27 April, 2016

द राइटर्स डायरी: आपने किसी को आखिरी बार खुश कब देखा था?


आपने आखिरी बार किसी के चेहरे पर हज़ार वाट की मुस्कान कब देखी थी? थकी हारी, दबी कुचली नहीं. असली वाली मुस्कान. कि जिसे देख कर ही जिन्दगी जीने को जी करे. जिसे दैख कर उर्जा महसूस हो. किसी अजनबी को यूं ही मुस्कुराते या गुनगुनाते कब देखा था? राह चलते लोगों के चेहरों पर एक अजीब सा विरक्त भाव क्यूँ रहता है...किसी की आँखों में आँखें डाल कर क्यूँ नहीं देखते लोग? ये कौन सा डर है? ये कौन सा दुःख है कि साए की तरह पीछे लगा हुआ है. 

खुल कर मुस्कुराना...गुनगुनाते हुए चलना कि कदम थिरक रहे हों...जरा सा झूमते हुए से...ओब्सीन लगता है...गलीज...कि जैसे हम कोई गुनाह कर रहे हों. कि जैसे दुनिया कोई मातम मना रही हो सफ़ेद लिबास में और हम होलिया रहे हैं. बैंगलोर में ही ऐसा होता है कि पटना में भी होने लगा है हमको मालूम नहीं. सब कहाँ भागते रहते हैं. दौड़ते रहते हैं. हम जब सुबह का नाश्ता साथ कर रहे होते हैं मुझे देर हो जाती है रोज़...मैं धीरे खाती हूँ और खाने के बीच बीच में भी बात करती जाती हूँ. मेरे दोस्त जानते हैं. मैं उसकी हड़बड़ी देखती हूँ. उसे ऑफिस को देर हो रही होती है. ये पांच मिनट बचा कर हम क्या करेंगे. जो लोग सिग्नल तोड़ते हैं या फिर खतरनाक तेज़ी से बाइक चलाते हैं उन्हें कहाँ जाना होता है इतनी हड़बड़ी में. 

आजकल तो फिर भी मुस्कान थोड़ी मद्धम पड़ गयी है वरना एक वक़्त था कि मेरी आँखें हमेशा चमकती रहती थीं. मुझे ख़ुशी के लिए किसी कारण की दरकार नहीं होती थी. ख़ुशी मेरे अन्दर से फूटती थी. बिला वजह. सुबह की धूप अच्छी है. होस्टल में पसंद का कोई खाना बन गया. खिड़की से बाहर देखते हुए कोई बच्चा दिख गया तो उसे मुंह चिढ़ाती रही. ऑफिस में भी हाई एनर्जी बैटरी की तरह नाचती रहती दिन भर. कॉलेज में तो ये हाल था कि किसी प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहे हैं तो तीन दिन लगातार काम कर लिए. बिना आधा घंटा भी सोये हुए. लोग तरसते थे कि मैं एक बार कहूँ, मैं थक गयी हूँ. अजस्र ऊर्जा थी मेरे अन्दर. जिंदगी की. मुहब्बत की. मुझे इस जिंदगी से बेइंतेहा मुहब्बत थी. 

हम सब लोग उदास हो गए हैं. हम हमेशा थके हुए रहते हैं. चिड़चिड़े. हँसते हुए लोग कहाँ हैं? मुस्कुराना लोगों को उलझन में डालता है कि मैं कोई तो खुराफात प्लान कर रही हूँ मन ही मन. ये गलत भी नहीं होता है हमेशा. कि खुराफात तो मेरे दिमाग में हमेशा ही चलती रहती है. अचानक से सब डरे हुए लोग हो गए हैं. हम डरते हैं कि कोई हमारी ख़ुशी पर डाका डाल देगा. कि हमारी ख़ुशी को किसी की नज़र लग जायेगी. ख़ुशी कि जो रोज धांगी जाने वाली जींस हुआ करती थी...सालों भर पहनी जाने वाली, अब तमीज, तबियत और माहौल के हिसाब से पहनी जाने वाली सिल्क की साड़ी हो गयी है कि जो माहौल खोजती है. आप कहीं भी खड़े खड़े मुस्कुरा नहीं सकते. लोग आपको घूरेंगे. मेरा कभी कभी मन करता है कि राह चलते किसी को रोक के पूछूं, 'तुमने किसी को आखिरी बार हँसते कब देखा था?'.

रही सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है. अजीब लगेगा सुनने में मगर कई बार मेरे घर में ऐसा हुआ है कि चार लोग बैठे हैं हॉल में और सब अपने अपने फोन पर व्हाट्सएप्प पर एक दूसरे से ही किसी ग्रुप के भीतर बात कर रहे हैं. मुझे अक्सर क्लास मॉनिटर की तरह चिल्लाना पड़ता है कि फ़ोन नीचे रखो और एक दूसरे से बात करो. कभी कभी सोचती हूँ वायफाय बंद कर दिया करूँ. मैं पिछले साल अपने एक एक्स-कलीग से मिलने गयी थी स्टारबक्स. राहिल. मैंने उससे ज्यादा बिजी इंसान जिंदगी में नहीं देखा है. क्लाइंट्स हमेशा उसके खून के प्यासे ही रहते हैं. उन्हें हमेशा उससे कौन सी बात करनी होती है मालूम नहीं. वे भूल जाते हैं कि वो इंसान है. कि उसका पर्सनल टाइम भी है. इन फैक्ट हमने अपने क्लाइंट्स को बहुत सर चढ़ा भी रखा है. राहिल जब मिलने आया तो उसने अपने दोनों फोन साइलेंट पर किये और दोनों को फेस डाउन करके टेबल पर रख दिया. कि मेसेज आये या कॉल आये तो डिस्टर्ब न हो. कोई आपको अपना वक़्त इस तरह से देता है माने आपने इज्जत कमाई है. उसके ऐसा करने से मेरे मन में उसके प्रति सम्मान बहुत बढ़ गया. रेस्पेक्ट जिसको कहते हैं. म्यूच्यूअल रेस्पेक्ट. वो उम्र में कमसे कम पांच साल छोटा है मुझसे जबकि. मैं किसी से मिलती हूँ तो मोबाइल साइलेंट पर रखती हूँ. अधिकतर फोन कॉल्स उठाती नहीं हूँ. मुझे फोन से कोफ़्त होती है इन दिनों. मैं वाकई किसी बिना नेटवर्क वाली जगह पर छुट्टियाँ मनाने जाना चाहती हूँ. 

और चाहने की जहाँ तक बात आती है. मैं कुछ ज्यादा नहीं. बस चिट्ठियां लिखना चाहती हूँ. ये जानते हुए भी कि ऐसा सोचना खुद को दुःख के लिए तैयार करना है. मैं जवाब चाहती हूँ. मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे चिट्ठियां लिखे. मगर इतना जरूर कि मेरी लिखी चिट्ठियों का जवाब आये. 

आज ऐसा इत्तिफाक हुआ कि फोन पर बात करते हुए कुछ कमबख्त दोस्त लोग सिगरेट पीते रहे. हम इधर कुढ़ते भुनते रहे कि इन दिनों एकदम सिगरेट को हाथ नहीं लगायेंगे. मैं सिगरेट बिलकुल नहीं पीती. बेहद शौकिया. कभी छः महीने में एक बार एक सिगरेट पी ली तो पी ली. हाँ इजाजत की माया की तरह मुझे भी अपने बैग में सिगरेट का पैकेट रखने का शौक़ है. मेरे पास अक्सर सिगरेट रहती है. लाइटर भी. RHTDM का वो सीन याद आ रहा है जिसमें लाइट कटती है और मैडी कहता है, 'अच्छा है...मेरे पास माचिस है'. दिया मिर्जा कहती है, 'तुम सिगरेट पीते हो?'. मैडी कहता है, 'अरे मेरे पास माचिस है तो मैं सिगरेट पीता हूँ, मेरे पास कैंची है तो मैं नाई हो गया...व्हाट सॉर्ट ऑफ़ अ लॉजिक इस दैट'. मेरे बैग से लाइटर निकलता है तो मैं भी यही कहती हूँ. हालाँकि बात ये है कि लाइटर कैंडिल जलाने के लिए रखे जाते हैं.

ख़ुशी गुम होती जा रही है. आप कुछ कीजिये अपनी ख़ुशी के लिए. अपने बॉस, अपने जीवनसाथी, अपने माता-पिता, अपने दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी के अलावा...कुछ ऐसा कीजिये जिसमें आपको ख़ुशी मिलती हो. इस बारे में सोचिये कि आपको क्या करने से ख़ुशी मिलती है. दौड़ने, बागवानी करने, अपनी पसंद का खाना बनाने में, दारू पीने में, सुट्टा मारने में, डांस करने में, गाने में...किस चीज़ में? उस चीज़ के लिए वक़्त निकालिए. जिंदगी बहुत छोटी है. अचानक से ख़त्म हो जाती है. 

दूसरी बात. आपको किनसे प्यार है. दोस्त हैं. महबूब हैं. परिवार के लोग हैं. पुराने ऑफिस के लोग. उनसे मिलने का वक़्त निकालिए. यकीन कीजिये अच्छा लगेगा. आपको भी. उनको भी. जिंदगी किसी मंजिल पर पहुँचने का नाम नहीं है. ये हर लम्हा बीत रही है. इसे हर लम्हे जीना चाहिए. जिंदगी से फालतू लोग निकाल फेंकिये. जिनके पास आपके लिए फुर्सत नहीं है उनके लिए आपके पास वक़्त क्यूँ हो. उन लोगों के साथ वक़्त बिताइए जिन्हें आपकी कद्र हो. जिन्हें आप अच्छे लगते हों. और सुनने में ये भी अजीब लगेगा, लेकिन लोगों को हग किया कीजीये, जी हाँ, वही जादू की झप्पी. सच में काम करती है. मेरी बात मान कर ट्राय करके देखिये. शुरू में थोड़ा अजीब, चेप टाइप भले लगे, लेकिन बाद में अच्छा लगने लगेगा. सुख जैसा. सुकून जैसा. बचपन के भोलेपन जैसा. 

और सबसे जरूरी. खुद से प्यार करना. कोई भी परफेक्ट नहीं होता है. आपसे गलितियाँ होंगी. पहले भी हुयी होंगी. पिछली गलतियों को माफ़ नहीं करेंगे तो आगे गलितियाँ करने में कितना डर लगेगा. इसलिए खुद को हर कुछ दिन में क्लीन स्लेट देते रहिये. हम एक नए दौर में जी रहे हैं जिसमें कुछ भी ज्यादा दिनों नहीं चलता. उदासियाँ ओढ़ने का क्या फायदा. मूव ऑन.

यही सब बातें मैं खुद को भी कहती हूँ. इस दुनिया को जरा सी और खुशी की जरूरत है. जरा मुस्कुराईये. मुहब्बत से. 

26 April, 2016

मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.

प्रेम हर बार सम् से शुरू होता है. मैं विलंबित ख्याल में आलाप लेती हूँ. मेरी आवाज़ तुम्हें तलाशती है. ठीक सम् पर मिलती हैं आँखें तुमसे...ठहर कर फिर से शुरू होता है गीत का बोल कोई...सांवरे...

प्रेम को हर बार चाहिए होती है नयी भाषा. नए प्रतीक. नए शहर. नए बिम्ब. प्रेम आपको पूरी तरह से नया कर देता है. हम सीखते हैं फिर से ककहरा कि जो उसके नाम से शुरू होता है. वक़्त की गिनती इंतज़ार के लम्हों में होती है.

प्रेम आपको आप तक ले कर आता है. मैंने बचपन में हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत छः साल तक सीखा है. संगीत विशारद की डिग्री भी है. गुरु भी अद्भुत मिले थे. मैंने अपनी जिंदगी में किसी को उस तरह गाते हुए नहीं सुना है. फिर जिंदगी की कवायद में कहीं खो गया संगीत.

मैंने हारमोनियम ग्यारह साल बाद छुआ है. मगर ठीक ठीक संगीत छूट गया था देवघर छूटने के साथ ही १९९९ में. बात को सत्रह साल हो गए. देवघर में हमारा अपना घर था. पटना में किराए का अपार्टमेंट था. गाने में शर्म भी आती थी कि लोग परेशान होंगे. शाश्त्रीय संगीत को शोर ही समझा जाता रहा है. फिर घर छूटा. दिल्ली. बैंगलोर. 

संगीत तक लौटी हूँ. पहली शाम हमोनियम पर आलाप शुरू किया तो पाया कि सारे स्वर इस कदर भटके हुए हैं कि एकबारगी लगा कि हारमोनियम ठीक से ट्यून नहीं है. मगर फिर समझ आया कि मुझे वाकई रियाज किये बहुत बहुत साल हो गए हैं. आखिरी बार जब रियाज किया था तो एक्जाम था. उन दिनों सारे राग अच्छे से गाया करती थी. छोटा ख्याल, विलंबित ख्याल. तान. आलाप. पकड़. छः साल लगातार संगीत सीखते हुए ये भी महसूसा था कि आवाज़ वाकई नाभि से आती महसूस होती है. पूरा बदन एक साउंडबॉक्स हो जाता है. संगीत अन्दर से फूटता है. उन दिनों लेकिन मन से तार नहीं जुड़ता था. टेक्निक थी लेकिन आत्मा नहीं. वरना शायद संगीत को कभी नहीं छोड़ती.

इन दिनों बहुत मन अशांत था. मैं ध्यान के लिये योग नहीं कर सकती. मन को शांत करने के लिए सिर्फ संगीत का रास्ता था. सरगम का आलाप लेते हुए वैसी ही गहरी साँस आती है. मन के समंदर का ज्वारभाटा शांत होने लगता है. हारमोनियम ला कर पहला सुर लगाया, 'सा' तो आवाज़ कंठ में ही अटक रही थी. गला सूख रहा था. ठहर भी नहीं पा रही थी. सुरों को साधने में बहुत वक़्त लगेगा. हफ्ते भर के रियाज में इतना हुआ है कि सुर वापस ह्रदय से निकलते हैं. मन से. सारे स्वर सही लगने लगे हैं. अभी सिर्फ शुद्ध स्वरों पर हूँ. कोमल स्वरों की बारी इनके बाद आएगी.

प्रेम. संगीत के सात शुद्ध स्वर. 

मेरे अंतस से निकलते. मैं होती जा रही हूँ संगीत. इसी सिलसिले में सुबह से पुरानी ठुमरियों को सुन रही थी. ये सब बहुत पहले सुना था. उन दिनों समझ नहीं थी. उन दिनों क्लासिकल सुनना अच्छा नहीं लगता था. न हिन्दुस्तानी न वेस्टर्न. शायद वाकई क्लासिक समझने के लिए सही उम्र तक आना पड़ता है. जैज़ भी पिछले एक साल से पसंद आ रहा है. संगीत के साथ अच्छी बात ये है कि आप उससे प्रेम करते हैं. उसे समझने की कोशिश नहीं करते. मुझे सुनते हुए राग फिलहाल पकड़ नहीं आयेंगे. शायद किसी दिन. मगर मेरा वो करने का मन नहीं है. मैं अपने सुख भर का गा लूं. अपने को सहेजने जितना सुन लूं...बस उतना काफी है.

इस वीडियो में तस्वीर देखी. आँख भर प्रेम देखा. उजास भरी आँखें. श्वेत बाल. बड़ी सी काली बिंदी. वीडियो प्ले हुआ और मुझे मेरा सम् मिल गया. मैं सुबह से एक इसी को सुन रही हूँ. मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.
'जमुना किनारे मोरा गाँव
साँवरे अइ जइयो साँवरे'

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