिए. करीबी लोग स्लो मोशन में. मगर मेरे सामने खून में डूबे हुए लकड़ी के तख्ते हैं. बेढब और आड़े टेढ़े सिरों वाले. उन्हें आरी से काटा नहीं गया है, तोड़ कर छोटा किया गया है. इनके नुकीले सिरे भुतहा और डरावने हैं. अचानक मेरा ध्यान इन तख्तों के जरा ऊपर गया है. वहाँ एक सुर्ख पीला फूल अभी अभी खिला है. गोली की आवाज़ आती है. मेरे पहले तीन लोग और हैं जो मेरी बायीं ओर खड़े हैं. हवा बारूद की गंध से भरी हुयी है मगर हर फायर के साथ जरा और सान्द्र हो जाती है कि सांस लेने में तकलीफ होती है. अगली फायर के साथ मेरे ठीक दायीं ओर का कैदी धराशायी होता है और खून से वह पीला फूल पूरी तरह नहा कर सुर्ख लाल हो जाता है. कैदियों को किसी क्रम में सिलसिलेवार गोली नहीं मारी जा रही. मुझे आश्चर्य और सुख होता है. जिंदगी अपने आखिरी लम्हे तक अप्रत्याशित रही. अगली गोली निशाना चूक जाती है. कोई नौसिखुआ सैनिक होगा. शायद उसके हाथ कांप गए हों. मैं मुस्कुरा कर पीछे देखना चाहती हूँ. उसका उत्साह बढ़ाना चाहती हूँ कि तुम अगले शॉट में कर लोगे ऐसा. देखो, मैं कहीं भागी नहीं जा रही. मिसफायर की गोली जूड़े को बेधती निकली थी और इस सब के दरमयान बालों की लट जैसे लड़ कर आँखों के सामने झूल गयी. उस क्षणिक अँधेरे में तुम्हारी आँखें कौंध गयीं. किसी ने तुम्हें ठीक इसी लम्हे बताया है कि मुझे आज गोली मार दी जायेगी. तुम अचानक खड़े हो गए हो. तुम्हारी आँखों में कितने जन्म के आँसू हैं. तुम जानते हो, सीने में चुभते दर्द का मतलब. अब. मेरे ठीक सामने हो तुम. अश्कबार आँखें. 
आह! काश मैं ज़रा सा और जी पाती!

18 January, 2016

खुदा ने प्यास के दो टुकड़े कर के इक उसकी रूह बनायी...एक मेरी आँखें...

गुम हो जाना चाहती हूँ.
सोच रही हूँ कि खो जाने के लिये अपनी रूह से बेहतर जगह कहाँ मिलेगी. अजीब सी उदासी तारी है उंगलियों में. कि जाने क्या खो गया है. कोई बना है प्यास का...जैसे जैसे वो अंदर बसते जाता है उड़ती जाती हैं वो चीजें कि जिनको थाम कर जीने का धोखा पाला जाता है. मंटो की कहानी याद आती है कि जिसमें एक आदमी को खाली बोतलें इकठ्ठा करने का जुनून की हद तक शौक था.

अपनी दीवानावार समझ में उलीचती जाती हूँ शब्द और पाती हूँ कि मन का एक कोरा कोना भी नहीं भीगता. शहर का मौसम भी जानलेवा है. धूप का नामोनिशान नहीं. रंग नहीं दिखते. खुशबू नहीं महसूस होती. सब कुछ गहरा सलेटी. कुछ फीका उदास सफेद. कि जैसे थक जाना हो सारी कवायद के बाद.

मैं लिख नहीं सकती कि सब इतना सच है कि लगता है या तो आवाज में रिकौर्ड कर दूँ या कि फिल्म बनाऊँ कोई. शब्द कम पड़ रहे हैं. 

एक कतरा आँसू हो गयी हूँ जानां...बस एक कतरा...कि तुम्हारा जादू है, नदी को कतरा कर देने का. इक बार राधा को गुरूर हो गया था कि उससे ज्यादा प्रेम कोई नहीं कर सकता कृष्ण से...उसने गोपियों की परीक्षा लेने के लिये उन्हें आग में से गुजर जाने को कहा, वे हँसते हँसते गुजर गयीं, उनहोंने सोचा भी नहीं...कुछ अजीब हो रखा है हाल मेरा...सब कुछ छोटा पड़ता मालूम है...गुरूर भी...इश्क़ भी...और शब्द भी. सब कितना इनसिगनिफिकेंट होता है. इक लंबी जिन्दगी का हासिल आखिर होना ही क्या है.

दुनिया भर की किताबें हैं. इन्हें सिलसिलेवार पढ़ने का वादा भी है खुद से. मगर मन है कि इश्क़ का कोई कोरा कोना पकड़ कर सुबकता रहता है. उसे कुछ समझ नहीं आता. लिखना नहीं. पढ़ना नहीं. जब मन खाली होता है तो उसमें शब्द नहीं भरे जा सकते. उसे सिर्फ जरा सा प्रेम से ही भरा जा सकता है. दोस्तों की याद आती है. और शहर इक. 

कभी कभी देखना एक सम्पूर्ण क्रिया होती है...अपनेआप में पूरी. तब हम सिर्फ आँखों से नहीं देखते. पूरा बदन आँखों की तरह सोखने लगता है चीज़ें. बाकी सब कुछ ठहर जाता है. कोई खुशबू नहीं आती. कोई मौसम की गर्माहट महसूस नहीं होती. वो दिखता है. सामने. उसकी आँखें. उन आँखों में एक फीका सा अक्स. खुद का. उस फीके से अक्स की आँखों में होती है महबूब की छवि. मैं उस छवि को देख रही हूँ. वो इतना सूक्ष्म है कि होने के पोर पोर में है. दुखता. दुखता. दुखता. छुआ है किसी को आँखों से. उतारा है घूँट घूँट रूह में. देखना. इस शिद्दत से कि उम्र भर एक लम्हा भर का अक्स हो और जीने की तकलीफ को कुरेदे जाये. मेरे पास इस महसूसियत के लिए कोई शब्द नहीं है. शायद दुनिया की किसी जुबान में होगा. मैं तलाशूंगी. 

इश्क़ तो बहुत बड़ी बात होती है...रूह के उजले वितान सी उजली...मेरे सियाह, मैले हाथों तक कहाँ उसके नूर का कतरा आएगा साहेब...मैं ख्वाब में भी उसे छूने को सोच नहीं सकती...मेरे लिए तो बस इतना लिख दो कि इस भरी दुनिया में एक टुकड़ा लम्हा हो कि मैं उसे बस एक नज़र भर देख सकूँ उसे...मेरी आँखें चुंधियाती हैं...जरा सा पानी में उसकी परछाई ही दिखे कभी...आसमान में उगे जरा सा सूरज...भोर में और मैं उसकी लालिमा को एक बार अपनी आँखों में भर सकूं. क्या ऐसा हो सकेगा कभी कि मैं उसकी आँखों से देख सकूंगी जरा सी दुनिया. 

मैंने एक लम्हे के बदले दुःख मोलाये हैं उम्र भर के. हलक से पानी का एक कतरा भी नहीं उतरा है. कहीं रूह चाक हुयी है. कहाँ गए मेरे जुलाहे. बुनो अपने करघे पर मेरे टूटे दिल को सिलने वाले धागे. करो मेरे ज़ख्मों का इलाज़. जरा सा छुओ. अपनी रूह के मरहम से छुओ मुझे. 

खुदा खुदा खुदा. इश्क़ के पहले मकाम पर तकलीफ का ऐसा मंज़र है. आखिर में क्या हो पायेगा. ऐसा हुआ है कभी कि आपको महसूस हुआ है कि आपके छोटे से दिल में तमाम दुनिया की तकलीफें भरी हुयी हैं. मिला है कोई जिसने देख लिया है ज़ख़्मी रूह को. रूह रूह रूह. 

इस लरजते हुए. ज़ख़्मी. चोटिल. मन. रूह. को थाम लिया है किसी ने अपनी उजली हथेलियों में. कि जैसे गोरैय्या का बच्चा हो. बदन के पोर पोर में दर्द है. उसकी हथेलियों ने रोका हुआ है दर्द को. कहीं दूर तबले की थाप उठती है...धा तिक धा धा तिक तिक...

और सारा ज़ख्म कम लगता अगर यकीन होता इस बात पर कि ये तन्हाई में महसूस की हुयी तकलीफ है...आलम ये है साहेब कि जानता है रूह का सबसे अँधेरा कोना कि ठीक इसी तकलीफ में कोई अपनी शाम में डूब रहा होगा...

11 January, 2016

इस दीवानावार दुनिया में

जादू. तिलिस्म. सम्मोहन.  
कुछ होता जो लड़की को अपनी तरफ खींचता बेतरह. यूँ उसे कोई तकलीफ नहीं होती मगर बात इतनी थी कि उसे अपनी मर्ज़ी से एक नयी दुनिया बनानी आती थी. वो कभी भी, किसी भी वक़्त...खुली आँखों से या बंद आँखों से भी, एक दुनिया बनाती चली जाती...

किसी कॉफ़ी शॉप में. किसी रेस्तरां में. किसी पब में. सब उसकी आँख के सामने होता मगर जुदा होता. सतरंगी रंगों में रंगा होता. खुशबुओं में भीगा होता. वैसे में लोग उसकी आँखें देखते और कहते कि उसकी आँखें बहुत खूबसूरत हैं. वे साधारण लोग थे. उनके पास ऐसे ही दो चार शब्द हुआ करते...ख़ूबसूरत. नाइस...अव्सम जैसे. मगर लड़की के पास कलम होती. कि जिससे सब कुछ बदला जा सकता. रात की धुंध पे नाचते सितारे होते. चाँद की लौलीपॉप होती कि जिसका स्वाद होता मिंट का. हल्का हरा दिखता चाँद. मुराकामी के नावेल के दूसरे चाँद की तरह. हल्का दिल टूटता उसका. गुलज़ार की नजाकत से लिखी कहानी की दूसरी औरत की तरह. लड़की के पास एक शहर था. सेकंड हैण्ड प्रेमियों का शहर. ये शहर प्रेमिकाओं का भी हो सकता था. मगर प्रेमिकाएं शहर में नहीं रहतीं. दिल में रहती हैं. लड़की शहर से आड़े टेढ़े लोग बुला सकती थी. बदसूरत. बदमिजाजी से भरे हुए. मगरूर और साबुत. दुनिया को तोड़ कर सिकंदर बनने की ख्वाहिश पाले. मगर लड़की हमेशा टूटे हुए लोग चुनती. उनकी दरारों में जाड़े के फूलों की क्यारियां दिखतीं. गुलदाउदी के सफ़ेद, बड़े, फूल होते. फूलों के पार झांकते लोग होते. लोगों के पास लम्हे चुराने का हुनर होता. वे लोगों के लम्हे चुरा कर शीशे की छोटी छोटी बोतलों में रखते जाते. ये दुनिया का सबसे महंगा नशा होता. सबसे नशीला भी. इसे दुनिया ओल्ड मोंक के नाम से जानती. लम्हों को हल्के गुनगुने पानी में मिला कर कोहरे की पाइप से पीना होता. फिर कहीं कोई दीवारें नहीं होतीं जो रोक सकतीं. लोग समंदर में कूद कर जान देने लायक हिम्मत पा जाते. 

लड़की मर जाना चाहती. मगर फिर उसे लगता कि दुनिया को कुछ और कहानियों की शायद दरकार हो. लोगों ने उसके भटकने के किस्से ही सुने थे. उसे भटकते देख नहीं सकता था कोई. लड़की जब अकेली होती तो पारदर्शी होती. उसके आर पार सिर्फ रौशनी ही नहीं, पूरे पूरे शहर गुज़र जाते. उसके कैमरे की ब्लैंक रील फिर स्टूडियो की डार्क रूम में डेवलप नहीं की जा सकती थी. उसे सिर्फ कागज़ पर लिखा जा सकता था. स्टूडियो हेड उसकी रील देखते और फिर हँसते उसपर. तुम्हें कहानियां ही लिखनी होतीं हैं तो तुम कैमरा की रील क्यों बर्बाद करती हो. नोटबुक लेकर चला करो. लड़की कैमरा से देखती थी लोगों को तो वे मुस्कुराने लगते थे. उसकी मुस्कान के कोने में छुपी होती थी उदासी. कैमरा मुस्कान कैप्चर करता था. लड़की उदासी. अब किसी को नोटबुक दिखा कर रोने को तो नहीं कह सकती न. कि मैं राइटर हूँ. तुम पर एक कहानी लिखूंगी. एक आध आँसू गिरा दो मेरी नोटबुक पर. 

सब कुछ मन का वहम होता है. लड़की जो होती. हो लिखती. और जो लिखना चाहती. सब कुछ वहम होता. कभी कभी वह बिना कुछ कहे सिर्फ भटकना चाहती दिल्ली में. सुर्ख लाल रंग के गाउन में. कैमरा में टेलीफ़ोटो लेंस लगाए हुए. लाल किले की चारदीवारी से भी किसी की ओर वो लेंस पॉइंट करो तो ज़ूम करते ही उसके सारे दुःख नज़र आ जाएँ. 

उसने मन बांधना सीख लिया था. गहरे लाल धागे थे वो. उलझे हुए. उन पर ख़ुशी की एक परत चढ़ी थी. मन ख़ुशी से बाहर नहीं आना चाहता और हर सम्भावना पर बंध जाता. वो अपने दायें हाथ की सारी उँगलियों पर एक ख़ुशी का धागा लपेट कर रखती थी. इससे कलम पकड़ने में दिक्कत होती और उसे लिखते हुए भी हर लम्हा याद रहता कि उसे खुश रहना है. उसे दुखते किरदार नहीं लिखने हैं. मगर सारे किरदारों से चुरा कर एक किरदार रचना था उसे. जिसकी कमर में हमेशा रिवोल्वर या ऐसा कुछ रहे. छोटा कुछ जो हमेशा साथ लेकर चलना लाजिमी हो. छुपा हुआ कोई हथियार. क्यूंकि ज़ाहिर सी बात है न कि बड़ी किसी बन्दूक को लेकर लोग अपने दोस्तों से मिलने तो जायेंगे नहीं. किसी दुनिया में भी. उसने फिल्मों में देखा था कि किस तरह गैंगस्टर अपने सूट के नीचे हमेशा कोई सेमी आटोमेटिक रिवोल्वर रखते हैं. मैगजीन वाली बन्दूक होती है. उसे फिल्में देख कर ये भी मालूम था कि गन कैसे लोड करते हैं. उसने हाल में फिल्म में ही देखा था कि मरने के लिए बन्दूक को मुंह में रख कर गोली चलाना सबसे आसान होता है. मगर फिर भी उसे कभी कभी लगता था कि उसका हाथ कांप सकता है. उसने एक खूबसूरत किरदार लिखा. बेबी में अक्षय कुमार जैसा था. वैसा. सीक्रेट मिशन वाला. हँसते हुए उससे पूछा...कि तुम तो सोल्जर हो...तुम्हारे हाथ नहीं कांपेंगे न अगर गोली मार देने कहूँगी तो. किरदार उसका खुद का रचा हुआ था. शक की गुंजाइश ही कहाँ थी. लड़की सुकून में आ गयी. ख़ुशी का एक तागा उसकी उँगलियों पर भी बाँधा और कहा. वैसे किसी दिन भी खुश रहने का सोचना और मुझे गोली मत मारना. जिंदगी खूबसूरत है. खुशनुमा है. खुशफहम भले ही है मगर जीने लायक है. 

कहानी के हर दुखते मोड़ के बाद लड़की को मालूम होता था कि वो ख़ुशी रच सकती है. इसी सुख से भरी भरी रहती और जी लेती थी...इस बेतरह उलझी हुयी...नाराज़...दीवानावार दुनिया में. 

07 January, 2016

तुम्हें मुहब्बत से पढ़ेंगे ऐ नये साल

नया साल.
सुबह के कोहरे वाला शाल ओढ़े आया था. पापा के यहाँ आम के पेड़ पर झूला डाला था हमने. बचपन जैसा.
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इस साल की शुरुआत में जेन ने एक मेसेज शेयर किया था 'come to the new year empty', मुझे बात बड़ी अच्छी लगी थी. इसलिए पुरानी खुशियाँ. पुराने दुःख. पुराने झगड़े. भूल आती हूँ. नए साल में कुछ नया करेंगे. नया लिखेंगे. नया सीखेंगे. नयी जगहें घूमेंगे और नए तरह से बसाते जायेंगे नए शहरों को अपने भीतर.

बंगलौर में रहने के कारण हिंदी पढ़ना बहुत कम हो गया है. ऑनलाइन खरीदना उतना पसंद नहीं है. मैं किताबों को उनके पीछे वाले कवर पर लिखी चीज़ों से नहीं, किसी रैंडम पन्ने का कोई एक पैरा पढ़ कर खरीदती हूँ...यहाँ की दुकानों में हिंदी की वही पुरानी किताबें मिलती हैं जो मैंने कब से खरीद रखी हैं. अब तो हावड़ा स्टेशन पर भी हिंदी किताबें नहीं दिखतीं.

इसलिए दिल्ली वर्ल्ड बुक फेयर. सारे सारे दिन. 9 से 17 तक. बहुत से पुराने क्लासिक्स खरीदने हैं. कुछ नए लेखकों को पढ़ना है. थोड़ी इस बात की भी उत्सुकता है कि पहली बार अपनी 'तीन रोज़ इश्क़' मेले में बिकती हुयी देखूँगी. ऑटोग्राफ वैगेरह दूँगी. बहुत मज़ा आएगा. ब्लॉग पर वैसे तो बातचीत लगभग बंद है लोगों से...अपने रीडर्स से भी...मगर अगर कोई बुक फेयर आ रहा है तो थोड़ा पहले मेल वेल करके बातें की जा सकती हैं. मिला जा सकता है.

इस साल का टारगेट सिर्फ और सिर्फ किताबें पढ़ना है. बाकी सारे काम वगैरह छोड़ छाड़ के. अब ऐसा भी पाती हूँ कि अगर किसी से सिर्फ हिंदी में बात करनी हो तो अटकती हूँ...सही शब्द नहीं मिलता. शहर का आपके ऊपर कितना असर होता है. बैंगलोर में चूँकि लोग हिंदी में बात ही नहीं करते हैं तो लहज़ा ही बदल जाता है. ध्यान से सिर्फ सिंपल शब्दों का इस्तेमाल करती हूँ. जबकि दिल्ली में लोग भी वैसे मिलते हैं जिनसे बात करने के पहले सोचना नहीं पड़ता, हर शब्द का मतलब नहीं बताना पड़ता. दिल्ली आना भी किसी खूबसूरत किताब पढ़ना जैसा ही है.

मेरे घर में किताबों की गुंडागर्दी चलती है. इंसान को रहने की जगह मिले न मिले, किताबें अय्याशी में रहती हैं. आलम ये है कि सोचना पड़ रहा है कि किताबें खरीद तो लेंगे, रक्खेंगे कहाँ? अब दो दिन में नया बुकरैक तो लाने से रहे. दिल्ली से आने के साथ ही एक किताबों की अलमारी लानी पड़ेगी. देवघर गए थे तो वहां पुस्तक मेला लगा हुआ था. जानते हुए कि घर में और किताबें रखेंगे तो हम कहाँ रहेंगे की नौबत जल्द आने वाली है...कुछ सारी किताबों को ख़रीदे बिना रहा ही नहीं गया. इसमें से कुछ किताबें तो वहाँ घर पर रख दी हैं. हर बार कितना किताब यहाँ से ढो के ले जाएँ. ऑफिस की भागदौड़ और घर के काम को सम्हालते हुए हाल ये हुआ रहा कि रात को सोने समय किताब पढ़ने की आदत छूट गयी है. सोच रही हूँ, फिर से पढ़ना शुरू करूँ. फिलहाल ये किताबें आसपास हैं, देखें इनको कब खत्म कर पाती हूँ.


प्रेम गिलहरी दिल अखरोट- बाबुषा                           दोज़खनामा- अनुवाद - अमृता बेरा
संस्कृति के चार अध्याय- दिनकर                              त्रिवेणी- विजयदान देथा
लप्रेक- रवीश                                                      दीवान-ए-ग़ालिब - अली सरदार जाफरी (संपादन)
परछाई नाच- प्रियंवद
एक दिन मराकेश- प्रत्यक्षा                                     जंगल का जादू तिल तिल -प्रत्यक्षा
दुनिया रोज़ बनती है- आलोकधन्वा
आइनाघर- प्रियंवद (उधार by AS)                         Map - Szymborska
Dozakhnaama- translation Arunava Sinha    
The museum of innocence - Orhan Pamuk
Interpreter of Maladies - Jhumpa Lahiri        Letters to milena- Kafka
One hundred years of solitude - Marquez

इस साल कुछ फिल्में और बनानी हैं. छोटी फिल्में. अपने मन मिजाज मूड को बयान करती हुयीं. अपने हिसाब से. थोड़ा एडिटिंग पर ध्यान देना है. मन तो हारमोनियम खरीदने का भी कर रहा है बहुत जोर से. रियाज़ किये हुए बहुत वक़्त हुआ. घर गए थे तो पता चला म्यूजिक सर का ट्रान्सफर कहीं और हो गया है. अपनी लिखी कापियां तो जाने कहाँ खो गयीं. छोटा ख्याल की बंदिश...विलंबित आलाप...बड़ा ख्याल...सब गुम हुआ है. कुछ नहीं तो एक कैसियो का कीबोर्ड खरीद लेते हैं. कमसे कम इंस्ट्रुमेंटल बजा तो सकेंगे. मगर फिर लगता है कि हारमोनियम से रियाज़ करने में सुर दुरुस्त होता था. मन की शांति भी मिलती थी. और अभी भले जितना अजीब लगे सुनने में, पर उन दिनों जब रियाज़ करते थे तो योग करने जैसा, साधना करने जैसी फीलिंग आती थी. हमें गुरु बहुत अच्छे मिले थे. उन्होंने संगीत को मनोरंजन की तरह नहीं, साधना की तरह सिखाया. इस बार थोड़ा और संगीत की ओर लौटेंगे. कैसे लौटेंगे, मालूम नहीं.

जिंदगी में किये जाने वाले कामों की विशलिस्ट ख़त्म हो गयी है लगभग. अब नयी लिस्ट बनानी है. कुछ नए काण्ड करने हैं. कुछ तूफानी. कुछ खुराफाती. हालांकि अब बहुत हद तक स्थिरता आ गयी है मगर एक मन अभी भी बेलौस भागता है. पिछले साल का अजेंडा ट्रैवेल था. दुनिया छान मारी. इस साल लिखना और पढ़ना है. मन बहुत संतोषी प्राणी टाइप फील कर रहा है. बेकरारी नहीं लगती. घबराहट नहीं लगती. 

दिल्ली कमबख्त. रेड कारपेट की जगह रेड अलर्ट लगा के बैठी हो नालायक. कैसे आयेंगे हम. जल्दी जल्दी हालत दुरुस्त करो. 

मुझे ऐसा लगता है कि इस साल मैं आत्मचिंतन करूंगी. चुप होने वाली हूँ. सोचूंगी सब कुछ...भीतर भीतर. इक ऐसा दरवाजा बनाउंगी जिसके पार कोई न जा सके. कहीं न कहीं एक वैराग है जो बहुत जोर से हिलोरे मार रहा है. कन्याकुमारी का विवेकानंद रॉक बहुत अजीब किस्म से फ़्लैश कर रहा है. अभी के वैभवशाली रौशनी में डूबा हुआ नहीं. वैसा कि जब विवेकानंद उस तक तैर के चले गए थे. 

समुद्र है. लहरें हैं. 
मन. शान्ति की ओर है. 

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