23 August, 2017

प्रेम सिर्फ़ एक कोमल रौशनी है, जिसके छूने से आप थोड़ा सा और ख़ूबसूरत हो जाते हैं, बस।


ज़िंदगी इतनी सिम्पल नहीं है जितनी हमें बचपन में लगती थी। बहुत सारे फ़ैक्टर्ज़ होते हैं। बहुत सी कॉम्प्लिकेशंज़ होती हैं। सही ग़लत का कोई एक पैमाना नहीं होता। कोई आख़िरी सत्य नहीं होता। इस सब के बीच हमें हर सुबह एक लड़ाई लड़नी होती है। अच्छे और बुरे के बीच। जो चीज़ें हमें दुखी करेंगी और जिन चीज़ों से हमें सुख मिलता है उनके बीच। ऐसे लोग होंगे जो हमसे बहुत प्यार करते हैं और ऐसे भी लोग होंगे जो हमें दुःख पहुँचाना चाहेंगे। इस सब के बीच, अगर मुमकिन हो सके कि सुख हो, एक हाथ भर की दूरी पर, तो हाथ बढ़ा कर उस सुख को मुट्ठी में बाँध रखने की कोशिश करनी चाहिए।

सुख का पूरा आसमान भी काफ़ी नहीं होता। कि सुख बहुत हल्का सा होता है। बादल जैसा। रुई के फ़ाहे जैसा। हवा मिठाई जैसा। हल्का। मीठा। उड़ जाता है। एक जगह टिकता नहीं कहीं। कोई डैंडिलायन लिए रहें तेज़ हवा वाली किसी शाम और सोचें इश्क़ के बारे में। ये जानते हुए कि इनकी जगह कहीं और है। सुख बहुत थोड़ा सा मिलता है। हमें उसी को सहेज कर सम्हाल कर जीना होता है जीवन।

सुबह उठ कर धूप भरा कमरा देखती हूँ तो मन में सुख उतरता है कि मुझे धूप बहुत अच्छी लगती है। मेरे घर के हर कमरे की खिड़की पर विंडचाइम टंगी हुयी है। चौथे महले का मेरा घर अपार्टमेंट के कोने पर है इसलिए यहाँ हवा का क्रॉस-वेंटिलेशन रहता है। कभी पुरवा बहती है, कभी पछुआ। एकदम ही हवा ना चले, ऐसे दिन बहुत कम होते हैं। घर कभी शांत नहीं रहता। हमेशा विंडचाइम की हल्की सी टनमनाहट रहती है। बहुत साल पहले जब विंड चाइम पहली बार फ़ैशन में आए थे तो इनके बारे में पढ़ा था कि ये बुरी आत्माओं को बाहर रखते हैं इसलिए इन्हें खिड़की या दरवाज़े पर टांगा जाता है। ऐसा कोई ख़ास भूत प्रेत से डर लगता हो ऐसा नहीं है लेकिन फिर भी जब इस घर में पहली बार आयी। यूँ कहें कि अपने घर में पहली बार आयी तो सबसे पहले एक ख़ूबसूरत सी विंडचाइम ख़रीदी अपने घर के लिए। घर की इकलौती बालकनी में वो विंडचाइम टाँगी। घर की सबसे पुरानी यादों में भी उस की मीठी आवाज़ की जगह है। महाबलीपुरम गयी तो वहाँ पहली बार समुद्री सीपी के खोल से बनी विंडचाइम देखी। इसकी आवाज़ में एक तरह की खड़खड़ाहट थी। एक अनगढ़पना। समुद्र की लय। उसे ला कर घर में रखा तो कई दिन तक यूँ ही शोपीस की तरह खिड़की के एक कोने में टांगा था उसे। कभी कभी उसपर मिर्ची लाइट्स लगा देती थी और कमरे में आते समंदर को महसूस करती थी। फिर एक बहुत तेज़ हवा के दिन उसे खिड़की के ठीक सामने टाँग दिया। तब से उसकी जगह नहीं बदली है। जब पूरब से हवा बहती है तो पूरा समंदर उतर आता है मेरे हॉल में। सफ़ेद छोटे छोटे वृत्ताकार गोलों से बना हुआ वो विंडचाइम किसी बच्ची की घेरदार फ़्रॉक जैसा लगता है। मासूम। शुद्ध। फिर एक रोज़ मिट्टी की बनी विंडचाइम लायी। वो भी बालकनी में टाँग रखी है। पुदुच्चेरी से लायी एक छोटी सी मेटल की विंडचाइम अपनी स्टडी की खिड़की पर टाँगी हुयी है। उसकी आवाज़ बहुत ही हल्की है। पहली बार जब सुनी तो उसका मद्धम सुर और उसकी लय मन को मोह गयी। पश्चिम के कमरे की खिड़की में एक विंडचाइम और एक ड्रीमकैचर टांगा हुआ है। दोपहर की धूप में रंग भी घुलते हैं और धुन भी। किसी भी समय मेरे घर में एक विंडचाइम का ऑर्कस्ट्रा बजता रहता है। इस ऑर्कस्ट्रा की धुनें सुख को घर में बुलाती हैं। मेरे मन को सुकून से भरती हैं। ये आवाज़ मेरे लिए चैन की आवाज़ है। सुकून की। ये आवाज़ें मेरे लिए मेरा घर हैं।

मुझे फूल बहुत पसंद हैं। ताज़े फूल। मैं अक्सर सफ़ेद और पीले ज़रबेरा लेकर आती हूँ अपने घर के लिए। इसके अलावा लिली। अगर मिले तो सफ़ेद, या फिर गुलाबी और एकदम ही कुछ ना मिलें तो गहरे गुलाबी भी। लिली की ख़ुशबू मुझे बहुत पसंद है। बहुत मायावी और मिथकीय लगती है वो। इसकिए कि लिली की ख़ुशबू को पहली बार महसूसा था तो J पास में खड़ा था। किसी किरदार को रचते हुए मैं उसकी सारी पसंद नापसंद रचती जाती हूँ। तीन रोज़ इश्क़ के इस किरदार को सफ़ेद रंग बहुत पसंद था। सफ़ेद शर्ट्स। सफ़ेद फूल। उन्हीं दिनों पहली बार लिली की गंध छुई थी। रखी थी अपनी कलाई पर। जिया था थोड़ा हिज्र। लिली का फूल महँगा होता है। सौ रुपए का एक। तो जिन दिनों पास में पैसे होते हैं इतने कि एक फूल के लिए या कि उसकी गंध के लिए सौ रुपए लगा सकूँ तब ही ख़रीदती हूँ। लिली एक तरह से एग्ज़ॉटिक फूल है मेरे लिए। कभी दुर्लभ। कभी अलभ्य। कई बार मैं महीने के अंत में फूलवाले के यहाँ जाती हूँ। लिली को देखती हूँ। दाम पूछती हूँ, जबकि कई साल से वहाँ से ही फूल ले रही हूँ। लिली का दाम ७५ से १०० के बीच रहता है। मैं सोचती हूँ कि क्या उसे लगता होगा कि मैंने पैसों के लिए फूल नहीं ख़रीदे। या कि वो सोचता है मैं मूड के हिसाब से फूल ख़रीदती हूँ। ज़रबेरा सबसे अच्छे फूल होते हैं। दस से पंद्रह रुपए के बीच दाम रहता है। हमेशा पीले और सफ़ेद ज़रबेरा मिल भी जाते हैं। कभी कभी मैं पिंक और सफ़ेद या फिर गहरे लाल और सफ़ेद ज़रबेरा भी ख़रीदती हूँ। इनमें ख़ुशबू नहीं होती लेकिन ये बड़े ख़ुश फूल होते हैं। ख़ास तौर से जो पीला होता है, धूप की तरह का सुनहला पीला। उसे देख कर हमेशा मन ख़ुश हो जाता है। फूल अक्सर मेरी डाइनिंग टेबल या कि मेरी स्टडी टेबल पर होते हैं।

हम सुख को चुनते हैं। हर लम्हा। उसे सहेजते, सकेरते हैं। मैं लोगों को कहती हूँ कि मेरा घर एक अजयबघर है। म्यूज़ीयम। यहाँ मेरे साथ आओ तो मैं हर चीज़ की एक कहानी सुना दूँगी तुम्हें कि वाक़ई हर चीज़ के पीछे कहानी होती है। कुछ भी ऐवैं ही नहीं होता यहाँ। मेरी राइटिंग टेबल के एक ओर खिड़की है। खिड़की से एक गली दिखती है जो मेन रोड में खुलती है। सामने की छत पर एक नीली साइकिल रखी हुयी है। जब वो बारिश में भीगती है तो मैं किसी कहानी के अजन्मे बच्चे के बारे में सोचती हूँ। किसी छोटे लड़के के बारे में। अक्सर। खिड़की पर एक हैंगिंग गमले में मनीप्लांट का पौधा है। टेबल पर एक रंगबिरंगे पत्तों वाला कोई तो पौधा है। हरा रंग आँखों को ठंढक देता है। महोगनी की गंध वाला कैंडिल है। रात को जलाती हूँ तो जाने कहाँ की याद हूक जैसे चुभती है सीने में। दुःख, सुख की झीनी चादर ओढ़े भी आता है कभी कभी।

दुःख गहरा होता है। भारी। सांद्र। दुःख हमें घेर कर मारता है। दुःख पूरी तैय्यारी के साथ आता है और दिनों, महीनों टिका रहता है। जब तक सुख का पूरा राशन ख़त्म ना हो जाए। दुःख को मालूम होता है कि क़िला एक ना एक दिन टूटेगा ही। लेकिन हमने एक सुरंग बना रखी है इस सबके बीच। ये सुरंग कभी कविताओं के शहर में खुलती है, कभी कहानियों की नदी में। हम अपने घर में रहना चाहते हैं, मरना नहीं। तो जब भी दुःख की घेरे बंदी हमें अकुला देती है, हम किसी चुप्पी सुरंग से बाहर निकल आते हैं।

***
वह सहसा चुप हो गयी, जैसे कोई बहुत पुरानी स्मृति अपने भीतर कुरेद रही हो...
"कौन सी बात रायना?"
"हम बैरक में बैठे ठिठुर रहे थे, आग नहीं थी। उस पोल ने हमें सिगरेटें दीं, फिर हँसते हुए कहा कि दो तरह के सुख होते हैं। -- एक बड़ा सुख, एक छोटा सुख। बड़ा सुख हमेशा पास रहता है, छोटा सुख कभी-कभी मिल पाता है...सिगरेट पीना, ठंढ में आग सेंकना, ये उसके लिए छोटे सुख थे...और बड़ा सुख -- साँस ले पाना, महज़ हवा में साँस ले सकना -- इससे बड़ा सुख कोई और नहीं है..."
वह चुप हो गयी। कमरे के धुँधलके में हम कुछ देर बाहर बारिश की नीरव टपाटप सुनते रहे।
"क्या तुम उससे बाद में कभी मिलीं?"
"नहीं..." वह खड़ी हो गयी और खिड़की के बाहर देखने लगी, "बाद में हमें पता चला, वह पोलिश यहूदी था। दे शॉट हिम..."

- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा
***
ऐसे भी दिन होते हैं कि लगता है पूरी दुनिया का दुःख मेरे सीने में अटका हुआ है। उलझा हुआ है। ऐसे दिन होते हैं कि लगता है जान चली जाएगी। दोस्त, महबूब...सब ही चले जाते हैं दिल तोड़ कर।

एक लड़की जिसे मैंने शायद अपनी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा प्यार किया था, उसने ऐसा ही कुछ लिखा था मेरी डायरी में। कि हमें छोटे छोटे सुख तलाशने चाहिए।

जानां, मैं इतने में जी लूँगी...कि किसी दूर आसमान के कोरे काग़ज़ पर मेरे नाम ये ख़त आया था।

"कोई अभागा ही होगा जो तुम्हारे ख़त ना पहचान सके"

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